हिन्दी, अंग्रेजी और बंगला के गंभीर अध्येता, कवि और गजलकार श्री शिवशंकर सिंह के गजल-संग्रह ‘अंतर्नाद’ को पढ़कर आश्वस्ति हुई कि दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी, निदा फाजली आदि की प्रगतिशील धारा अवरुद्ध नहीं हुई है। ‘अंतर्नाद’ में केवल परंपरा की पुनरावृत्ति नहीं है, नवोन्मेष की प्रस्तावना भी है। अंतर्नाद परंपरा और वैयक्तिक प्रज्ञा की संयुक्त अभिव्यक्ति है। इस संग्रह की सबसे बड़ी खासियत है- ‘अंतर्वस्तु का वैविध्य’। इसमें जीवन के संयोग-वियोग के साथ ही भारतीय स्वाधीनता के बाद उत्पन्न मोहभंग की स्थिति, बेवसी, निरुपायता, राजनीतिक छल-छद्म, अपराध की राजनीतिकरण, राजनीति का अपराधीकरण, साम्प्रदायिक द्वेष आदि मानवीय संकटों की मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है।
गजलकार श्री शिवशंकर सिंह जी के पास विस्तृत जीवनानुभव है, जिन्हें वे इन गजलों में शब्दबद्ध करते हैं। यूँ तो ‘ग़ज़ल’ उर्दू की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। उर्दू को यह विधा फारसी से प्राप्त हुई, लेकिन इसे सुगंध मिली हिन्दुस्तानी मिट्टी से। जीवन के गहन राग और विराग से गजल की उत्पत्ति हुई है। ‘गजल’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘प्रेमिका से वार्तालाप’। इसी से समझा जा सकता है कि गजल की मूल चेतना और संवेदना क्या है तथा इसकी लोकप्रियता का राज क्या है? प्रेमिका से बातचीत के रूप में व्याख्यायित होने के कारण गजल का प्रधान विषय ‘प्रेम’ ही माना गया। इसमें ‘इश्क’ और ‘हुस्न’ को ही नाना रूपों में चित्रित करने की ऐसी परंपरा चली कि दीर्घकाल तक गजल केवल महबूब और महबूबा की बफाई और बेवफाई, हसीन खयालों, मधु-तिक्त दास्तानों और विचारों से ही समृद्ध होती रही है। लैला -मजनूं और शीरी- फरहाद के इश्क के किस्से, गुल-वो- बुलबुल की रंगीन कहानी, शमा और परवाना का रहस्यमय प्रेम, प्रेमिका की सौन्दर्य- प्रभा, उसका जुल्मो-सितम, बेवफाई का शिकवा, आशिक की सच्चाई की प्रशंसा और प्रेमिका के नख- शिख सौन्दर्य वर्णन ही इसकी अंतर्वस्तु रही है। तथापि शिवशंकर सिंह जी इस परंपरा का निर्वहन करते हुए गजल को राज और समाज के चिंतन का विषय बनाते हैं।
शिवशंकर सिंह जी हिन्दी के कोई पेशेवर गजलकार नहीं हैं। गजल उनकी रोजी- रोटी का साधन नहीं है। गजल उनकी आत्मा की सहज अनुभूति है। जब कोई भाव उनके भीतर बैचैनी पैदा करती है, तब शब्द सहज ही छलक पड़ते हैं और इस प्रकार उनके गजलें निर्मित हो जाती हैं। विलियम वर्ड्सवर्थ ने इसी को ‘प्रबल मनोभावों का सहज उच्छलन’ कहा है।
गोस्वामी तुलसी की कविता की भाँति शिवशंकर सिंह की गजलों का प्रयोजन ‘स्वांत: सुखाय’ ही है। यह अलग बात है कि उनका ‘स्वांत:’ तुलसी की भाँति ही इतना विराट है कि उनमें मानवमात्र की चेतना संघटित हो जाती है और उनका स्वांत: ‘सर्वान्त: में परिवर्तित हो जाता है। उनकी वैयक्तिक अनुभूति साधारणीकृत होकर सबकी अनुभूति बन जाती है।
