‘अस्मिता’ शब्द संस्कृत भाषा के ‘अस्मिन’ से बना है। इसमें मूल धातु है- ‘अस्मि’, जिसका अर्थ है- ‘मैं हूँ’। इस प्रकार अस्मिता का अर्थ होगा- ‘स्वयं के होने का बोध’। हिन्दी शब्दकोश के अनुसार अस्मिता का अर्थ है- ‘आत्मश्लाघा’, ‘मोह, ‘अहंकार’, ‘अपनी सत्ता का भाव’, ‘आपा’ इत्यादि। ‘अस्मिता’ का सीधा संबंध व्यक्ति के पहचान से है। इस पहचान के अनेक आयाम हैं। इसमें नाम, जाति, लिंग, वंश, धर्म, वर्ग, क्षेत्र, राष्ट्र, व्यवसाय आदि सम्मिलित होते हैं। अर्थात् अस्मिता व्यक्तिगत भी हो सकती है और सामूहिक भी। हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार राजेन्द्र यादव ‘अस्मिता’ के संबंध में कहते हैं- “‘अस्मिता’ जितनी मेरी है, उतनी ही मेरे परिवेश और परंपरा की भी। उसमें वर्ण, वर्ग, क्षेत्र, धर्म, लिंग, परंपराएँ सभी कुछ घुले मिले हैं।” वे ‘अस्मिता’ को एक मानसिक निर्मिति के रूप में व्याख्यायित करते हुए आगे कहते हैं- “अस्मिता अपनी निजी पहचान के साथ-साथ उस क्षेत्र और समाज के पहचान की भी है, जो हमारे संदर्भ तय करते हैं। ये संदर्भ जाति, रंग, वर्ग, नस्ल, क्षेत्र, भाषा, जेंडर, पेशे इत्यादि के रूप में हमारे अंतरंग के हिस्से हैं।
सही अर्थों में अस्मिता-बोध की आवश्यकता तभी होती है, जब हमारी निजी या सामूहिक पहचान पर खतरा हो। अर्थात् अगर किसी व्यक्ति या समुदाय के जाति, धर्म, कुल, वंश, राष्ट्र, भाषा, लिंग आदि पहचानों को मिटाने या हीन घोषित करने की चेष्टा की जाती है, तो वह व्यक्ति या समुदाय इन पहचानों को बचाने की कोशिश करता है। यह कोशिश आंदोलन, साहित्य, विचारधारा, इतिहास – लेखन, कला आदि अनेक रूपों में अभिव्यक्त होती है। ‘अस्मिता’ के स्वरूप को व्याख्यायित करते हुए अभय कुमार दुबे लिखते हैं- “यह (अस्मिता) एक ऐसा दायरा है, जिसके तहत व्यक्ति और समुदाय यह बताते हैं कि वे खुद को क्या समझते हैं। अस्मिता का यह दायरा अपने-आप में एक बौद्धिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक संरचना का रूप ले लेता है, जिसकी रक्षा करने के लिए व्यक्ति और समुदाय किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।” दूबे जी की अंतिम पंक्ति विचारणीय है, ‘जिसकी रक्षा करने के लिए व्यक्ति और समुदाय किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।’ तात्पर्य यह कि अस्मिता की रक्षा के लिए व्यक्ति या समुदाय आक्रामक रूप भी अपना सकते हैं। यही कारण है कि अस्मितामूलक विमर्श का एक गुण आक्रामकता भी है। यहाँ आक्रामकता किसी के विध्वंस के लिए नहीं, बल्कि अपनी ‘अस्मिता’ की रक्षा के लिए है। अपनी व्यक्तिगत या सामूहिक पहचान को कायम रखने के लिए है।
‘अस्मिता’ प्राप्ति के संघर्ष की शुरुआत व्यक्तिगत या सामुदायिक तौर पर अपने को वंचित, पीड़ित और प्रताड़ित होने के अहसास से ही होती है। इसमें अपनी पहचान प्राप्त करना ही सबसे बड़ा उद्देश्य हो जाता है। अधिकारों से विहीन वह व्यक्ति या समुदाय समाज के द्वारा किए गए अन्याय सदियों से होते आ रहे शोषण के खिलाफ खड़ा हो जाता है। ‘अस्मिता’ प्राप्ति के लिए किये गए संघर्ष या प्रयास व्यक्ति और समुदाय को जागरूक बनाते हैं और यह जागरूकता उन्हें दिशाहीन होने से बचाती है।
