राजभाषा हिन्दी की संघर्ष- यात्रा

उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने सत्य ही कहा है- ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी….!’ यह कुछ बात है- ‘भारत की सामासिक संस्कृति’, ‘अनेकता में एकता’ और ‘विरुद्धों का सामंजस्य…!’ वास्तव में भारत की समृद्ध संस्कृति सामासिक है! यह अनेक जातियों, वर्गों, धर्मों, संप्रदायों, लिंगों, नस्लों की परस्पर टकराहट और सम्मिलन से निर्मित हुई है। यही गुण यहाँ की भाषा में भी अंतर्निहित है। भारत की राष्ट्रभाषा ‘हिन्दी’ भी एक सामासिक शब्द है, जो किसी खास भाषा का नाम नहीं, बल्कि अनेक छोटी- बड़ी भाषाओं और बोलियों का समुच्चय है। हमें सदैव ध्यान रखना चाहिए कि हिन्दी केवल खड़ीबोली का पर्याय नहीं है। यह मूलत: अट्ठारह बोलियों का समुच्चय है। अपनी सामासिकता और प्रभावशीलता के कारण ही इसे देववाणी संस्कृत की अत्तराधिकारिणी कही जाती है।

हिन्दी सदियों से भारत की राष्ट्रीय अस्मिता तथा जनजीवन की अभिव्यक्तियों का मूलाधार रही है। ‘हिन्दी भारतीय संस्कृतियों के संरक्षण के साथ-साथ मानव के आध्यात्मिक, भौतिक, बौद्धिक तथा सामाजिक चिंतन का पर्याय बनकर मन मस्तिष्क को नव- सृजन के लिए उत्प्रेरित करती रही है।'(1) हिन्दी चिरकाल से ही साधुओं, संतों, दरवेशों, फकीरों, पर्यटकों तथा आमजन के मध्य वैचारिक अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम रही है। यह हमारी हिन्दी की प्रभविष्णुता, उदारता एवं अतुलनीय सामर्थ्य का चरम उत्कर्ष ही है कि विपुल शब्द- संपदा के साथ असीमित साहित्य एवं विश्व के अनगिनत शब्दों को आत्मसात कर उसने अपनी वैश्विक उदारता का परिचय दिया है, साथ ही हिन्दी अपनी वैज्ञानिकता के लिए संपूर्ण भाषाओं में अपना सर्वोपरि स्थान रखती है। हिन्दी का आश्रय लेकर संतों- महात्माओं, फकीरों ने जहाँ अपने अभीष्ट को प्राप्त किया, वहीं बौद्धिक, धार्मिक, आध्यात्मिक तथा धर्मोपदेशकों ने हिन्दी के माध्यम से अपने विचारों की संजीवनी से टूट चुके मनों को उर्वरता से प्राणवान किया और संबंधित क्षेत्रों में नवीन चेतना का संचार किया।

अपने सामर्थ्य के कारण ही हिन्दी भारत की राजभाषा बन पायी है। यूँ तो ‘भारत की प्रत्येक महत्वपूर्ण भाषा अपने -अपने समय में राजकाज की भाषा के रूप में प्रयुक्त हुई है।अपने समय में संस्कृत,पालि, प्राकृत, अपभ्रंश राजभाषा रही है।'(2) ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि ग्यारहवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी के दौरान राजस्थान में हिन्दी मिश्रित संस्कृत का प्रयोग होता था। मुसलमानों के शासनकाल में मुह‌म्मद गोरी से लेकर अकबर के समय तक हिन्दी राजकाज की भाषा थी। अकबर के गृहमंत्री टोडरमल के आदेश से सरकारी कागज़ात फारसी भाषा में लिखे जाने लगे। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक फारसीदान मुंशी के प्रयास से तीन सौ सालों तक शासन- प्रशासन की भाषा फारसी रही। फिर लार्ड मैकाले ने आकर अंग्रेजी को प्रतिष्ठित किया। और तब से उच्च स्तरों पर अंग्रेजी और निम्न स्तर पर देशी भाषाएँ प्रयोग में लायी जाने लगीं।

हम देखते हैं कि अदालतों में आज भी फारसीनिष्ठ हिन्दी का प्रयोग किया जाता है। ‘तमाम गवाह और सबूत के मद्देनजर अदालत इस नतीजे पर पहुँचती है कि…..!’ जैसी भाषा को इसकी बानगी के रूप में देखा जा सकता है। अंग्रेजी की तो बात ही न करें। इसके बिना तो अदालत एक मिनट भी नहीं चल सकता!

