मुक्तिबोध की कविताओं में फैंटेसी

प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के बीच से अपने मार्ग संधान करने वाले कवि मुक्तिबोध ने मानव-जीवन की जटिल संवेदनाओं और उसके अन्तर्द्वन्द्वों की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति के लिए ‘फैंटेसियों’ का कलात्मक प्रयोग किया है। ‘फैंटेसी’ में कल्पनाओं और विचारों की परतें एक के बाद एक ‘खुलती चली जाती हैं और कवि की मानसिक उर्वरता का सही बोध पाठकों के समक्ष उपस्थित होता है।

‘फैंटेसी’ शब्द का निर्माण यूनानी शब्द ‘फैंटेसिया’ से हुआ है, जिसका अर्थ है- ‘मनुष्य की वह क्षमता, जो संभाव्य संसार की सर्जना करती है।’ मुक्तिबोध के अनुसार “फैंटेसी मन की निगूढ़ वृत्तियों का, अनुभूत जीवन वृत्तियों का, इच्छित विश्वासों और इच्छित जीवन स्थितियों का प्रक्षेप है। मुक्तिबोध की अनेक कविताएँ फैंटेसीपरक हैं, यथा- ‘ब्रह्मराक्षस’, ‘अंधेरे में’, ‘लकड़ी का रावण’ आदि।

‘फैंटेसी’ वस्तुतः द्वन्द्व पर आधृत होती है। कलाकार जब अपने समय के यथार्थ से असन्तुष्ट होकर स्वप्न और फैंटेसी के संसार में प्रवेश करता है। तब फैंटेसी का निर्माणहोता है। ‘युंग’ के कथनानुसार- ‘फैंटेसी’ मुक्त साहचर्य का पर्याय है और अवरोधहीन असंगत बिम्बों का आकलन है।’ मुक्तिबोध की मान्यता है कि फैंटेसी में भावात्मक उद्देश्य एवं दिशा का होना अनिवार्य है। फैंटेसी मानसिक प्रक्रिया होते हुए भी जब सामाजिक यथार्थ से जुड़ती है, तब रचना -प्रक्रिया को बदल देती है। अक्सर फैंटेसी की कथा, चरित्र और कार्य सभी प्रतीकात्मक होते हैं।

मुक्तिबोध स्वयं फैंटेसी पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि ‘वह स्वप्न के भीतर एक स्वप्न, विचारधारा के भीतर और एक प्रच्छन्न विचारधारा, कथ्य के भीतर एक और कथ्य, मस्तिष्क के भीतर एक और मस्तिष्क, कक्ष के भीतर एक और गुप्त कक्ष फैंटेसी है। ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ में मुक्तिबोध की जो कविताएँ संकलित हैं। उनमें दो कविताएँ ‘ब्रह्मराक्षस’ एवं ‘अंधेरे में’ अपनी फैंटेसी के कारण अधिक चर्चित रही हैं। यहाँ इन दोनों कविताओं के मन्तव्य को तथा उसकी फैंटेसी को व्यक्त किया जा रहा है।

‘ब्रह्मराक्षस’ नामक कविता में ‘ब्रह्मराक्षस’ मध्य वर्ग की बौद्धिक चेतना का प्रतीक है। इस चेतना के कारण वह मुक्ति के लिए छटपटाता है। जीवनपर्यन्त जो ज्ञान वह अर्जित करता है; उसी से अपनी मुक्ति का मार्ग खोजता है, पर मुक्ति के इस प्रयास में वह और भी उलझता चला जाता है। यहाँ संकेत यह है कि व्यक्ति प्राप्त ज्ञान को व्यावहारिक नहीं बना पाता, उसे ‘क्रिया’ (एक्शन) में परिणत नहीं कर पाता; परिणामतः जीवनपर्यंत भटकता रहता है और अंतत: ‘फ्रस्ट्रेशन, कुण्ठा, निराशा आदि का शिकार हो जाता है। यहाँ यह कहना चाहता है कि संचित अनुभव और ज्ञान तभी सार्थक होता है, जब वह निरन्तर विकसित एवं प्रवर्द्धित होता रहे और भावी ज्ञान की आधारशिला बने। यदि ऐसा नहीं होगा तो अतीत का ज्ञानात्मक संवेदन और अनुभव व्यर्थ प्रमाणित हो जाएगा। मूलबद्ध संस्कारों के कारण विकसित पाप की छाया से आत्मशुद्धि के लिए वह निरन्तर बाबड़ी में स्नान करता हुआ अपनी देह घिसता रहता है, किन्तु उसका मैल कम होने की बजाय बढ़ता ही जाता है। तन की मलिनता दूर करने के लिए, पाप की छाया दूर करने के लिए, अपने को स्वच्छ करने के लिए ब्रह्मराक्षस घिस रहा है देह, हाथ के पंजे बराबर बांह, छाती, मुंह छपाछप खूब करते साफ, फिर भी मैल…..!

