इसमें कोई संदेह नहीं कि इस बार भी हम सभी ‘गणतंत्र’ का निहितार्थ समझे बिना बेहद जोश और उत्साह के साथ ‘गणतंत्र दिवस’ समारोहपूर्वक मनाएंगे। राष्ट्रगान गाएंगे। और साथ ही एड़ियाँ उठा- उठाकर ‘भारत माता की जय’ और ‘बंदे मातरम’ के साथ ही ‘महात्मा गाँधी अमर रहे’, ‘सुभाषचंद्र बोस अमर रहे’, ‘जवाहरलाल नेहरू अमर रहे’, ‘भगत सिंह अमर रहे’….आदि नारे लगाएंगे, परंतु बिडम्बना यह है कि देश की अधिसंख्य जनता आजादी के 78 सालों बाद भी देश के गणतंत्र होने का मतलब नहीं समझ पाई है। वह बस इतना समझते हैं कि आजादी के पश्चात 26 जनवरी, 1950 को हमारा संविधान लागू हुआ था और अंग्रेजों की दासता से पूर्णतः मुक्त हो गये…..! उन्हें शायद आज भी यह ज्ञात न हो सका कि स्वाधीनता के नाम पर हम छले गये हैं। हमारे सपनों के साथ खिलवाड़ हुआ है। आजादी का असली स्वाद देश के मुट्ठी भर लोग ले रहें हैं। आम जनता तब भी गुलाम थी और आज भी है। उनके लिए आजादी केवल एक ऐतिहासिक घटना सिद्ध हुई है। यह वही दिन है जब गोरे अंग्रेजों ने काले अंग्रेजों के हाथों सत्ता का हस्तांतरण किया था। देश के करोड़ों आमजन स्वाधीनता के लिए आज भी तरस रहे हैं। और बिना समझे ही वे गणतंत्र दिवस का जश्न मना रहे हैं। यह कैसा ‘गणतंत्र’ है, जिसमें ‘गण’ अर्थात ‘आम आदमी’ सिरे से गायब है! आमजन किसी न किसी रूप में गुलाम ही बने हुए हैं। इस अधूरी और अर्थहीन आजादी पर व्यंग्य करते हुए कवि नरेन्द्र शर्मा लिखते हैं :
“दिल पर हाथ रख के कह दो क्या देश आजाद है?
यह तो मानो मूल के अनुवाद का अनुवाद है…..!”
हम अक्सर लोकतांत्रिक गणराज्य की बात करते हैं, जबकि अभी भी कहीं न कहीं जनता राजतांत्रिक शासन व्यवस्था से मुक्त नहीं हो पाई है। आज भी सत्ता में आम आदमी का प्रवेश लगभग निषिद्ध है। स्वयं को राष्ट्रवादी कहलाने वाले नेतागण स्वयं ही अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी तय कर रहे हैं। उम्मीदवार उन्हीं के बेटे, बेटियाँ, भतीजे, बहुएँ होते हैं। वे सत्ता के योग्य हो या न हो यह उन्हें विरासत में मिल जाती है।ऐसे उत्तराधिकारी को जनता का दर्द क्या मालूम। उनमें से अधिकांश को यह भी पता नहीं कि इस देश की जनसंख्या कितनी है! इस देश में कितनी भाषाएँ बोली जाती हैं। भारतीय समाज का स्वरूप क्या है! इस देश का मूलभूत समस्या क्या है! और इसका समाधान कैसे होगा…..फिर भी ये हैं कि गला फाड़कर राष्ट्रवाद और समाजवाद के नारे लगा रहे हैं। ये स्वयं को गांधी, लोहिया, जयप्रकाश नारायण या अंबेडकर का संतान बताते हैं।
विदित हो कि जनता की नि:स्वार्थ सेवा करते हुए सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने वालों की संख्या लगभग नगण्य हैं। यहाँ हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र में राजतंत्र प्रछन्न रूप से व्याप्त है। एक समय था, जब लोग सेवा भाव से राजनीति में कदम रखते थे। उनका संपूर्ण जीवन राष्ट्र के नाम समर्पित होता था, परंतु आज राजनीति एक कारोबार का रूप धारण कर लिया है। लोग पूंजी लगाकर टिकट खरीदते हैं, जनता का वोट खरीदते हैं और फिर अगले पाँच वर्षों तक अपना सूद- ब्याज बसूलते रहते हैं। अब नेताओं का चयन जनता नहीं करती, यह तय करती हैं कार्पोरेट कंपनियाँ, यह तय करती हैं- बिकाऊ मीडिया… यह तय करते हैं…पैसे…धर्म…. जातियाँ आदि।
दरअसल, सत्ता में पूंजीवाद का घुसपैठ चिंता का विषय है। लोकतंत्र जिसे जनता का, जनता के द्वारा जनता पर किया गया शासन कहा जाता था। पूरी तरह पूँजीपतियों के हाथ की कठपुतली बन गयी है। अब पैसों के बल पर कोई भी राजनीति में मुंह उठाए आ जाते हैं। यही कारण राजनीति अपराध से मुक्ति का राजमार्ग बन गया है। जो जितना बड़ा अपराधी है, वह सत्ता के उतने के ऊंचे पायदान पर विराजमान हैं। और जो जितनी ऊँची कुर्सी पर है, वह उतना ही भयानक अपराधी है! हत्या और बलात्कार के अनगिनत मामले उनके नाम पर दर्ज हैं। अपराध और राजनीतिक का नाभिनाल संबंध स्थापित हो चुका है। इसे हम राजनीति का अपराधीकरण कह लें या अपराध का राजनीतिकरण, सब चलेगा।
आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारत गणतांत्रिक राज्य बनने में अक्षम रहा है। इस देश की आम जनता को इस काबिल नहीं बनाया जा सका कि वे एक धोती, एक साड़ी, पाँच किलो अनाज या पाँच सौ रूपये के लिए अपना कीमती वोट न बेचे….! जिस देश में आज भी अधिकतर जनता भूख से बदहाल हैं, जिस देश में आज भी अधिकतर लोग अशिक्षित हैं, जिस देश में आज भी बेरोजगारी का संकट है, जिस देश में आज भी आर्थिक स्तर पर इतनी बड़ी खाई है, उस देश में स्वस्थ लोकतंत्र की स्थापना क्योंकर हो सकती है!
हम गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर पूछते हैं कि आजादी के इतने वर्षों बाद जाति-भेद को मिटाने के लिए, साम्प्रदायिक टकराव के खात्मे के लिए, स्त्री- जाति के सम्मान के लिए, सामाजिक समरसता के लिए, आर्थिक साम्यवाद की स्थापना के लिए किसानों की दशा सुधारने के लिए क्या किया गया……!
यह कैसा गणतांत्रिक देश है, जहाँ विदेशी भाषा में आजादी का अमृत-महोत्सव मनाया जा रहा है। हिन्दी बोलने वालों की उपेक्षा हो रही है। चारों तरफ प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ आ गयी है, जहाँ अंग्रेजी भाषा में रट्टू तोते तैयार किये जा रहे हैं। अंग्रेजों के चले जाने के वर्षों बाद भी क्यों हम भाषा के स्तर पर मुक्त नहीं हो पाए! क्यों भारत की बहुल आबादी की भाषा हिन्दी दोयम दर्जे पर है! आखिरकार विदेशी भाषा में ‘स्किल इंडिया’ का स्वप्न कैसे साकार हो सकता है…..!
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लेखक, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक एवं अध्यक्ष हैं।