आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी (1907-1979 ई.) हिन्दी के ऐसे ऐतिहासिक उपन्यासकार हैं, जिनके उपन्यास इतिहास के तथ्यों पर उतने आधारित नहीं हैं, जितने ऐतिहासिक वातावरण एवं देशकाल पर आधारित हैं, जिसकी सृष्टि उन्होंने अपनी अद्भुत कल्पना-शक्ति से की है। उनके लिखे चारों उपन्यास इसी प्रकार के हैं। उन उपन्यासों के नाम हैं- ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ (1946 ई.), ‘चारुचन्द्र लेख’ (1963 ई.), ‘पुनर्नवा’ (1973 ई.) एवं ‘अनामदास का पोथा’ (1976 ई.)।
द्विवेदी जी का प्रथम उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में सातवीं शती के भारत की राजनीतिक स्थिति का निरूपण हुआ है। उस समय उत्तर भारत पर हूणों का आक्रमण हुआ था और कोई भी बड़ी शक्ति उनका प्रतिरोध कर सकने में सक्षम नहीं थी। स्थाणीश्वर का शासक हर्षवर्धन था और बाणभट्ट उन्हीं का दरबारी कवि था। इस उपन्यास के कुछ पात्र ऐतिहासिक हैं; यथा- हर्षवर्धन, कुमार कृष्णवर्द्धन, राज्यश्री, देवपुत्र मिलिंद, बाणभट्ट आदि……। काल्पनिक पात्र हैं -निपुणिका, महामाया, भट्टिनी, अघोर भैरव, जबकि कुछ अन्य पात्र सुचरिता आदि।
वस्तुतः द्विवेदीजी ने उपन्यास के कथानक में इतिहास की पृष्ठभूमि ही ली है, शेष सबकुछ उन्होंने कल्पना के आधार पर गढ़ा है। यह भी उल्लेखनीय है कि ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में द्विवेदी जी ने ‘हर्षचरित’ नामक संस्कृत ग्रंथ को उपजीव्य ग्रंथ बनाया है। वे युगीन समस्याओं को तथा जीवन- मूल्यों पर आये संकट को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से कथानक ग्रहण करते हुए प्रस्तुत करने का उद्देश्य लेकर चले हैं। डॉ. प्रेमप्रकाश भट्ट ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की इतिहास दृष्टि पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- “इतिहास उनके उपन्यासों की पार्श्वभूमि बनकर उपयोग में आया है। बीच के तथ्य, घटना-प्रसंग, तत्कालीन जीवन की भास्वर छवियों के चित्र तथा विशद व्योरों को अंकित करने में उनकी इतिहास दृष्टि स्खलित नहीं हुई है।”
द्विवेदी जी ने बाणभट्ट के चरित्र पर लगे हुए लांछन को दूर करने तथा नारी सम्मान की रक्षा का उद्देश्य दृष्टिगत रखकर इस उपन्यास की रचना की है। सम्भवतः ‘नारी सम्मान की रक्षा’ का भाव ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के मूल में स्थित है। उस युग में नारी की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। जब एक प्रतापी सम्राट तुवरमिलिंद की पुत्री ‘भट्टिनी’ का अपहरण कर उसे बेच दिया जाता है तो भला साधारण नारी पर क्या बीतती होगी, इसका कुछ-कुछ अनुमान किया जा सकता है। बाणभट्ट, निपुणिका एवं कुमार कृष्णवर्द्धन के प्रयासों से भले ही भट्टिनी के सम्मान की रक्षा कर ली गई, तथापि सामंती व्यवस्था में और पुरुष-प्रधान समाज में नारी इसी प्रकार उत्पीड़न का शिकार होती रही है और होती रहेगी, जब तक इस व्यवस्था को नहीं बदला जाता। द्विवेदी जी मानते हैं कि यह पुरुष प्रधान सामंती व्यवस्था का सबसे बड़ा अभिशाप है कि वे नारी को मात्र ‘भोग्या’ या उपभोग की वस्तु समझते हैं। बाणभट्ट के माध्यम से उपन्यासकार अपनी चिन्ता को ही अभिव्यक्ति दे रहा है- “क्या संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तु इसी प्रकार अपमानित होती रहेगी……?” इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास भी इस उपन्यास में किया गया है। उनका स्पष्ट मत है कि जब तक राज्य सत्ता रहेगी, सैन्य-संगठन रहेंगे, पौरुष दर्प की प्रचुरता रहेगी, तब तक नारी को इसी प्रकार पद-दलित करके अपमानित किया जाता रहेगा।