यह अस्मिता-बोध का सकारात्मक पक्ष था, परंतु कई बार अस्मिताबोध समाज में गैर- जरूरी हिंसा और संघर्ष को भी बढ़ावा देती है। इतिहास में इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। संभव है कि धार्मिक, भाषाई और जातीय दंगे या एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र से युद्ध- जैसे कई हिंसक टकराव के मूल में यह अस्मिताबोध ही रहा हो। इस तरह के टकरावों के उदाहरण समकालीन विश्व के लगभग हर हिस्से में मिल जाएंगे। अस्मिता-बोध के इस पक्ष पर प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन लिखते हैं- “पहचान की भावना हत्याएँ भी करवा सकती हैं- क्रूर से क्रूर हत्याएँ। किसी समूह के अंग होने की पहचान और यह कि हम दूसरे समूहों से अलग हैं, कई दफा दूसरे समूहों से दूरियाँ और उनसे भिन्न होने का भाव पैदा करती है।”
अस्मिता के बाद ‘विमर्श’ शब्द पर विचार करना अनिवार्य है। हिन्दी में ‘विमर्श’ शब्द का प्रयोग अंग्रजी के ‘डिस्कोर्स’ (Discourse) शब्द के लिए किया जाता है। ‘अस्मिता-विमर्श’ को अंग्रेजी में ‘आईडेंटिटी डिस्कोर्स’ (Identity Discourse) कहते हैं। अंग्रेजी में अक्सर ‘डिस्कोर्स’ शब्द का प्रयोग लिखित या वाचिक बहस के लिए किया जाता है। हिन्दी में इसे हम ‘वाद-विवाद और संवाद’ भी कह सकते हैं। बहस के लिए कमसे-कम दो पक्षों का होना अनिवार्य है। संसार में ज्ञान के सृजन की प्रक्रिया में प्राचीनकाल से ही बहुपक्षीय विमर्शों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। अर्थात् ‘विमर्श’ शब्द जागरूकता का परिचायक है और बिना जागरूकता के अस्मिता-बोध संभव नहीं है। अतएव, हम कह सकते हैं कि व्यक्तिगत या सामूहिक अस्मिता के बोध को जागृत करने के लिए किया गया विमर्श ही अस्मिता-विमर्श है। अस्मिता जब संकट में होती होती है, तभी विमर्श की स्थिति उत्पन्न होती है। उपेक्षित वर्ग को अपनी पहचान बनाए रखने और अपने दमित-वंचित होने के अनुभव से ऊपर उठने के लिए विमर्श की आवश्यकता पड़ती है। इस विमर्श के सहारे ही उपेक्षित वर्ग समाज की मुख्यधारा में अपना स्थान बनाने की चेष्टा करता है। चूँकि समाज में कई तरह की पहचान है, इस कारण कई तरह के उपेक्षित वर्ग भी हैं। इन सभी उपेक्षित वर्गों के द्वारा अपनी पहचान स्थापित करने के लिए किए गये विमर्शों को समन्वित रूप से ‘अस्मिता-विमर्श’ या ‘अस्मितामूलक -विमर्श’ की संज्ञा दी जाती है।
अकादमिक जगत में तमाम मुख्य विमर्श के पीछे आधुनिकतावादी, उत्तर-उपनिवेशवादी एवं सबाल्टर्न और नवमार्क्सवादी विचारधाराओं और सिद्धांतों को प्रेरक माना जाता है, परंतु अस्मिता एवं अस्मिता-विमर्श संबंधी अभी तक हमने जितनी भी चर्चाएँ की हैं, उनका आरंभ इन विचारधाराओं के उद्भव से कहीं पहले हो चुका था। इन विचारधाराओं ने पूर्व से प्रचलित अस्मितामूलक विमर्शों को तीव्र गति एवं दिशा प्रदान अवश्य किया है और कुछ नयी अस्मिता-विमर्श को प्रारंभ किया है। उदाहरणार्थ- स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, आदिवासी-विमर्श आदि की शुरुआत उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में ही हो गई थी। तब इन विचारधाराओं का अस्तित्व भी नहीं था। अगर हम भारतीय संदर्भ में विचार करें, तो दलित-विमर्श की शुरुआत ज्योतिबा फूले एवं सावित्रीबाई फूले के विचारों से मानी जाती है। दलित-विमर्श के अन्य दो भीमराव अंबेडकर एवं ई० रामास्वामी पेरियार जैसे विचारक उपर्युक्त विमर्श के उदय से पूर्व ही सामाजिक और वैचारिक रूप से दलित-विमर्श की जमीन तैयार कर चुके थे। इसी तरह स्त्री अधिकारों की मांग फ्रांसीसी क्रांति के दौरान ही आरंभ हो गयी थी, जिसने उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरंभ तक स्त्री-विमर्श या नारीवाद का स्वरूप ग्रहण कर लिया था।
