राजभाषा हिन्दी : दशा और दिशा

उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने सत्य ही कहा है- ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी….!’ यह कुछ बात है ‘भारत की सामासिक संस्कृति’, ‘अनेकता में एकता’ और ‘विरुद्धों का सामंजस्य…!’ वास्तव में भारत की संस्कृति सामासिक है! यह अनेक जातियों, वर्गों, धर्मों, संप्रदायों, लिंगों, नस्लों की परस्पर टकराहट और सम्मिलन से निर्मित हुई है। यही गुण यहाँ की भाषा में भी अंतर्निहित है। भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी भी एक सामासिक शब्द है, जो किसी खास भाषा का नाम नहीं, बल्कि अनेक छोटी- बड़ी भाषाओं का समुच्चय है। हमें सदैव ध्यान रखना चाहिए कि हिन्दी केवल खड़ीबोली का पर्याय नहीं है। यह मूलत: अट्ठारह बोलियों का समुच्चय है। अपनी सामासिकता और प्रभावशीलता के कारण ही इसे देववाणी संस्कृत की अत्तराधिकारिणी कही जाती है।

अपने सामर्थ्य के कारण ही हिन्दी भारत की राजभाषा बन पायी है। यूँ तो भारत की प्रत्येक महत्वपूर्ण भाषा अपने -अपने समय में राजकाज की भाषा के रूप में प्रयुक्त हुई है।अपने समय में संस्कृत,पालि, प्राकृत, अपभ्रंश राजभाषा रही है। ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि ग्यारहवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी के दौरान राजस्थान में हिन्दी मिश्रित संस्कृत का प्रयोग होता था। मुसलमानों के शासनकाल में मुह‌म्मद गोरी से लेकर अकबर के समय तक हिन्दी राजकाज की भाषा थी। अकबर के गृहमंत्री टोडरमल के आदेश से सरकारी कागज़ात फारसी भाषा में लिखे जाने लगे। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक फारसीदान मुंशी के प्रयास से तीन सौ सालों तक शासन- प्रशासन की भाषा फारसी रही। फिर लार्ड मैकाले ने आकर अंग्रेजी को प्रतिष्ठित किया। और तब से उच्च स्तरों पर अंग्रेजी और निम्न स्तर पर देशी भाषाएँ प्रयोग में लायी जाने लगीं।

हम देखते हैं कि अदालतों में आज भी फारसीनिष्ठ हिन्दी का प्रयोग किया जाता है। ‘तमाम गवाह और सबूत के मद्देनजर अदालत इस नतीजे पर पहुँचती है कि…..!’ जैसी भाषा को इसकी बानगी के रूप में देखा जा सकता है। अंग्रेजी की तो बात ही न करें। इसके बिना तो अदालत एक मिनट भी नहीं चल सकता!

सर्वविदित है कि स्वाधीन चेतना के विकास के समानांतर ‘स्व-भाषा’ के प्रति भारतीयों में जागरूकता आई। राजा राम मोहन राय, महर्षि दयानंद सरस्वती, केशवचन्द्र सेन, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, महामना मदन मोहन मालवीय, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, पुरुषोत्तम दास टंडन और भारतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रताप नारायण मिश्र, बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ बालकृष्ण भट्ट समेत उनके तद्युगीन महापुरुषों और साहित्यकारों ने महसूस किया कि हमारे देश की राजकाज की भाषा एक होनी चाहिए और वह भाषा हिन्दी ही हो सकती है। हिन्दी भारत की सभी आर्यभाषाओं की उत्तराधिकारिणी है। यह भारत के लगभग 45% प्रतिशत जनता की मातृभाषा है। हिन्दी प्रदेश से बाहर भी यह अधिकांश भारतीयों की दूसरी या तीसरी भाषा है। अपनी सरलता और सहजता के कारण यह भारत की सामान्य जनता की संपर्क भाषा है। यह रोजी- रोजगार की भाषा है। यह बाजार और व्यापार की भाषा है।