सर्वविदित है कि स्वाधीन चेतना के विकास के समानांतर ‘स्व-भाषा’ के प्रति भारतीयों में जागरूकता आई। राजा राममोहन राय, महर्षि दयानंद सरस्वती, केशवचन्द्र सेन, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, महामना मदन मोहन मालवीय, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, पुरुषोत्तम दास टंडन, रवीन्द्र नाथ टैगोर, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रताप नारायण मिश्र, बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ बालकृष्ण भट्ट समेत उनके तद्युगीन महापुरुषों और साहित्यकारों ने महसूस किया कि हमारे देश की राजकाज की भाषा एक होनी चाहिए और वह भाषा हिन्दी ही हो सकती है। हिन्दी भारत की सभी आर्यभाषाओं की उत्तराधिकारिणी है। यह भारत के लगभग 45% प्रतिशत जनता की मातृभाषा है। हिन्दी प्रदेश से बाहर भी यह अधिकांश भारतीयों की दूसरी या तीसरी भाषा है। अपनी सरलता और सहजता के कारण यह भारत की सामान्य जनता की संपर्क भाषा है। यह रोजी- रोजगार की भाषा है। यह बाजार और व्यापार की भाषा है। यह सभ्यता और संस्कार की भाषा है।

स्वतंत्रता – प्राप्ति के पश्चात् राजसत्ता जनता के हाथ में आई। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह अनिवार्य हो गया कि देश का राज-काज, लोकभाषा में हो। अतएव, राजभाषा के रूप में हिन्दी को एकमत से स्वीकार किया गया। 14 सितम्बर, 1949 ई० को भारत के संविधान में हिन्दी राजभाषा के रूप में मान्यता दी गई। तब से ही राजकार्यों में इसके प्रयोग का विकासक्रम शुरू होता है।

‘भारतीय संविधान की धारा-120 के अनुसार, ‘संसद का कार्य हिन्दी’ में या अंग्रेजी में किया जा सकता है। परंतु विशेष परिस्थिति में लोकसभा का अध्यक्ष अथवा राज्यसभा का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृ‌भाषा में सदन को संबोधित करने की स्वीकृति दे सकता है।'(3)

‘धारा-210 के अंतर्गत राज्यों के विधान मंडलों का कार्य अपने-अपने राज्य की राजभाषा में या हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है, परंतु विधानसभा का अध्यक्ष या विधान परिषद् का सभापति किसी भी सदस्य को उसकी भातृ‌भाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है।'(4)

विदित हो कि भारतीय संविधान के 17 वें भाग के धारा-343 से 351 तक राजभाषा- संबंधी प्रावधान किये गये हैं। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण है- धारा-343, इसके खंड- ‘क’ में कहा गया है कि ‘संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी और अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।’

खंड-‘ख’ में कहा गया है कि ‘शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग 15 वर्षों की अवधि तक किया जाता रहेगा। इसी धारा के खंड-‘ग’ में कहा गया है कि अगर आवश्यकता हुई तो ‘संसद उक्त 15 वर्ष की अवधि के पश्चात् ‌भी विधि द्वारा हिन्दी के साथ सहभाषा के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग जारी सकेगी।'(5)