अपनी अस्मिता या ‘स्व’ की पहचान को लेकर वैसे तो मानव- समाज में बहुत पहले से चर्चा होती रही है, परंतु अस्मिता-संबंधी विमर्शों के जन्म का सीधा संबंध यूरोप के पुनर्जागरण या नवजागरण के फलस्वरूप उत्पन्न हुई आधुनिकता से जोड़ा जा सकता है। पुनर्जागरण ने धर्म के स्थान पर तर्क को वरीयता दी और पुरानी धार्मिक मान्यताएँ ध्वस्त हुईं। अलग-अलग पहचान वाले समूहों के लोगों ने धार्मिक ग्रंथों को इतिहास और स्मृति के आईने में देखना शुरु किया।
आगे बढ़ने से पूर्व ‘आधुनिक’, ‘आधुनिकीकरण’, ‘आधुनिकता’ तथा ‘आधुनिकतावाद’ पर संक्षिप्त चर्चा अनिवार्य है। ‘आधुनिक’ शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप में परंपरा से विद्रोह या प्राचीन के विपरीत नवीन दृष्टि के लिए होता है। ‘आधुनिकीकरण’ का संबंध पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत किये जा रहे यंत्रीकरण तथा औद्योगीकरण से है। ‘आधुनिकता’ का संबंध आधुनिकीकरण के फलस्वरूप प्राचीन तथा पारंपरिक विचारों एवं मूल्यों, धार्मिक विश्वासों और रुढ़िग्रस्त मान्यताओं के खिलाफ नवीन आविष्कारों और व्यवहारों से है। यही नवीन विचारों, मूल्यों और व्यवहारों ने जब आंदोलन एवं विचारधारा का स्वरूप ले लिया तो उसे ‘आधुनिकतावाद’ कहा जाने लगा। यूरोप में पुनर्जागरण के फलस्वरूप जो आधुनिक चेतना उत्पन्न हुई, इसके कारण ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुता’ के नारे के साथ 1789 ई. में फ्रांस की राज्य क्रांति हुई। रूसो और वाल्तेयर से चिंतकों ने व्यक्ति-स्वातंत्र्य की अवधारणा रखी। फ्रांसीसी क्रांति ने आधुनिकतावाद, मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, उदारतावाद, राष्ट्रवाद, नारीवाद, अश्वेत-आंदोलन जैसे कई विचारधाराओं की नींब तैयार कर दी। इन अलग-अलग विचारधाराओं ने व्यक्ति-अस्मिता एवं सामूहिक अस्मिता को अपने-अपने तरीके से व्याख्यायित किया। आधुनिकतावाद के कारण धार्मिक ग्रंथों की पुनर्व्याख्या हुई। इन्हें तर्क और विवेक की कसौटी पर कसा गया। भारतीय संदर्भ में देखें तो फुले, पेरियार और अंबेडकर ने हिन्दू धर्म ग्रंथों में अभिव्यक्त पुनर्जन्म एवं कर्मफल के सिद्धांतों को चुनौती दी। ‘मनुस्मृति’ एवं अन्य स्मृति-ग्रंथों पर आधारित वर्णाश्रम एवं जाति-व्यवस्था के सिद्धांतों को अपने तर्क से ध्वस्त किया। इन्होंने अबतक अछूत समझी वाली जातियों को एक अस्मिता के सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया, जिसे ‘दलित- अस्मिता’ कहा गया। इस प्रकार भारत में ‘दलित-विमर्श’ की शुरुआत हुई। इसी तरह ब्रिटिश शासन के खिलाफ हुए आंदोलन ने भारत को एक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में स्थापित किया।
कार्ल मार्क्स ने मार्क्सवाद का प्रवर्तन किया। मार्क्स ने समाज को दो वर्गों में विभाजित किया- पूँजीपति और सर्वहारा । मार्क्सवाद ने अपने श्रम से उत्पादन करने वाले को सर्वहारा के रूप में सामूहिक पहचान देने का काम किया। उन्होंने मजदूरों को एक वर्गीय अस्मिता के रूप में चिह्नित किया। मार्क्सवाद के अनुसार मजदूरों के शोषण का अंत वर्ग-संघर्ष के द्वारा ही संभव है। नारीवाद के उत्थान में भी मार्क्सवादी विचारों की अहम् भूमिका रही है। स्त्रियों हेतु समान काम के लिए समान वेतन, मातृत्व अवकाश, काम के घंटे को कम करना इत्यादि मांगों के पीछे मार्क्सवाद के मुक्ति कामी सिद्धांत ही थे।