स्वतंत्रता – प्राप्ति के पश्चात् राजसत्ता जनता के हाथ में आई। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह अनिवार्य हो गया कि देश का राज-काज, लोकभाषा में हो। अतएव, राजभाषा के रूप में हिन्दी को एकमत से स्वीकार किया गया। 14 सितम्बर, 1949 ई० को भारत के संविधान में हिन्दी को मान्यता दी गई। तब से ही राजकार्यों में इसके प्रयोग का विकासक्रम आरंभ होता है। भारतीय संविधान की धारा-120 के अनुसार संसद का कार्य हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है। परंतु विशेष परिस्थिति में लोकसभा का अध्यक्ष अथवा राज्यसभा का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृ‌भाषा में सदन को संबोधित करने की स्वीकृति दे सकता है।

धारा-210 के अंतर्गत राज्यों के विधान मंडलों का कार्य अपने-अपने राज्य की राजभाषा में या हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है, परंतु विधानसभा का अध्यक्ष या विधान परिषद् का सभापति किसी भी सदस्य को उसकी भातृ‌भाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है।

विदित हो कि भारतीय संविधान के 17 वें भाग के धारा-343 से 351 तक राजभाषा- संबंधी प्रावधान किये गये हैं। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण है- धारा-343, इसके खंड- ‘क’ में कहा गया है कि ‘संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी और अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।’

खंड-‘ख’ में कहा गया है कि ‘शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग 15 वर्षों की अवधि तक किया जाएमा जाता रहेगा।’

इसी धारा के खंड-‘ग’ में कहा गया है कि अगर आवश्यकता हुई तो ‘संसद उक्त 15 वर्ष की अवधि के पश्चात् ‌भी विधि द्वारा हिन्दी के साथ सहभाषा के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग जारी सकेगी।”

यहाँ विचारणीय है कि धारा-343 के खंड- ‘क’ तथा खंड – ‘ख’ में कहीं हुई बातें हमें गौरवान्वित करती हैं, परंतु खंड-‘ग’ में किया गया प्रावधान कि ’15 वर्षों के बाद भी हिन्दी के साथ अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखा जा सकता है’ बेहद खतरनाक सिद्ध हुआ। दरअसल अंग्रेजी के प्रयोग को बरकरार रखने के लिए ही राजभाषा अधिनियम-1963 और 1967 लाया गया। अधिनियम-1963 में कहा गया कि संविधान लागू होने के 15 वर्षों के बाद भी हिन्दी के साथ अंग्रेजी का प्रयोग सह‌भाषा के रूप में चलता रहेगा। जब अंग्रेजी परस्तों को इतने से भी संतोष न हुआ तो राजभाषा अधिनियम- 1967 ले आया, जिसमें स्पष्ट कहा गया कि जब तक देश का कोई एक भी राज्य हिन्दी का विरोध करेगा, तब तक हिन्दी को संघ की राजभाषा नहीं बनाया जा सकता। हम सहज रूप से समझ सकते हैं कि राजभाषा अधिनियम-1967 ने राजभाषा हिन्दी की तमाम संभावनाओं को मटियामेट कर डाला। चूँकि हमारे देश कि अहिन्दी भाषी राज्य (अरुणाचल प्रदेश, केरल आदि) कभी भी हिन्दी का पक्षधर नहीं हो सकता। इस तरह तत्कालीन राजनेताओं को स्वार्थपरकता और कमजोर इच्छाशक्ति के कारण हिन्दी आजतक संपूर्ण देश की राजभाषा नहीं बन सकी।

विश्व इतिहास पर एक दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि जब सन् 1815 ई. में जर्मनी स्वतंत्र हुआ था तो विस्मार्क ने आदेश दिया था कि एक वर्ष के भीतर सभी राजकर्मचारी अपना-अपना कार्य जर्मन भाषा में करने लगेंगे, जो नहीं करेंगे, उन्हें नौकरी से हमेशा के लिए बर्खास्त कर दिया जाएगा। परिणामत: एक वर्ष में ही जर्मन वहाँ की राजभाषा बन गई। 1917 ई. में रूस की क्रांति हुई, तब पहला काम यही किया गया कि जर्मन भाषा का प्रयोग हटाकर रूसी भाषा को प्रतिष्ठित कर दिया गया। इजराइल की हिब्रू भाषा दो हजार वर्ष से न बोलचाल की भाषा रह गई थी, न शिक्षा की, न शासन की। जब इजराइल स्वतंत्र राष्ट्र बना तो यहू‌दियों ने अपनी मृतप्राय भाषा को पुनर्जीवित किया और देखते-देखते वह वहाँ की राजभाषा और राष्ट्र‌भाषा बन गई। शिक्षा-विज्ञान, विधि-विधान सब का माध्यम बनकर प्रतिष्ठित हो गई, किन्तु हमारी भाषा हिन्दी कोई मृतप्राय न नहीं थी। स्वाधीनता से पूर्व यह कई देशी रियासतों में शिक्षा- दीक्षा का माध्यम थी। इसमें प्रचुर साहित्य था। फिर भी 15 वर्षों के लिए इसे क्यों टाल दिया गया। निश्चय ही यह राजभाषा हिन्दी के प्रति एक षड्‌‌यंत्र था।