धारा- 344 के अनुसार, राष्ट्रपति एक आयोग गठित करेगा, जो निश्चित की जाने वाली एक प्रक्रिया के अनुसार राष्ट्रपति को सिफारिश करेगा कि किन शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी का प्रयोग अधिकारिक किया जा सकता है तथा अंग्रेजी भाषा के प्रयोग पर क्या निर्बंध हो सकते हैं। न्यायालयों में प्रयुक्त होने वाली किस भाषा का क्या स्वरूप चलता रहे, किन प्रयोजनों के लिए अंकों का रूप क्या हो और संघ की राजभाषा अथवा संघ और किसी राज्य के बीच की भाषा अथवा एक राज्य और दूसरे राज्यों के बीच पत्र- व्यवहार की भाषा क्या हों? इस निमित्त आयोग संविधान के प्रारंभ से दस वर्ष की समाप्ति पर गठित किया जाएगा। यह प्रावधान भी किया गया कि वे आयोग भारत की औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति का और लोक सेवाओं के संबंध में अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के न्याय संगत दावों और हितों का पूरा-पूरा ध्यान रखेंगे। आयोग की सिफारिशों पर संसद की एक समिति अपनी राय राष्ट्रपति को देगी। इसके पश्चात राष्ट्रपति उस संपूर्ण रिपोर्ट के या उसके किसी भाग के अनुसार निर्देश जारी कर सकेगा।

धारा- 345 के अनुसार ‘किसी राज्य का विधान- मंडल, विधि द्वारा, उस राज्य में प्रयुक्त होने वाली या किन्हीं अन्य भाषाओं को या हिन्दी को शासकीय प्रयोजनों के लिए स्वीकार कर सकेगा। यदि किसी राज्य का विधानमंडल ऐसा नहीं कर पाएगा तो अंग्रेजी भाषा का प्रयोग यथावत् जारी रहेगा।

धारा- 346 के अनुसार, संघ द्वारा प्राधिकृत भाषा ‘एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच’ में तथा किसी राज्य और संघ की सरकार के बीच पत्र आदि की राजभाषा होगी। यदि कोई राज्य परस्पर हिन्दी भाषा को स्वीकार करेंगे तो उस भाषा का प्रयोग किया जा सकेगा।

धारा- 347 के अनुसार, यदि किसी राज्य की जनसंख्या का पर्याप्त भाग यह चाहता हो कि उसके द्वारा बोली जाने वाली भाषा को उस राज्य में (दूसरी राजभाषा के रूप में) मान्यता दी जाय और इस निमित्त से माँग की जाय, तो राष्ट्रपति यह निर्देश दे सकेगा कि ऐसी भाषा को भी उस राज्य में सर्वत्र या उसके किसी भाग में ऐसे प्रयोजन के लिए जो वह विनिर्दिष्ट करे, शासकीय मान्यता दी जाय।

धारा- 348 के अनुसार, जब तक संसद विधि द्वारा उपबन्ध न करे, तब तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सब तरह की कार्यवाही अंग्रेज़ी भाषा में होगी। संसद् के प्रत्येक सदन या राज्य के विधानमण्डल के किसी सदन में विधेयकों, अधिनियमों, प्रस्तावों, आदेशों, नियमों, विनियमों और उपविधियों एवं राष्ट्रपति अथवा किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा जारी अध्यादेशों के प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में होंगे। किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उस उच्च न्यायालय की कार्रवाई के लिए हिन्दी भाषा या उस राज्य में मान्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा, परन्तु उस उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय, डिक्री या आदेश पर इस खण्ड की कोई बात लागू नहीं होगी। यह प्रावधान भी किया गया है कि इस खण्ड की किन्हीं बातों के लिए यदि अंग्रेजी से भिन्न किसी भाषा को प्राधिकृत किया गया हो तो अंग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद प्राधिकृत पाठ समझा जायेगा।

धारा-349 के अनुसार, राजभाषा से सम्बन्धित संसद् यदि कोई विधेयक या संशोधन पुनः स्थापित या प्रस्तावित करना चाहे तो राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी लेनी पड़ेगी और राष्ट्रपति आयोग की सिफ़ारिशों पर और उन सिफ़ारिशों की गठित रिपोर्ट पर विचार करने के पश्चात् ही अपनी मंजूरी देगा, अन्यथा नहीं।

धारा-350 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति किसी शिकायत को दूर करने के लिए संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को, यथास्थिति संघ में या राज्य में प्रयोग होने वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का हकदार होगा। अल्पसंख्यक बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में दिये जाने की पर्याप्त सुविधा सुनिश्चित की जायेगी। भाषायी अल्पसंख्यक वर्गों के लिए राष्ट्रपति एक विशेष अधिकारी को नियुक्त करेगा जो उन वर्गों के सभी विषयों से सम्बन्धित रक्षा के उपाय करेगा और अपना रिपोर्ट समय-समय पर राज्यपाल और राष्ट्रपति को देगा जिस पर संसद् विचार करेगी।