अस्मिता-विमर्श के परिप्रेक्ष्य में अस्तित्ववाद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वैयक्तिक अस्मिता को लेकर सबसे पहले अस्तित्ववाद में ही है गहराई से विचार मिलता है। अस्तित्ववाद मूलतः आधुनिक जीवन-शैली एवं मार्क्सवाद के खिलाफ उत्पन्न दर्शन है। यह विचारधारा मानती है कि व्यक्ति के विकास एवं निर्माण को समाज विभिन्न वर्जनाओं एवं निषेधों से अवरुद्ध करता है।
अस्तित्ववाद के अनुसार, प्रत्येक मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है। व्यक्ति वहीं बनता है, जो वह अपने लिए चयन करता है। इस चयन की स्वतंत्रता के परिणामस्वरूप ही मनुष्य अपने अस्तित्व को न केवल प्रमाणित करता है, बल्कि उसे प्रमाणिक भी बनाता है। अस्तित्ववाद के अनुसार मनुष्य अपनी विषम और पीड़ादायक स्थितियों के लिए स्वयं जिम्मेदार है। अनास्था, अजनबीपन, अलगाव, एकाकीपन, संत्रास, चिंता आदि जैसे शब्द अस्तित्ववाद से निकले हैं। हिन्दी साहित्य पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। अस्तित्ववाद ने ‘स्व’ की खोज पर बल दिया, जिसमें अस्मिता के बीज छिपे थे।
उत्तर- आधुनिकतावाद’ वस्तुतः आधुनिकतावाद और मार्क्सवाद के विरोध में उत्पन्न विचारधारा है। इस विचारधारा का प्रवर्तन बीसवीं शताब्दी के 50 और 60 के दशक में हुआ। यह आधुनिकतावाद के तर्क का निषेध करती है। यह आधुनिकतावाद पर प्रश्नचिह्न लगाती है। यह मार्क्सवाद के व्यापक सर्वहारा वर्ग की एकता के खिलाफ सर्वहारा के भीतर विद्यमान अलग-अलग अस्मिताओं की बात करती है। इसके अनुसार कुछ भी संपूर्ण नहीं है। यह संपूर्णता का खंडन करती है। इस कारण यह केन्द्रीयता के स्थान पर विकेन्द्रीयता, स्थानीयता या क्षेत्रीयता, विभिन्नता आदि पर जोर देती है। यह बहुलतावाद या बहु-संस्कृतिवाद पर आधारित है।
अस्मिता-विमर्श के दृष्टिकोण से उत्तर-आधुनिकतावाद इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह केन्द्र से परिधि की ओर यात्रा करती है। उत्तर-आधुनिकतावादी विचारधारा के लिए समाज के वे विभिन्न समूह जो हाशिये पर है या जिन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया है, वे महत्वपूर्ण हो गए। इस विचारधारा ने हाशिये पर स्थित समूहों यथा- अश्वेत, दलित, आदिवासी, स्त्री, धार्मिक एवं भाषायी अल्पसंख्यक, समलैंगिक, वृद्ध, विकलांग आदि और हर तरह से विपथगामी लोग, जिनकी अब तक कोई पहचान या आवाज, समाज और सत्ता में भागीदारी नहीं था, उन्हें वर्चस्व के संघर्ष के नए समूहों के के रूप में देखा। समाज और साहित्य में चलने वाले नित्य नये विमर्शों के पीछे इस विचारधारा की अहम् भूमिका है।
उत्तर-आधुनिकतावाद की भाँति ही उत्तर-उपनिवेशवाद’ भी अस्मिता-विमर्श के साथ गहराई से जुड़ा है। ‘उत्तर- उपनिवेशवाद की अवधारणा यूरोपीय उपनिवेशों से आजाद होने वाले वाले देशों में ‘स्वत्व’ की खोज से उत्पन्न हुई। अपनी अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान को हासिल करने की छटपटाहट उत्तर-उपनिवेशवाद के केन्द्र में स्थित है। उत्तर- उपनिवेशवाद के बहस के केन्द्र में संस्कृति और भाषा है। इस विचारधारा के चिंतकों का मानना है कि कोई भी साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेश न सिर्फ भौतिक रूप से क्षति पहुँचाता है, बलि सांस्कृतिक रूप से भी। उत्तर-उपनिवेशवाद मानता है कि उपनिवेशवाद से आजाद