दरअसल, लाई मैकाले के भारतीय उत्तराधिकारी जो शरीर से भारतीय और आत्मा से अंग्रेज थे, ने यह भ्रम फैलाया कि ‘अंग्रेजी संसार की सबसे बड़ी भाषा है, अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, अंग्रेजी विश्वज्ञान की खिड़की है, अंग्रेजी पढ़कर ही हममें राष्ट्रीयता और स्वाधीनता की भावना जगी है। देशी भाषाओं को अपनाने से भारत की अखंडता भंग हो जाएगी। अतः अंग्रेजी भारत की एकमात्र राष्ट्रीय भाषा है। अंग्रेजी की सहायता के बिना भारतीय भाषाओं का विकास संभव नहीं है, अंग्रेजी समृद्ध और श्रेष्ठभाषा है…आदि- आदि।

हमें समझना होगा कि उपर्युक्त सभी दलीलें बेबुनियाद हैं। अंग्रेजी संसार की सबसे बड़ी भाषा नहीं है। संसार की सबसे बड़ी भाषा ‘मंदारिन’ है। संसार की कुल आबादी का लगभग नौ प्रतिशत अंग्रेजी भाषी है। नौ प्रतिशत लोगों की भाषा अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा भी नहीं कहला सकती। यह विश्वज्ञान की खिड़की उसके लिए हो सकती है, जो एकमात्र अंग्रेजी ही जानते हैं। रूसी, जर्मन, फ्रेंच, इटैलिक, संस्कृत आदि अनेक खिड़कियाँ हैं, जिनसे ज्ञान का प्रकाश आ सकता है। अंग्रेजी केवल अन्य भाषाओं में उत्पादित ज्ञान का उल्था प्रस्तुत करती है। कहना न होगा कि भाषा ज्ञान की जननी नहीं है। ज्ञान मानव की अंत:प्रज्ञा से उत्पन्न होती है। भाषा उसकी अभिव्यक्ति और प्रसार का साधनमात्र है। जापान और रूस ही नहीं, संसार के सारे देश अपनी-अपनी भाषा के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में आगे बढ़े हैं। हम स्पष्ट शब्दों में कह सकते हैं कि हमारी सांस्कृतिक परंपराओं की रक्षा कबीर, तुलसी, सूर, और जायसी की भाषा से होगी। अंग्रेजी के प्रचार- प्रचार से ज्ञान का नवोन्मेष संभव नहीं है। भारतीय अंग्रेजी को केवल रट सकते हैं और रटंत भाषा में नवीन ज्ञान का उत्पादन संभव नहीं हो सकता। लेकिन क्या करें अंग्रेजी नर्सों के हाथों पले हुए भारतीयों का एक दल दीर्घकाल से इस देश स्वाभाविक प्रगति में रोड़ा बना हुआ है। इसी दल के नेताओं ने राजभाषा अधिनियम-1963 और 1967 द्वारा अंग्रेजी को सदा-सदा के लिए भी भारत की राजभाषा बना दिया है। भारत को छोड़कर संसार के सभी स्वाधीन राष्ट्र की अपनी- अपनी राजभाषा है। और आज आजादी के 77 साल बाद भी हम भारतीय अंग्रेजी की दासता से मुक्त न हो सके हैं। यह विडंबना ही है कि हमारा स्वाधीन और सर्वशक्तिसंपन्न राष्ट्र विदेशी भाषा में अपनी आजादी का अमृत-महोत्सव मना रहा है।

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लेखक, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक और अध्यक्ष हैं।

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