धारा-351 के अन्तर्गत यह निर्देश दिया गया कि संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाये और उसका विकास करे, ताकि वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्त्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किये बिना हिन्दुस्तानी के और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो, वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।'(6)

ज्ञात हो कि उपर्युक्त तमाम धाराओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है धारा- 343, यहाँ विचारणीय है कि धारा-343 के खंड- ‘क’ तथा खंड – ‘ख’ में कहीं हुई बातें हमें गौरवान्वित करती हैं, परंतु खंड-‘ग’ में किया गया प्रावधान कि ’15 वर्षों के बाद भी हिन्दी के साथ अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखा जा सकता है, बेहद खतरनाक सिद्ध हुआ। दरअसल, अंग्रेजी के प्रयोग को बरकरार रखने के लिए ही राजभाषा अधिनियम-1963 और 1967 लाया गया।

अधिनियम-1963 में कहा गया कि संविधान लागू होने के 15 वर्षों के बाद भी हिन्दी के साथ अंग्रेजी का प्रयोग सह‌भाषा के रूप में चलता रहेगा। जब अंग्रेजी परस्तों को इतने से भी संतोष न हुआ तो राजभाषा अधिनियम- 1967 ले आया, जिसमें स्पष्ट कहा गया कि जब तक देश का कोई एक भी राज्य हिन्दी का विरोध करेगा, तब तक हिन्दी को संघ की राजभाषा नहीं बनाया जा सकता। हम सहज रूप से समझ सकते हैं कि राजभाषा अधिनियम-1967 ने राजभाषा हिन्दी की तमाम संभावनाओं को मटियामेट कर डाला। चूँकि हमारे देश कि अहिन्दी भाषी राज्य (अरुणाचल प्रदेश, केरल आदि) कभी भी हिन्दी का पक्षधर नहीं हो सकता। इस तरह तत्कालीन राजनेताओं को स्वार्थपरकता और कमजोर इच्छाशक्ति के कारण हिन्दी आजतक संपूर्ण देश की राजभाषा नहीं बन सकी।

विश्व इतिहास पर एक दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि ‘जब सन् 1815 ई. में जर्मनी स्वतंत्र हुआ था तो विस्मार्क ने आदेश दिया था कि एक वर्ष के भीतर सभी राजकर्मचारी अपना-अपना कार्य जर्मन भाषा में करने लगेंगे, जो नहीं करेंगे, उन्हें नौकरी से हमेशा के लिए बर्खास्त कर दिया जाएगा। परिणामत: एक वर्ष में ही जर्मन वहाँ की राजभाषा बन गई। 1917 ई. में रूस की क्रांति हुई, तब पहला काम यही किया गया कि जर्मन भाषा का प्रयोग हटाकर रूसी भाषा को प्रतिष्ठित कर दिया गया। इजराइल की हिब्रू भाषा दो हजार वर्ष से न बोलचाल की भाषा रह गई थी, न शिक्षा की, न शासन की। जब इजराइल स्वतंत्र राष्ट्र बना तो यहू‌दियों ने अपनी मृतप्राय भाषा को पुनर्जीवित किया और देखते-देखते वह वहाँ की राजभाषा और राष्ट्र‌भाषा बन गई। शिक्षा-विज्ञान, विधि-विधान सब का माध्यम बनकर प्रतिष्ठित हो गई’,(7)किन्तु हमारी भाषा हिन्दी कोई मृतप्राय न नहीं थी। स्वाधीनता से पूर्व यह कई देशी रियासतों में शिक्षा- दीक्षा का माध्यम थी। इसमें प्रचुर साहित्य था। फिर भी 15 वर्षों के लिए इसे क्यों टाल दिया गया। निश्चय ही यह राजभाषा हिन्दी के प्रति एक षड्‌‌यंत्र था।