बुद्धिजीवी की यही विडम्बना है कि वह प्रत्येक विचारक के मत की मनोनुकूल व्याख्या करता हुआ उसी में उलझा रहता है। उसका अपूर्ण ज्ञान उसे दम्भी बना देता है और इसीलिए तिरछी पड़ी रवि रश्मि को देखकर उसे लगता है कि सूर्य भी उसे झुककर प्रणाम कर रहा है।

वस्तुतः ब्रह्मराक्षस की ट्रेजिडी आज के बुद्धिजीवी की ट्रेजिडी है। वह ज्ञानोपार्जन करके भी मनोवांछित परिवर्तन नहीं कर पाता। इस प्रक्रिया में वह जो प्रयत्न करता है, वे असफल हो जाते हैं परिणामतः वह निराशा एवं कुण्ठा से भर जाता है। उसकी मूल विडम्बना यह है कि वह उपलब्ध ज्ञान को क्रिया में नहीं बदल पाता परिणामतः अन्तः बाह्य संघर्ष में जूझता रहता है।

मुक्तिबोध की धारणा थी कि अतीत से पूरी तरह टूटकर कोई भी वर्तमान सार्थक भविष्य का रूप नहीं ले सकता। इस कविता में वे इसी विचारधारा को प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करना चाहते हैं। ब्रह्मराक्षस अतीत की बौद्धिक चेतना है जो.. बावड़ी रूपी वर्तमान समूह-मन में रहता है और अपनी आत्मा के अन्वेषण में रत है। मुक्तिबोध अपनी ‘फैंटेसियों’ में प्रतीकों का माध्यम ग्रहण करते हैं। वे सामान्य भाषा में नहीं अपितु प्रतीकों और बिम्बों की भाषा में बोलते हैं।

‘अंधेरे में’ मुक्तिबोध की यह लम्बी कविता लगभग पैंतालीस पृष्ठों की है और उनके काव्य संकलन ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ में संकलित है। इस कविता का प्रारम्भ भी कवि ने ‘फैंटेसीपरक’ वातावरण से किया है। यथा : वृक्षों के अंधेरे में छिपी हुई किसी एक तिलस्मी खोह का शिलाद्वार खुलता है धङ् से घूमती है लाल-लाल मशाल अजीब-सी अन्तराल बिवर के तम में लाल-लाल कुहरा कुहरे में सामने रक्तालोक स्नात पुरुष एक रहस्य साक्षात्।

इस कविता में दो रक्तालोक स्नात पुरुष हैं। इनमें से एक तो अंधेरे कमरों में चक्कर लगा रहा है और दूसरा बाहर तालाब की लहरों में अपना चेहरा देखता हुआ भीतर आने के लिए सांकल बजा रहा है। वस्तुतः ये दोनों रक्तालोक स्नात पुरुष क्रमशः सामाजिकता एवं कविता के प्रतीक हैं। मुक्तिबोध इन प्रतीकों के माध्यम से यह कहना चाहते हैं कि मनुष्य की पूर्ण सम्भावनाएँ तभी प्रकट होंगी, जब कविता सामाजिकता को ग्रहण कर ले और समाज कविता को अंगीकार कर ले। दूसरे शब्दों में दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। इस कविता में जिस ‘अंधेरे’ का उल्लेख है, वह यह संकेतित करता है कि आज सामाजिकता अव्यवस्था से घिर गई है तथा कवि के मानस में भी अंधेरा व्याप्त है, उसका व्यक्तित्व भी अन्धकारग्रस्त है। उसे आत्मान्वेषण करते हुए उपलब्ध जीवन सत्यों से आत्म-विस्तार करना होगा, तभी यह अंधेरा दूर होगा। उसे ‘मैं’ से ‘हम’ की ओर जाना होगा। अपनी अस्मिता एवं इयत्ता को समाज समर्पित करना होगा। तभी आत्मशुद्धि होगी और तभी प्रकाश होगा। निश्चय ही यह कवि के आत्म-परिष्कार एवं आत्म-विस्तार को द्योतित करने वाली फैंटेसी है। यहाँ रक्तालोक स्नात पुरुष को मानव संस्कृति के विकास हेतु संघर्षरत ‘संस्कृति पुरुष’ (कवि) का प्रतीक माना जा सकता है, जो मध्यवर्ग के आदर्शवादिता को दृढ़ता से धारण किए हुए हैं और जिसकी प्रवृत्ति समझौतावादी नहीं है।

मुक्तिबोध की कुछ अन्य कविताएँ यथा- ‘दिमागी गुहान्धकार का ओरांग उटांग’ और ‘लकड़ी का बना रावण’ भी फैंटेसीपरक कविताएँ हैं। ‘ओरांग उटांग’ से कवि का अभिप्राय मन की भीतरी परतों में दबे अवचेतन से है। यथा : ‘कोठे के सांबले गुहान्धकार में मजबूत सन्दूक दृढ़ भारी-भरकम और उस सन्दूक के भीतर कोई बन्द है यक्ष, या कि ओरांग उटांग, हाय।’

‘लकड़ी के बने रावण’ को डॉ. इन्द्रनाथ मदान ने उस काव्य नायक का प्रतीक माना है जो अपने परिवेश से कट गया है। वह शिखर पर अकेला खड़ा है, अपने मोह से घिरा हुआ। इसे यदि माक्सवादी दृष्टि से देखें तो यह रावण पूँजीवादी वर्ग का प्रतीक है, जो बस अब नष्ट होने ही वाला है। मैं मन्त्र कीलित-सा भूमि में गड़ा-सा जड़ खड़ा हूँ अब गिरा तब गिरा इसी पल कि उसी पल।

समग्रतः यह कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में फैंटेसी का सफल प्रयोग किया है। ये ‘फैंटेसी अन्तर्द्वन्द्वग्रस्त मन से उद्भूत हैं, किन्तु इनका भावात्मक उद्देश्य तया सम्वेदनात्मक दिशा है। भले ही फैंटेसी मानसिक प्रक्रिया हो, किन्तु सामाजिक यथार्थ से जुड़कर उसने अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी है।

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