गोदान : कृषक जीवन की त्रासदी

‘गोदान’ कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द द्वारा लिखा गया वह औपन्यासिक कृति है, जिसे कृषक जीवन का महाकाव्य कहा गया है। इस उपन्यास की रचना 1935 ई. में की गई थी। गोदान से पूर्व प्रेमचन्द ‘प्रेमाश्रम’ की रचना कर चुके थे, जिसमें जमींदारों द्वारा किसानों के शोषण का उल्लेख था। ‘प्रेमाश्रम’ को गोदान की पूर्वपीठिका कहा जा सकता है। प्रेमचन्द के लेखन का सरोकार ग्रामीण जीवन विशेषकर कृषक वर्ग से था। वे उनकी पीड़ा, शोषण, कठिनाइयों से भली-भाँति परिचित थे और चाहते थे कि जमींदारी-प्रथा समाप्त हो जो किसानों के शोषण के लिए बहुत कुछ उत्तरदायी थी। अपने एक आलेख में प्रेमचन्द ने लिखा है-“क्या यह शर्म की बात नहीं है कि जिस देश में नब्बे फीसदी आबादी किसानों की हो, उस देश में कोई किसान सभा, कोई खेती का विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो।”

गोदान में प्रेमचंद ने ‘होरी’ के रूप में जिस चरित्र की परिकल्पना की है, वह अपने ‘वर्ग’ का प्रतिनिधित्व करता है, अर्थात् एक सामान्य किसान के समस्त गुण-दोष होरी में अंतर्निहित हैं। देश के सभी किसानों की हालत कमोवेश होरी जैसी ही है। अवध क्षेत्र के ‘बेलारी’ गाँव का निवासी ‘होरी’ पांच बीघे जमीन का मालिक एक सामान्य कृषक है और पूरे गाँव का ‘नरम चारा’ है। जमींदार, पटवारी, सूदखोर महाजन, पुलिस, बिरादरी वाले तथा धर्म के ठेकेदार सब उसका शोषण करते हैं और अन्ततः शोषण का शिकार होरी किसान से मजदूर बनने को विवश हो जाता है। गोदान की कथा का प्रमुख केन्द्र होरी और उसका शोषण ही है, इसलिए अधिकांश आलोचक गोदान को कृषक जीवन का महाकाव्य मानते हैं। डॉ. सुरेश सिन्हा के अनुसार, “गोदान कृषक जीवन का महाकाव्य है। इसकी मूल समस्या ग्रामीण जीवन की आर्थिक एवं सामाजिक समस्या है, जिसका यथार्थ चित्रण इस उपन्यास में किया गया है।”

प्रेमचंद के द्वारा गोदान में किसानों के शोषण की जो व्यथा-कथा प्रस्तुत की गई है, वह कहीं भी अतिरंजित नहीं लगती। न तो उनका किसान अवास्तविक है और न ही उसका परिवेश। गोदान की यही विशेषता उसे ‘यथार्थ’ के निकट लाती है। गाँव का भौगोलिक परिवेश, खेत-खलिहान, रीति-रिवाज, पात्र एवं चरित्रांकन सभी दृष्टियों से प्रेमचंद ने यथार्थ पर दृष्टि केन्द्रित की है। इसलिए डॉ. महेन्द्र चतुर्वेदी ने प्रेमचंद को ऐसा प्रथम भारतीय उपन्यासकार माना है, जिसने विस्तृत फलक पर भारतीय किसान का ईमानदारी से चित्रण किया है।

गोदान की रचना कृषक जीवन से जुड़ी समस्याओं का चित्रण करने के लिए की गई है। यह कैसी विडम्बना है कि जो किसान अपने खेतों में सारे देश के लिए अन्न उपजाता है,वह स्वयं भूखा है! किसानों की इस बदहाली का चित्रण प्रेमचंद ने गोदान में कुछ इस तरह किया है-“बैसाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। पाँच पेट खाने वाले और घर में अनाज नदारद। दो जून न मिले, एक जून तो मिलना ही चाहिए। भरपेट न मिले, आधा पेट तो मिले। निराहार कोई कै दिन रह सकता है। उधार ले तो किससे? गाँव के सभी छोटे-बड़े महाजनों से तो मुँह चुराना पड़ता था।”

यह भी विडम्बना ही है कि अपने शोषकों के बारे में होरी जैसा किसान अच्छी तरह जानता है, फिर भी रूढ़ियों और संस्कारों से बंधा हुआ होने के कारण वह उनके प्रति क्रोधाभिभूत नहीं हो पाता और इस शोषण के लिए वह अपने भाग्य को दोषी मानता है। अपने पुत्र गोबर को समझता हुआ वह कहता है, “छोटे-बड़े भगवान के घर से बनकर आते हैं। सम्पत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्व जन्म में जैसे कर्म किए हैं उनका आनन्द भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा तो भोगें क्या?” किन्तु गोबर उसकी बात से सहमत नहीं है। वह प्रगतिशील चेतना से युक्त नई पीढ़ी का युवक है और इस बात को जानता है कि “भगवान तो सबको बराबर बनाते हैं। यहाँ जिसके हाथ में लाठी है, वह गरीबों को कुचलकर बड़ा आदमी बन जाता है।”