इस उपन्यास का एक अत्यन्त सशक्त पात्र महामाया है। महामाया स्त्री को ‘प्रकृति’ मानती है, जिसकी सार्थकता ‘पुरुष’ को बांधने में है। पुरुष को पूर्णता पाने के लिए ‘स्त्री’ की आवश्यकता निरन्तर अनुभव करनी पड़ती है। जो स्त्री-शक्ति की उपेक्षा करता है, वह पूर्णता से दूर रहता है। लेखक के अनुसार- “इतिहाम साक्षी है कि इस महिमामयी शक्ति की उपेक्षा करने वाले साम्राज्य नष्ट हो गए है, मठ विध्वस्त हो गए और ज्ञान एवं वैराग्य के जंजाल फेन-बुदबुद हो गए।”
आचार्य द्विवेदी की अवधारणा है कि नारी पिंडमात्र न होकर तत्व है। मांसपिण्ड को नारी समझना भूल है। नारी ‘परम शिव’ का निषेधात्मक तत्त्व है, वह भोग के लिए नहीं, अपितु आनन्द लुटाने के लिए संसार में आती है। महामाया कहती कि नारी में अपने आपको उत्सर्ग करने की, अपने आपको खपा देने की क्षमता है। वह दलित द्राक्षा की तरह खुद को नष्ट करके दूसरे को सुख पहुँचाने की भावना रखती है। कथानायिका भट्टिनी एवं निपुणिका दोनों ही इसी कोटि के नारी-चरित्र हैं।
बाणभट्ट ने उपन्यास में कई स्थानों पर यह कहा है कि- “नारी शरीर देवमंदिर की भाँति पवित्र है।” ऐसा कहकर वह नारी को गरिमा प्रदान करता है, उसे पवित्र बनाता है एवं पूज्य मानता है। उसे इतिहास भी इसी सत्य की पुष्टि करता हुआ प्रतीत होता है। उसे इस बात से अत्यधिक वेदना होती है कि सृष्टि की बहुमूल्य वस्तु नारी का अपमान राजाओं के अंतःपुर में भी हो रहा है और राजमार्ग पर भी वह अपमानित हो रही है। एक और उल्लेखनीय प्रश्न इसमें उठाया गया है। जब नारी का बलात् अपहरण हो जाता है तो उसे अपवित्र एवं कलंकित मान लिया जाता है, जबकि इसमें उसका अपना कोई दोष नहीं होता। भट्टिनी की इसी अवस्था की ओर इंगित करते हुए बाणभट्ट उसे निर्दोष मानते हुए कहता है- “स्यारों के स्पर्श से सिंह किशोरी कलुषित नहीं होती और चरित्रहीनों के बीच वास करने से सरस्वती कलंकित नहीं होती।”
निपुणिका (निउनिया) रंगशाला में बाणभट्ट के साथ अभिनय करती थी. लेकिन अब वह ऐसे स्थल पर रहकर पान बेचती है, जहाँ नारी केवल खरीदने और बेचने की वस्तु है। बाणभट्ट मानता है कि इस स्थिति में भी निपुणिका पवित्र है, वह लोगों की आलोचना से रंचमात्र भी सहमत नहीं होता। उस कीचड़ में निपुणिका को छोड़कर जाने के लिए वह तत्पर नहीं है।
‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में द्विवेदी जी ‘प्रेम’ और ‘नारी’ दोनों के प्रति उदात्त भाव रखते हैं। इस उपन्यास में ‘अदृप्त प्रेम’ का चित्रण किया गया है। यह प्रेम वासनाजनित न होकर संयत, अनुशासित, उदात्त एवं पवित्र है। निपुणिका और भट्टिनी दोनों ही ‘बाणभट्ट’ से प्रेम करती हैं, किन्तु दोनों का ही प्रेम अदृप्त है तथा उसमें वासना की गंध लेशमात्र भी नहीं है। इसी प्रकार अघोर भैरव और महामाया का प्रेम भावात्मक नहीं है, वरन् साधनात्मक है। इसमें भाव की तुलना में तप, त्याग और साधना को महत्त्व दिया गया है। विरतिवज्र और सुचरिता के जिस प्रेम का चित्रण बाणभट्ट की आत्मकथा में है, वह साधनात्मक एवं भावात्मक दोनों कोटियों का है।
इस उपन्यास के माध्यम से द्विवेदी जी ने जनसाधारण को यह संदेश दिया है कि सुधारों का कार्य केवल राजा पर नहीं छोड़ना चाहिए, बल्कि स्वयं अपनी शक्ति से उन सुधारो का क्रियान्वयन करना चाहिए। राष्ट्र को सर्वोपरि समझकर सभी वर्ग के लोगों को राष्ट्रीय संकट के समय परस्पर एकजुट होकर राष्ट्र-सेवा में त्याग एवं बलिदान के लिए तत्पर रहना चाहिए।