शिवशंकर सिंह जी की गजलों में ‘इश्क मजाजी’ भी है और ‘इश्क हकीकी’ भी। इश्क मजाजी वहाँ मिलती है, जहाँ वे अपने वैयक्तिक प्रेम और वियोग को प्राणवान बनाते हैं। वे प्रेम को अव्याख्येय मानते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि प्रेम की कोई परिभाषा नहीं हो सकती :
“जैसे हंसने और रोने की भाषा नहीं होती,
बस वैसे ही प्रेम प्यार की परिभाषा नहीं होती।”
गजलकार प्रेम के मामले में कबीरवादी हैं। उनका कहना है कि प्रेम के बिना इस संसार में है ही क्या? प्रेम ही इस सृष्टि का लय है। वे कबीर के ही तर्ज पर कहते हैं :
“ढाई आखर का शब्द यदि प्रेम को हटा दो,
क्या बचेगा शेष फिर ब्रह्मांड की कहानी में।”
कवि शिवशंकर सिंह के भीतर निश्चय ही वियोग की सघन अनुभूति है। यह वियोग निश्चय ही उनके दाम्पत्य के विछोह की सच्ची अभिव्यक्ति है। कवि के भीतर प्रेम और वियोग की गहन अनुभूति हो यह कोई नयी बात नहीं है। आदिकवि बाल्मीकि के भीतर से जो कविता प्रस्फुटित हुई थी, उसका स्रोत भी सघन वियोग ही था। उनके बारे में कवि सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है :
“वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान।
उमड़कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।।”
इसी को रीतिकालीन कवि घनानंद अपनी भाषा में अकबर को समझाते हैं :
“इश्क को दिल में जगह दे अकबर,अक्ल से शायरी नहीं आती।”
इतना ही नहीं विश्वकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी अपने भीतर किसी वियोगिनी स्त्री को अनुभूत किया था और कहा था :
“आमार माझारे एक विरहिणी नारी अछे।”
(अर्थात् – मेरे भीतर कोई वियोगिनी स्त्री बसती है!)
शिवशंकर सिंह जी के गजलों में भी वियोग की सहज अभिव्यक्ति हुई है :
“वो दर्द उठा कि रात भर न सोये हैं,
अश्रु बूँदों को अपने गीतों में पिरोये हैं।”
यह सामान्य- सी बात है कि हर व्यक्ति के मन में प्रेम करने अथवा प्रेममय होने की हसरत रहती है। यही हसरत गजलकार शिवशंकर जी की गजलों में भी दृष्टिगत होती है। उनके गजलों में प्रेमपूर्ण जीवन की मिठास, कोमलता, समर्पणशीलता, तन्मयता, आदि के साथ-साथ विरह की तड़प, बेचैनी, उदासी, निराशा, हताशा, निष्ठुरता, उपेक्षा, प्रतीक्षा, गिला-शिकवा आदि को इतने मार्मिक ढंग से और इतनी विविधता के साथ चित्रित किया गया है कि उसमें हर व्यक्ति को अपनी जिंदगी का सुख- दुःख पर्याप्त यथार्थता के साथ मिल जाता है।
शिवशंकर सिंह जी की कुछ गजलें ऐसी भी हैं, जिसमें लौकिक प्रेम के साथ ही अलौकिक प्रेम की व्यंजना हुई है। यहाँ कवि ‘इश्क मजाजी’ से ‘इश्क हकीकी’ की ओर मुखातिब हो जाते हैं। बानगी के लिए एक शेर देखिये :
“मुड़कर जरा-सा फेर देते एक नजर मेरी तरफ,
तो इस तरह मेरी जिंदगी तमाशा नहीं होती।”
