“मास्टर साहब! कैसे हैं आप?” मेरा इतना पूछना था कि वे फफक पड़े। गोद में बैठा हुआ करीब तीन साल का बालक और जोड़ से रो पड़ा। बाप और बेटे का ताजा मुंडित सिर तथा उनका विगत पन्द्रह दिनों से अनुपस्थित रहना सब कुछ बयाँ कर रहा था। इसलिए मैं बस इतना ही कह पाया कि भगवान आपको इस संकट से उबरने की शक्ति दें! यह सब कैसे हो गया!
“लक्ष्मी आयी थी….. सब कुछ लेकर चली गयी……मैं अकेला अब….”। शेष शब्द आँसू की धारा में बह गये। मुझे समझते देर न लगी कि गोद में बैठा हुआ अबोध बालक उसका बेटा है……बेटी जन्म के साथ ही माँ को लेकर विदा हो गयी!
उनसे मेरा परिचय इसी बस यात्रा के क्रम में हुआ था। करीब डेढ़ महीने पहले। मैंने ही उन्हें बुलाकर कहा था -” मास्टर साहब आप यहाँ आकर बैठ सकते हैं।” अब तक वे बगल की सीट पर मेरा बैग देखकर वह चुपचाप खड़ा था। और कहीं बैठने की जगह नहीं थी।
‘मास्टर साहब!’……वे चौंक गये थे उस दिन।
“आपको कैसे पता चला कि मैं मास्टर हूँ?”
“सिक्स सैंस…..।” मैं बस इतना जवाब दिया।
ढीला-ढाला…मुड़ा-तुड़ा पैंट, घिसा हुआ मटमैला टी-शर्ट, हाथ में एक नूरीनुमा मुड़ा-सुड़ा रूमाल, बढ़ी हुई खिचड़ी दाढ़ी,अनगढ़ अधपके बाल, चेहरे पर असमय उभरी हुई झुर्रियाँ, कंधे में झूलता हुआ एक घिसा हुआ बैग, जिसकी कुछ चेनैं टूटी हुई थीं। बैग का बीच वाला चैन केवल दोनों सिरे को एक जगह टाँके हुआ था। अपने आगे -पीछे से उसका संबंध-विच्छेद हो गया था। अपने आगे और पीछे के हिस्से को संभालने का सामर्थ्य अब उसमें नहीं था। भीतर से दो लीटर वाला पानी का बोतल झाँक रहा था, जिसमें अधभरा जल हिलकोरे ले रहा था। डिब्बे का रंग पीला पड़ जाने से उसमें भरे पानी का रंग डीजल के समान दिख रहा था। ये सब मास्टर होने के अनगिनत निशान थे, जिन्हें देखकर बताना सहज था कि वे सरकारी स्कूल के मास्टर ही हो सकते हैं। सहज ही हम दोनों का परिचय हो गया। एक ही रास्ते में पहले उसका मिडिल स्कूल और फिर मेरा काॅलेज पड़ता था। झंझारपुर से फुलपरास तक हमारी सहयात्रा होती थी। हम दोनों सहयात्री हो गये। आरंभ में उनमें एक तरह की हिचक थी…… हीनताबोध था कि वह स्कूल मास्टर है और मैं………. परंतु दो-चार दिनों बाद हम दोनों घुलमिल गये। पेशे की समता ने हम दोनों को जोड़ दिया। मास्टर साहब भी खुले दिल के……दुख-सुख साझा करने में अब उन्हें कोई हिचक नहीं होती थी। वे बताने लगे कि पत्नी गर्भवती है। अंतिम माह चल रहा है। एक तीन साल का बालक है। बेहद नटखट! और घर में कोई नहीं है। पिताजी बहुत पहले गुजर गये! छोटा भाई इंजीनियर है जमशेदपुर में। माँ वहीं रहती हैं। जब उसकी पढ़ाई चल रही थी, मैंने ट्यूशन- कोचिंग पढ़ाकर खर्च वहन किया। नौकरी मिलने ही बेईमान हो गया। अब हमारा उनसे कोई संबंध न रहा। कहावत ठीक ही है-‘भाय- भैयारी भैंस का सींघ, जभी जनमे, तभी भिन्न!’ माँ भी उसी का पक्ष लेती है। इधर मास्टर साहब कुछ दिनों से चिंतित रहने लगे थे। मैंने कई बार उसकी चिंता का कारण जानना चाहा,पर वे नहीं बता सके। बार-बार यही पूछते कि आपको क्या लगता है- “अबकी बार होली में वेतन मिल जाएगा? आपको लगता है कि जिस तरह हमारे शिक्षक संघ सरकार से वेतनमान की मांग कर रहे हैं। सरकार उनकी मांगे मान लेगी।”
मैंने उनकी आँखों में झाँकता तो ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे वह किसी साकारात्मक उत्तर की उम्मीद कर रहा है। इसलिए मैंने उन्हें कभी निराश नहीं किया।
– होली में वेतन मिलना तय है।
– सरकार को संघ के सामने झुकना ही होगा।
मास्टर साहब एक फीकी हँसी हँसते हुए कुछ देर के लिए मौन हो जाते। फिर कहते- “देखिए आगे क्या होता है!”