होने के बावजूद औपनिवेशिक अवशेष संस्कृति, भाषा, इतिहास – दृष्टि आदि के रूप में बचे होते हैं। इन औपनिवेशिक अवशेषों को नष्ट करना ही उत्तर-उपनिवेशवादी विचारधारा का उद्देश्य है। इसके लिए देशी बुद्धिजीवी, स्थानीय साहित्य, संस्कृति, भाषा, इतिहास का पुनर्निमंर्माण करने का प्रयास करते हैं, जो उस आजाद हुए देश और उसके लोगों को अलग पहचान देता है। इस प्रक्रिया में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जन्म होता है। इस राष्ट्रवाद में जाति, नस्ल, धर्म और अतीत के कई सवाल उठते हैं, जिनका उद्देश्य ‘अस्मिता की तलाश’ होता है।
‘सबाल्टर्न’ दृष्टिकोण अस्मितामूलक-विमर्श को एक नया आयाम प्रदान करता है। सामान्य रूप से ‘सबाल्टर्न’ शब्द का प्रयोग फौज में अधीनस्थ अधिकारियों के लिए किया जा रहा है। मुख्य रूप से इस शब्द का प्रयोग प्रथमतः इटली के मार्क्सवादी चिंतक अंतोनियों ग्राम्शी ने किया था। ‘सबाल्टर्न’ का शाब्दिक अर्थ है- अधीनस्थ, मातहत, उपेक्षित, निम्नवर्गीय आदि।
सबाल्टर्न पर विचार करने से पूर्व ग्राम्शी के ‘हेजेमनी’ (प्रभुत्व) के सिद्धांत पर विचार करना आवश्यक है। ग्राम्शी यह कहते हैं कि वर्गीय समाज के गठन के समय से ही शासक वर्ग हमेशा अल्पमत में रहा है, लेकिन अपने वैचारिक तथा सांस्कृतिक प्रभुत्व के कारण वह बहुसंख्यक जनता पर शासन करने में सफल रहा है। इस वैचारिक एवं सांस्कृतिक प्रभुत्व को चुनौती दिए बगैर वैकल्पिक समाज के निर्माण की लड़ाई असंभव है। ग्राम्शी यह कहते हैं कि ‘हेजेमनी’ के निर्माण के लिए शासक वर्ग इतिहास, विचारधारा, संस्कृति, भाषा, परंपरा आदि का सहारा लेता है। इससे अधीनस्थ वर्ग यानी सबाल्टर्न शासक वर्ग के नियंत्रण में रहते हैं। ग्राम्शी सबाल्टर्न के शोषण को आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। ग्राम्शी का ‘सबाल्टर्न को एक वर्ग के रूप में नहीं देख सकते हैं। ग्राम्शी ‘सबाल्टर्न’ को हाशिये पर खड़े तमाम छोटी- बड़ी अस्मिताओं के रूप में देखते हैं, जिन्हें इतिहास में स्थान नहीं मिल सका है। ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि ऐसे जन समुदायों और वर्गों के इतिहास लेखन पर बल देती है, जिनका अब तक इतिहास में कहीं उल्लेख नहीं किया गया या उसका गलत रूप में चित्रण किया गया है। अतएव, “सबाल्टर्न इतिहास दृष्टि प्रत्येक देश, भाषा, धर्म, समुदायों के उप-वर्गों को चिह्नित करती है। सबाल्टर्न दृष्टि दलित, आदिवासी, स्त्री, प्रवासी, अल्पसंख्यक आदि की अस्मिता को इतिहास एवं संस्कृति के माध्यम से स्थापित करता है। अर्थात ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के केन्द्र में वे हैं, जिन्होंने अभी तक बोला नहीं है या अपनी पहचान अथवा अस्मिता का दावा नहीं किया है।
निष्कर्षतः अस्मितामूलक विमर्श के निर्माण में विभिन्न विचारधाराओं की भूमिका है। इन विचारधाराओं ने अनेक तरह की अस्मिताओं को उभारने की चेष्टा की है। ये विचारधाराएँ समाज को समग्रता के स्थान पर अलग- अलग टुकड़ों में देखने का आग्रह करती है। इन विचारधाराओं में अभी कई तरह के विवाद भी हैं। अभी अस्मितावादी सिद्धांत विकासमान हैं। अस्मिताओं में आपसी टकराहट जारी है। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि अस्मितामूलक विमर्श संबंधी सिद्धांतों एवं विचारों ने उन्हें आवाज और पहचान दी है, जो सदियों से समाज की मुख्यधारा से बहिष्कृत और वंचित होकर हाशिये पर खड़े थे।