किसानों के शोषण का एक बहुत बड़ा कारण है उनकी रूढ़िवादिता और संगठन का अभाव। वे एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हैं और इसलिए बैल की तरह जमींदारों के हल में जुते रहते हैं। होरी के पास के पुरवा में रहने वाला ग्वाला भोला इस विषय में होरी से कहता है, “कौन कहता है कि हम तुम आदमी हैं? हममें आदमियत कहाँ? आदमी वह है, जिसके पास धन है, अख्तियार है, इल्म है। हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उस पर एक-दूसरे को देख नहीं सकते। एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई जाफा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ गया।”

डॉ. रामबिलास शर्मा की मान्यता है कि गोदान की मुख्य समस्या ‘ऋण’ या ‘कर्ज’ है। पूरे देश का किसान महाजनी सभ्यता में जकड़ा हुआ है, जिसे गोदान में एक प्रहसन के माध्यम से अभिव्यक्ति दी गई है। किसान महाजन से यदि दस रुपए कर्ज लेता है तो उसके हाथ में सिर्फ पांच रुपए ही आते हैं। शेष पांच रुपए महाजन सूद, नजराना, आदि के नाम पर पहले ही काट लेता है। साहूकार के सूद की दर भी आना रुपया अर्थात् पचहत्तर प्रतिशत वार्षिक है। इस मंहगी दर पर भी किसान कर्ज लेने को विवश है। कभी खाद के लिए, तो कभी बीज के लिए, कभी बैल के लिए तो कभी लगान चुकाने के लिए, कभी ब्याह-शादी के लिए तो कभी सामाजिक दण्ड की भरपाई के लिए। होरी आहत मन से कहता है, “कितना चाहता हूँ कि किसी से एक पैसा कर्ज न लूं, लेकिन हर तरह का कष्ट उठाने पर भी गला नहीं छूटता।” प्रेमचंद ने गोदान में सत्य ही तो कहा है कि, “कर्ज वह मेहमान है जो एक बार आकर फिर जाने का नाम नहीं लेता।”

किसान को अपनी ‘मरजाद’ (मर्यादा, इज्जत) की चिन्ता बहुत रहती है। इसका मोह वह त्याग नहीं पाता। भले ही किसानी से कुछ न मिलता हो, किन्तु इससे ‘मरजाद’ तो रहती है। मजूरी में वह ‘मरजाद’ नहीं है, इसलिए होरी से खेती नहीं छोड़ी जाती। होरी को ‘बिरादरी’ की चिन्ता भी है। वह बिरादरी से बाहर नहीं रह सकता। प्रेमचंद के शब्दों में, “बिरादरी से पृथक जीवन की वह कल्पना ही नहीं कर सकता था। शादी-ब्याह, मुण्डन-छेदन, जन्म-मरण सब कुछ बिरादरी के हाथ में है। बिरादरी उसके जीवन में वृक्ष की भाँति जड़ जमाए हुए थी और उसकी नसें उसके रोम-रोम में बिंधी हुई थीं। बिरादरी से निकलकर उसका जीवन विश्रृंखल हो जाएगा, तार-तार हो जाएगा।”

‘बिरादरी’ का यह मोह पुराने रूढ़िवादी मूल्यों की जकड़ है, जिसमें ‘होरी’ फंसा हुआ है। इसने उसे इतना भयभीत कर रखा है कि निरपराध होने पर भी ‘झुनिया’ को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकारने पर वह बिरादरी द्वारा दिए गए दण्ड को स्वीकार कर लेता है। “बिरादरी का यह आतंक था कि अपने सिर पर लादकर अनाज ढो रहा था, मानो अपने हाथों अपनी कब्र खोद रहा हो। जमींदार, साहूकार, सरकार किसका इतना रोब था? कल बाल-बच्चे क्या खाएंगे, इसकी चिन्ता प्राणों को सोख लेती थी, पर बिरादरी का भय पिशाच की भाँति सिर पर अंकुश दिए जा रहा था।”

