साहित्य और समाजशास्त्र

यह सर्वविदित है कि साहित्य और समाज का गहरा अंतर्संबंध है। प्रत्येक समाज का अपना साहित्य है और प्रत्येक साहित्य का अपना समाज। इसीलिए आज साहित्य का समाजशास्त्र एक विधा के रूप में विकसित हो रहा है। साहित्य के सृजनात्मक वैयक्तिकता पर सामाजिकता हावी है। यह सत्य ही है कि साहित्य जितना वैयक्तिक है, उससे अधिक सामाजिक। चूँकि किसी भी साहित्यकार पर उसके सामाजिक परिवेश का प्रभाव अनिवार्य रूप से पड़ता है। ऐसे में बिना समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के हम किसी भी साहित्य अथवा साहित्यकार का सम्यक् मूल्यांकन नहीं कर सकते। समाजशास्त्र अनिवार्य रूप से समाज में स्थित मनुष्य का वैज्ञानिक अध्ययन करता है, उसकी सामाजिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं का गहन अध्ययन करता है। वह इस प्रश्न का उत्तर खोजता है कि समाज का अस्तित्व कैसे संभव है? उसकी कार्य पद्धति,राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक संस्थाएँ कौन -सी हैं, जो आपस में मिलकर समाज का निर्माण करती हैं! वे कौन-सी प्रक्रियाएँ हैं, जिनसे समाज में परिवर्तन आता है? वह इन परिवर्तनों से सामाजिक संरचना पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करता है। साहित्य का मुख्य सरोकार मनुष्य से होता है। मनुष्य का सामाजिक जगत के प्रति उसकी अनुकूलता तथा उसे बदलने की आकांक्षा अथवा परिवर्तन की चेतना का संचार साहित्य का मुख्य ध्येय है। साहित्य में मानव-जाति का परिवार, राजनीति तथा शासन-प्रशासन के साथ संबंध एवं सामाजिक जगत के सृजन का ईमानदार प्रयास दिखाई देता है। साहित्य एक हद तक उन्हीं समस्याओं से रू-ब-रू होता है, जिनसे समाजशास्त्र। यह अलग सवाल है कि साहित्य के माध्यम से समाजशास्त्र का निर्माण करने वाले बौद्धिक साहित्य को केवल एक सामाजिक साक्ष्य मानते हैं। ‘साहित्य का समाजशास्त्र’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम आग्युस्त कोंत (1798-1857 ई.) ने किया। कोंत ने प्रत्यक्षवाद को मानव -चिंतन का अंतिम आधार माना। उनके अनुसार-“संसार की समस्त वस्तुएँ एवं घटनाएँ अपरिवर्तनीय प्राकृतिक नियमों द्वारा नियंत्रित एवं निर्देशित होती है।” साहित्य के समाजशास्त्र को ठोस वैचारिक आधार देनेवाले चिंतकों में कला तथा साहित्य के दार्शनिक इतिहासकार और समालोचक ईमालीत अडोल्फ तेन (1828-1893 ई.) का नाम प्रमुख है। ‘अंग्रेजी साहित्य का इतिहास’ उनका महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें उन्होंने हमेशा मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी के रूप में देखा और समाज को समूहों या वर्गों का समुच्चय माना। साहित्य की समाजशास्त्रीय चिंतनधारा में तेन ही आदि विचारक हैं, जिन्होंने लेखक के महत्व की पहचान व्यक्ति और सर्जक दोनों रूपों में की। उनके संपूर्ण साहित्य -चिंतन का लक्ष्य मनुष्य को संपूर्णता के साथ जानना और समझना है। वह मनुष्य जो लेखक और कृति में व्यक्त मनुष्य भी है। ‘भारतीय साहित्य का समाजशास्त्र’ (1950 ई.) नामक पुस्तक में डी.पी. मुखर्जी ने बंगला, हिन्दी, उर्दू के आधुनिक साहित्य का ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उनकी स्थापना है कि ‘संपूर्ण भारतीय साहित्य के समाजशास्त्र के लिए उसे व्यापक तथा समग्र रूप से देखा जाना चाहिए। डाॅ. मैनेजर पांडेय ने भी समाज से साहित्य के संबंध की वस्तुपरक व्याख्या करने का प्रयास किया और इस समस्या के समाधान की प्रक्रिया में उन्होंने साहित्य के समाजशास्त्र से संबंधित अवधारणाएँ दीं। उनके अनुसार साहित्य के समाजशास्त्र के चार प्रमुख पक्ष हैं- (क) साहित्य के भौतिक सामाजिक मूलाधार की खोज। (ख) लेखक के महत्व का विश्लेषण। (ग) साहित्य में समाज के प्रतिबिंबन की व्याख्या। (घ) साहित्य का पाठक के साथ संबंध। वस्तुत: समाजशास्त्र भी समाज में मनुष्य की स्थिति और गति दोनों का वस्तुगत अध्ययन करता है। सामाजिक संस्थाओं और सामाजिक प्रक्रियाओं के माध्यम से सामाजिक स्थिरता और गतिशीलता के अध्ययन से समाजशास्त्रीय चिंतन का गहरा संबंध है। जार्ज लुकाच के अनुसार-“साहित्य में रूप ही मूल सामाजिक होता है।वह सर्जक, कलाकार और पाठक समुदाय के मध्य वास्तविक संबंध का सच्चा सूत्र है।” निष्कर्षत: साहित्य और समाजशास्त्र एक दूसरे के पूरक हैं। साहित्य का वास्ता उन्हीं सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक संरचनाओं से पड़ता है, जिनसे समाजशास्त्र का। दोनों में अंतर केवल इतना है कि कलात्मक रचना के रूप में साहित्य केवल वर्णन,विवेचन या विश्लेषण ही नहीं करता, बल्कि उससे आगे बढ़कर सामाजिक जीवन की गहराई में प्रवेश करता है। मनुष्य जिन स्थितियों का अनुभव भाव-स्तर पर करता है, उनका उद्घाटन साहित्यकार वस्तु के स्तर पर करता है। अतएव, साहित्य को समझने के लिए समाज को समझना तथा समाज को समझने के लिए साहित्य को समझना अपरिहार्य है। *****************इतिश्री********************

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