गांधी का समाजवाद

आधुनिक भारत के निर्माण में महात्मा गाँधी के दर्शन तथा उनके समाजवादी विचारों की महत्ता सर्वोपरि है। महात्मा गाँधी ने किसी मौलिक दर्शन का प्रवर्तन नहीं किया, बल्कि उन्होंने भारतीय धर्म तथा संस्कृति के उत्तमांशों को एकत्रित कर, उसे प्रयोगात्मक स्तर पर जीवन में उतारने का सफल प्रयत्न किया है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य तो पहले से ही सभी धर्मों के मूल में स्थित था। जिन्हें गाँधीवादी जीवन- दर्शन के रूप में देखा जाता है। गाँधीजी बखूबी जानते थे कि समाज में विभेद या विषमता का मूल कारण है- धार्मिक कट्टरता तथा आर्थिक साधनों-संसाधनों  का अनुचित वितरण। इतिहास साक्षी है कि हमारे देश में अधिकांश दंगे या हिंसाएँ धार्मिक कट्टरता के कारण हुई हैं। इसे मिटाने के लिए गाँधी जी ने ‘सर्वधर्म समभाव’ का विचार दिया। वे मानते थे कि अलग-अलग धर्म केवल परमात्मा तक पहुँचने का अलग-अलग मार्ग है। मंजिल सभी का एक ही है। अतएव, धर्म के नाम पर लड़ना, झगड़ना या रक्तपात करना मूर्खता है। साथ ही वे आर्थिक संसाधनों पर सबका बराबर का अधिकार चाहते थे। वे संपत्ति को वैयक्तिक मानने के बजाय सामाजिक मानते थे।              

गाँधी जी प्रगतिशील समाजवाद के संपोषक थे। वे व्यक्ति -केन्द्रित सत्ता तथा निजी संपत्ति के विरोधी थे। जिस समाजवाद को बाद में डाॅ. लोहिया तथा लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैलाया। उसके केन्द्र में स्थित है- गाँधीवादी समाजवाद। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया’ जैसे उदात्त विचार को गाँधी जी ने समाजवाद का आधार बनाया।स्त्री-पुरुष की समानता, हिन्दू -मुस्लिम समानता तथा दलित- वर्ग के सम्मान पर उन्होंने विशेष बल दिया। वे सामाजिक समरसता की स्थापना के लिए जीवन भर लड़ते रहे।यही कारण है कि वे हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे। धार्मिक होकर भी कट्टरवादी नहीं थे। नेता होकर भी सत्तालोलुप नहीं थे। भारतीय होकर भी केवल भारत के नहीं थे। पूरी दुनिया को ही वे अपना मानते थे। गाँधीजी को ‘विश्व मानवतावाद’ का परिकल्पक माना जाता है, लेकिन उस अर्थ में नहीं, जिस अर्थ में आज ‘विश्वग्राम’ या ‘ग्लोबल विलेज’ की बात की जाती है।           

वे किसी भी प्रकार की मानवीय विषमता के खिलाफ थे। धर्म, अर्थ, कर्म, लिंग, संप्रदाय, भाषा, क्षेत्र, वर्ण तथा वर्ग के आधार पर जो मानव आपस में बँटे थे, गाँधी जी ने उसे एकीकृत किया। वे प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक ईकाई के रूप में देखते थे। उनकी दृष्टि समाज के सबसे अंतिम पंक्ति में खड़े लोगों पर थी। वे चाहते थे कि संपन्न तथा विपन्न लोगों के बीच खाई कम से कम हो। उन्होंने ‘सर्वोदय’ अर्थात् ‘सबका उदय’ अथवा ‘सबका विकास’ जैसे उत्कृष्ट विचार से समाज के सभी वर्गों के विकास पर जोर डाला। साथ ही उन्होंने देश के औद्योगिकीकरण के बजाय छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों के विकास पर भी बल दिया।          

गाँधी जी भारतीय गाँव को हरेक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। इसीलिए वे कृषि आधारित अर्थ- व्यवस्था का समर्थन किया। गाँव को प्रत्येक नजरिये से स्वायत्त एवं आत्मनिर्भर बनाने के लिए ग्राम्य स्तर पर ही पंचायती राज की स्थापना का सुझाव दिया। उनका मानना था कि ‘भारत गाँवों का देश है। भारत गाँव में बसती है। शहर में इन्सान रहते हैं, लेकिन गाँव में भगवान।’ वे चाहते थे कि हर हाथ के पास काम हो। सभी आत्मनिर्भर होकर अपना जीवनयापन करे, तभी सपनों के भारत का निर्माण होगा।            गाँधी जी के समाजवाद में निहित है – ‘स्व’ की अवधारणा। इसी ‘स्व’ का विस्तार है- स्वराज्य, स्वाधीनता, स्वायत्तता, स्वभाषा, स्वदेश, स्वरोजगार…आदि। गाँधी जी ने जिस आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना की, उसकी प्रासंगिकता आज भी बरकरार है। आज जब देश और दुनिया गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आतंकवाद, हिंसावाद, संप्रदायवाद तथा बाजारवाद के मकड़जाल में उलझ गया है, तो उससे मुक्ति का एकमात्र मार्ग दिख रहा है- गाँधीवाद तथा गाँधी प्रवर्तित- समाजवाद।*******************************************

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