यह कैसी विडम्बना है कि भारत का किसान अपनी एक छोटी-सी इच्छा को पूरा नहीं कर पाता। होरी के मन में एक गाय की इच्छा थी। यह ‘गाय’ उसका ‘स्टेटस सिम्बल’ है। घर के द्वार पर गाय बंधी होगी तभी तो लड़के के ब्याह वाले आएंगे और लोग पूछेंगे कि यह किसका घर है। गाय से वह अपने मान-सम्मान की वृद्धि करना चाहता है। संयोग से उसे भोला की गाय उधार में मिल भी जाती है, किन्तु उसके भाई हीरा की ईर्ष्या भड़क उठती है और वह गाय को जहर दे देता है। गाय के मर जाने से होरी के जीवन का विषाद और भी गहरा हो जाता है। इस गाय ने उसके जीवन को कई रूपों में प्रभावित किया था। इसके लिए वह कर्जदार बना, झुनिया और गोबर का मेल हुआ, जिससे उसे सामाजिक दण्ड भुगतना पड़ा, भोला उसके बैल खोलकर ले गया और उसे किसान से मजदूर बनना पड़ा। अन्त तक वह ‘गाय’ की अपनी इच्छा पूरी नहीं कर सका और अब जीवन की अन्तिम बेला में उससे ‘गोदान’ की अपेक्षा की जा रही है। धनिया आज मजदूरी में मिले पैसों को होरी के ठण्डे हाथ पर रखकर पण्डित दातादीन को देती हुई कहती है- “महाराज घर में न गाय है न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है।”

उक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद ने गोदान में कृषक जीवन का त्रासद यथार्थ प्रस्तुत किया है। डॉ. शशिभूषण सिंहल के शब्दों में, “प्रेमचंद ने किसानों की सामयिक दशा का चित्रण किया है, किन्तु उनके चित्रों में काल विशेष की समस्या का निरूपण मात्र नहीं है। उस चित्रण में मानव मूल्यों और शाश्वत मानव संवेदना का सर्वत्र दर्शन किया जा सकता है।”

प्रेमचंद साहित्य का उद्देश्य व्यक्ति में संस्कार उत्पन्न करना मानते हैं। वे अपनी चरित्र सृष्टि में भी व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हैं। वे होरी को अतिमानवीय चरित्र के रूप में प्रस्तुत नहीं करते। उसमें भी कई दुर्गुण हैं, यथा- कपास में बिनीले मिला देता है, बंसोर से बांसों का सौदा करते समय चालाकी दिखाकर अपने भाई का हिस्सा हड़पना चाहता है, यद्यपि इसमें स्वयं ही मात खा जाता है। प्रेमचंद ने किसानों की इस प्रवृत्ति का उल्लेख करते हुए गोदान में कहा है, “किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमें संदेह नहीं। उसकी गांठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव-ताव में भी वह चौकस होता है, ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है, जब तक पक्का विश्वास न हो जाए वह किसी के फुसलाने में नहीं आता।” परन्तु वह प्रकृति के सान्निध्य में रहने के कारण परोपकारी होता है, कुत्सित स्वार्थ के लिए उसके हृदय में स्थान नहीं होता।

प्रेमचंद चाहते थे कि किसानों की दशा सुधरे। इसके लिए वे जमींदारी प्रथा को भी दोषी मानते थे। यद्यपि जमींदारी उन्मूलन 1952 ई. के बाद हुआ, तथापि प्रेमचंद ने सन् 1935 में ही इसका आभास कर लिया था। इसलिए जमींदार रायसाहब अमरपाल सिंह कहते हैं, “लक्षण कह रहे हैं कि बहुत जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है। मैं उस दिन का स्वागत करने को तैयार बैठा हूँ। ईश्वर वह दिन जल्द लाए। वह दिन हमारे उद्धार का दिन होगा।”

गोदान में मेहता जी प्रेमचंद के प्रवक्ता के रूप में सामने आए हैं। प्रेमचंद ने अपने विचार के माध्यम से व्यक्त किए हैं। वे रायसाहब की कथनी और करनी में एकरूपता नहीं देखते,अतः रायसाहब से कहते हैं कि,”आप कृषकों के शुभेच्छु हैं, उन्हें तरह-तरह की रियायतें देना चाहते हैं। जमींदारों के अधिकार छीन लेना चाहते हैं, फिर भी आप वैसे ही जमींदार हैं, जैसे हजारों और जमींदार हैं। अगर आपकी धारणा है कि कृषकों के साथ रियायत होनी चाहिए तो पहले आप खुद शुरू करें।”

कृषक जीवन से जुड़ी प्रत्येक समस्या का चित्रण प्रेमचंद ने इस उपन्यास में किया है और होरी के माध्यम से किसानों की व्यथा-कथा प्रस्तुत की है। होरी समूचे देश के अनपढ़, निर्धन, धर्मभीरु, रूढ़िवादी किसानों का प्रतिनिधि पात्र है, जो जमींदार, साहूकार, समाज एवं बिरादरी के चौधरियों द्वारा सताया जा रहा है। भले ही जमींदारी प्रथा समाप्त होने से अब नई पीढ़ी के लिए होरी का शोषण ‘अप्रासंगिक’ हो गया हो, किन्तु प्रेमचंद ने इस उपन्यास में किसान के शोषण का जो चित्र प्रस्तुत किया है, वह कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकता, क्योंकि आज भी ग्रामीण किसान इनमें से कई दंशों को झेल रहा है।

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