इसी शेर में अगर प्रथम पंक्ति में ‘देते’ के स्थान पर ‘देती’ शब्द का प्रयोग होता तो यह लौकिक प्रेम की व्यंजना हो जाती। गजलकार ने एक शब्द भी नहीं, बल्कि एक मात्रा के हेर -फेर से इसे अलौकिक बना दिया है।
गजल की भाववादी संसार के साथ ही शिवशंकर जी की गजलों में युगवादी चेतना कूट-कूट कर भरी हुई है। उनमें देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं वैयक्तिक समस्याओं को यथार्थ शैली में प्रस्तुत किया गया है। कहना न होगा कि उनकी गजलें भारतीय समाज के व्यापक और बहुपक्षीय यथार्थ से जुड़ गई हैं।
गजलकार ने मौजूदा समय की सबसे गंभीर समस्या पर विचार किया है। इस समय हमारा देश साम्प्रदायिक संकटों से जूझ रहा है। धर्म के नाम पर लोग मरने -कटने को तैयार हैं। शिवशंकर जी कहते हैं- खुदा या ईश्वर तक तो ठीक था। सबसे बड़ी ट्रैजिडी है आदमी का हिन्दू या मुसलमान हो जाना। शेर देखिए :
“तुम खुदा थे या कि ईश्वर फिर भी ठीक था,
ट्रैजिक है तेरा हिन्दू या मुसलमान हो जाना।”
हम सभी जानते हैं कि हमारा देश सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दौर से गुजर रहा है। भारतीय होने का मतलब है हिन्दू होना। इस तरह साम्प्रदायिक द्वेष का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। ऐसे विकट दौर में शिवशंकर सिंह जी अपनी गजलों के सहारे हिन्दू और मुसलमान के बीच प्रेम और भाईचारा स्थापित करना चाहते हैं। वे बताते हैं कि प्यार का चेहरा कैसा होता है :
“कैसे बताऊँ कि कैसा है प्यार का चेहरा,
न हिन्दू की तरह है न मुसलमान की तरह।”
वे मानते हैं कि सत्य के मार्ग पर चलना आसान नहीं है। सत्य की रक्षा के लिए अक्सर कुर्बानी देनी पड़ती है। ईशा मसीह, सुकरात और मंसूर से लेकर महात्मा गांधी तक को सत्य के लिए कुर्बानी देनी पड़ी। गजल का एक शे’र देखिये :
“इंसानियत की राहों का निशान हो जाना,
सत्य की राही का तय है कुर्बान हो जाना।”
शिवशंकर जी की गजलों में मानव की अदम्य जिजीविषा के साथ ही गहन अस्तित्वबोध की अभिव्यक्ति हुई है। वे ईश्वर से बेखौफ होकर जीवन का आनंद भोगने पर जोर देते हैं :
“अक्षत रोली ही काफी है देवियों-देवों के लिए,
आदमी के लिए जरूरी है मिट्टी में नमी होना।”
इसी तरह का एक और शेर देखिए :
“जिंदगी गीत है उसे गीत की तरह गाओ,
वरना क्या रखा है सासों की आनी-जानी में।”
गजलकार अपने देशकाल और वातावरण के प्रति अत्यंत सजग दिखते हैं। वर्तमान समय में जो लोकतंत्र का विकृत चेहरा हमारे सामने है। राजनीति में जो अपराध का घुसपैठ हो गया है। या यूँ कहें कि राजनीति का अपराधीकरण हो गया है और अपराध का राजनीतिकरण हो गया है। यह लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी है। गजलकार उससे बेहद आहत हैं। वे लिखते हैं :
“जिनकी आरती उतारी जा रही है,
बड़े नेता हैं छूटे हैं कैदखाने से।”