मास्टर साहब अब शांत भाव से शून्य में देख रहे थे।उनकी नजर बस में प्रवेश करने वाले हर यात्री पर पड़ रही थी, पर वे कुछ नहीं देख रहे थे।
-“कब हो गया…. यह सब?” मैंने सहज होकर प्रश्न किया।
“आप लगातार पन्द्रह दिनों से अनुपस्थित थे। मेरे मन में कई तरह की शंकाएँ उठ रही थीं, परंतु इतना कुछ हो जाएगा……सोचा नहीं था।”
-“होली से दो दिन पहले दर्द शुरु हो गया! पास-पड़ोस की महिलाएँ सबकुछ संभाल रही थीं। पहला बच्चा नार्मल हुआ था, तो लगा कि सबकुछ सहज ही हो जाएगा। सुबह से शाम हुआ। लगा कि अब हो जाएगा। रात हो गयी। दर्द बढ़ता ही गया। देर रात तक केवल दर्द……महिलाएँ एक-एक कर चली गयी। सबने यही कहा कि सुबह होगा। फिर सबेरे आएंगे।
दर्द से कुछ राहत मिली। वह सो गयी। सुबह सूरज की लाली के साथ आँखें खुलीं। वह चीख रही थी। पेट में अब कोई हरकत नहीं…..सबकुछ शांत……एकदम शांत! वह असह्य दर्द से बेचैन हो गयी! मधुबनी के सरकारी हास्पीटल पहुँचे….. वहाँ से सीधे रेफर दरभंगा डीएमसीएच।
दर्द अपने चरम पर था। वह इमर्जेंसी वार्ड में डाक्टरों के सामने गिड़गिड़ाता रहा….हाथ जोड़ता रहा, पर वे लोग पत्थर बने रहे! कहते रहे नंबर से आईए! यहाँ नंबर सिस्टम चलता है। पत्नी गायनिक वार्ड के बरामदे पर छटपटाती रही!…. और वह कभी डाक्टरों के सामने तो कभी पत्नी के पास….! दोपहर बाद उसका मेरा नंबर आया।
-“आपको किसी प्राइवेट हास्पीटल में ले जाना चाहिए था!” मैंने कहा।
-“कहाँ से ले जाते प्राइवेट में…..पैसे…….!”
-“वेतन नहीं मिला होली में?”
-“जी नहीं!”
-“ओह!”
– वहाँ डाक्टर ने कहा कि आने में देर हो गयी। बच्चा आठ घंटे पहले ही पेट में मर चुका है। शरीर में तेजी से जहर फैल रहा है। ऑपरेशन……..!
-उसने अपना माथा पीट लिया। ऑपरेशन शुरू हुआ। उसकी धड़कन बढ़ती जा रही थी। क्या से क्या हो गया……! थोड़ी देर बाद पाॅलीथिन में मांस का एक लोथरा लिए नर्स बाहर आयी। बोली -“बेटी थी पेट में….!”
उसे सुनते ही चक्कर आ गया! सबकुछ घूमने लगा अचानक! सबकुछ घूम रहा था, पर वह शांत था। कुछ देर बाद डाक्टर साहिबा बाहर निकली यह कहते हुए कि साॅरी मैं लाख कोशिश के बावजूद भी आपकी पत्नी को नहीं बचा पायी। फिर पीछे से लाश….. सबकुछ उजर गया। मास्टर साहब फिर फफक पड़े! “उधर लोग होलिकादहन की तैयारी कर रहे थे और इधर मैं अपनी पत्नी के…….!”
-मेरी आँखों से दो बूँद टपक पड़े। -“क्या करेंगे मास्टर साहब! नियति को यही मंजूर था! धैर्य रखिए सब ठीक हो जाएगा!” “अब ठीक होने को बचा क्या है!” मास्टर साहब टूट गये थे अंदर तक। उनके हर शब्द में वेदना थी…..आह था……निराशा थी! उनके बस से उतरने से पहले मैने अपने बैग से बिस्कुट निकाल कर बालक की ओर बढ़ाया! मास्टर साहब कभी मेरी ओर कभी बालक को ओर देख रहे थे। कभी कुछ नहीं देख रहे थे। बालक बिस्कुट को तेजी से कुतरने लगा। मानो बहुत दिनों के बाद कुछ पसंद का मिला हो!
वे बालक को गोद में लिए अपने गंतव्य पर उतर गये, पर मैं देर तक सोचता रह गया कि उनकी पत्नी और पुत्री का हत्यारा कौन है? मास्टर स्वयं….. डाक्टर…… सरकार….. या फिर नियति…..!
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