मां पर नहीं बन पाती है कोई कविता

संसार का हर भाव समा जाता है मेरे शब्दों में

नदी, नाले, पेड़, पहाड़…धरती का फैलाव……..

समुद्र की अनंत गहराई……

प्रकृति की हर विराटता अट जाती है शब्दों में।

मैं किसी भी अनुभूति में भर देता हूँ रंग,

चाहे वह अपनी हो या परायी,

पर मौन हो जाते हैं मेरे शब्द

जब ‘माँ’ पर सोचने लगता हूँ

शब्द जैसे चूने लगते हैं मन से

भावों की धारा में बह जाता है शब्द इधर-उधर

और मैं उदास……..बार-बार उसे समेटने की कोशिश करता हूँ,

पर शब्दों से नहीं बना पाता हूँ ‘माँ’

मेरी हर कोशिश नाकाम हो जाती है

‘माँ’ पर नहीं बन पाती है कोई कविता

और ‘माँ’ है कि हर बार मेरी अशक्तता पर मुसकुरा देती है……..!

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