गजलकार भारत के गौरवमयी अतीत का स्मरण करते हुए प्रश्न करते हैं कि आखिरकार ऋषि मुनियों के देश को यह क्या हो गया है? लोकतंत्र की मातृभूमि कहलाने वाले इस देश में राजनीतिक स्तर पर कितनी गिरावट आई है। लोकतंत्र बस भीड़तंत्र बनकर रह गया है। मर्माहत होकर रचनाकार केवल नेता पर ही तंज नहीं कसते, वे इस देश की मूर्ख जनता पर भी व्यंग्यवाण छोड़ते हैं :
“ऋषि मुनियों के देश को यह क्या हो गया,
लुटेरों की बादशाहत है जनता जय-जय करती है।”
वे मानते हैं कि ये सदियों की दासता की परिणति है कि हमें अक्सर भ्रष्ट नेता भी अपना पैगम्बर प्रतीत होने लगता है। शे’र देखिए :
“सदियों की दासता का ये असर लगता है,
कि भ्रष्ट नेता भी हमें पैगम्बर लगता है।”
हमारी मजबूरी है कि हम किसे चुने? हमारे सामने जो विकल्प होते हैं, वे सबके सब भ्रष्ट और घोटालेबाज होते हैं। फिर हम उसमें से उसे चुनते हैं जो अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट हो। ठीक उसी प्रकार जैसे हम सड़े आमों में से अपने लिए कम सड़े आम चुनते हैं। शे’र है :
“उनके लाखों घोटाले को सबने देखा होते हुए,
कुछ नहीं लेकिन तहकीकात में मिले।”
आखिरकार हमें कैसी आजादी मिली है? क्या सच में हमारा देश आजाद हो गया है? या केवल सत्ता का हस्तांतरण हुआ है। तब यहाँ की आम जनता पर गोरे अंग्रेजों का शासन था और अब यही के शिक्षित और पूँजीपति वर्ग उनपर शासन करते हैं उनका शोषण करते हैं। ऐसे में आजादी केवल एक राजनीतिक घटना सिद्ध हुई है। हम अपने समाज के पढ़े-लिखे लोगों पर भरोसा करते हैं, पर वह भी भ्रष्टाचारियों की जमात में शामिल हो जाते हैं। शे’र देखिए :
“पढ़े- लिखे बड़े हुए और हो गये हाकिम,
फिर तो लुटेरों की वे जमात में मिले।”
प्रस्तुत ग्रंथ का ‘अंतर्नाद’ रखा गया, जो अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है, क्योंकि इस संग्रह की अधिकांश गजलें गजलकार की आत्मानुभूति तथा अंतर्वेदना की अभिव्यक्ति है। यह ग्रंथ के दो खंडों में विभाजित है। प्रथम खंड में पचास गजलें हैं और दूसरे खंड में दो सौ छप्पन शे’र संग्रहित हैं। ग्रंथ का उत्तर खंड वस्तुत: उसके पूर्व खंड का ही प्रसार है।
‘अंतर्नाद’ की सभी गजलें और शे’र अत्यंत मार्मिक और प्रभावोत्पादक हैं। इन गजलों में एक आत्मसजग व्यक्ति की जीवन-साधना संचित हैं। इस साधना में इतनी सच्चाई है कि इनमें अखिल विश्व की चेतना अंतर्भूत हो गई है। कवि की स्वानुभूति सर्वानुभूति में परिवर्तित हो गई है। इनके शब्दों की तीक्ष्णता सहृदय के मर्म को वेधता है। इसलिए हम गजलकार शिवशंकर सिंह की प्रज्ञा को बार-बार प्रणाम करते हैं। और अंत में यही कहते हैं :
“न जिश्मों पर कोई जख्म न खंजर में कोई दाग,
तुम कत्ल करते हो या करामात करते हो…….।”
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सम्प्रति – सहायक आचार्य एवं अध्यक्ष,
हिन्दी विभाग
श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय,
सीतामढ़ी (बिहार)
संपर्क : 6201464897