दरअसल, लाई मैकाले के भारतीय उत्तराधिकारी जो शरीर से भारतीय और आत्मा से अंग्रेज थे, ने यह भ्रम फैलाया कि ‘अंग्रेजी संसार की सबसे बड़ी भाषा है, अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, अंग्रेजी विश्वज्ञान की खिड़की है, अंग्रेजी पढ़कर ही हममें राष्ट्रीयता और स्वाधीनता की भावना जगी है। देशी भाषाओं को अपनाने से भारत की अखंडता भंग हो जाएगी। अतः अंग्रेजी भारत की एकमात्र राष्ट्रीय भाषा है। अंग्रेजी की सहायता के बिना भारतीय भाषाओं का विकास संभव नहीं है, अंग्रेजी समृद्ध और श्रेष्ठभाषा है…आदि- आदि।

हमें समझना होगा कि उपर्युक्त सभी दलीलें बेबुनियाद हैं। अंग्रेजी संसार की सबसे बड़ी भाषा नहीं है। संसार की सबसे बड़ी भाषा ‘मंदारिन’ है। संसार की कुल आबादी का लगभग नौ प्रतिशत अंग्रेजी भाषी है। नौ प्रतिशत लोगों की भाषा अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा भी नहीं कहला सकती। यह विश्वज्ञान की खिड़की उसके लिए हो सकती है, जो एकमात्र अंग्रेजी ही जानते हैं। रूसी, जर्मन, फ्रेंच, इटैलिक, संस्कृत आदि अनेक खिड़कियाँ हैं, जिनसे ज्ञान का प्रकाश आ सकता है। अंग्रेजी केवल अन्य भाषाओं में उत्पादित ज्ञान का उल्था प्रस्तुत करती है। कहना न होगा कि भाषा ज्ञान की जननी नहीं है। ज्ञान मानव की अंत:प्रज्ञा से उत्पन्न होती है। भाषा उसकी अभिव्यक्ति और प्रसार का साधनमात्र है। जापान और रूस ही नहीं, संसार के सारे देश अपनी-अपनी भाषा के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में आगे बढ़े हैं।

हम स्पष्ट शब्दों में कह सकते हैं कि हमारी सांस्कृतिक परंपराओं की रक्षा कबीर, तुलसी, सूर, और जायसी की भाषा से होगी। अंग्रेजी के प्रचार- प्रचार से ज्ञान का नवोन्मेष संभव नहीं है। भारतीय अंग्रेजी को केवल रट सकते हैं और रटंत भाषा में नवीन ज्ञान का उत्पादन संभव नहीं हो सकता। लेकिन क्या करें अंग्रेजी नर्सों के हाथों पले हुए भारतीयों का एक दल दीर्घकाल से इस देश स्वाभाविक प्रगति में रोड़ा बना हुआ है। इसी दल के नेताओं ने राजभाषा अधिनियम-1963 और 1967 द्वारा अंग्रेजी को सदा-सदा के लिए भी भारत की राजभाषा बना दिया है। भारत को छोड़कर संसार के सभी स्वाधीन राष्ट्र की अपनी- अपनी राजभाषा है। और आज आजादी के 77 साल बाद भी हम भारतीय अंग्रेजी की दासता से मुक्त न हो सके हैं। यह विडंबना ही है कि हमारा स्वाधीन और सर्वशक्तिसंपन्न राष्ट्र विदेशी भाषा में अपनी आजादी का अमृत-महोत्सव मना रहा है।

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संदर्भ ग्रंथ- सूची :

(1) हिन्दी भाषा : स्वरूप, शिक्षण और वैश्विकता- संपादन : डाॅ. कमल किशोर गोयनका, डाॅ. महावीर शरन जैन, प्रो. अवनिजेश अवस्थी, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत सरकार, दिल्ली, पहला संस्करण- 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 99

(2) हिन्दी भाषा- डाॅ. हरदेव बाहरी, अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद, 2010 ई., पृष्ठ संख्या- 138

(3) वही, पृष्ठ संख्या- 138

(4) वही, पृष्ठ संख्या- 139

(5) वही, पृष्ठ संख्या- 139

(6) वही, पृष्ठ संख्या- 140

(7) गगनांचल- संपादक : अशोक चक्रधर, वर्ष-38, अंक-4-5, जुलाई- अक्टूबर, 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 71

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लेखक, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक और अध्यक्ष हैं।

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