भारत में अनादिकाल से ही पुरुषवादी सामाजिक परंपरा ने स्त्री की स्वतंत्र सत्ता को नकारा है। उन्हें सदैव मुख्यधारा से बाहर रखा है। समाज के निर्माण में पुरुष से अधिक भूमिका निभाने वाली स्त्री को कभी महत्त्वपूर्ण माना ही नहीं गया। न उनके श्रम का हिसाब हुआ, न ही उसका सही इतिहास लिखा गया। अतएव, यह कहना कि इतिहास के रूप में ‘जो कुछ लिखा गया है’, वह महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि वह अधिक महत्वपूर्ण है, ‘जो लिखा न जा सका’। जिसे अक्सर दबा दिया गया। मुख्यधारा के मुट्ठी भर लोगों ने समाज के एक बड़े वर्ग को हाशिए पर धकेल दिया। यथा- दलित, स्त्री, आदिवासी, किन्नर आदि इसी की परिणति है। इन्हें आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। खासकर आधी आबादी (स्त्री) को कई स्तरों पर संघर्ष करना पड़ा है। यह सबसे बड़ी बिडंवना है कि जो समाज जितना सभ्य है, वह स्त्रियों का उतना ही बड़ा शोषक है। उस समाज में स्त्रियों को सबसे अधिक पीड़ा झेलनी पड़ती है। परंपरा और सभ्यता के नाम पर अक्सर उनकी कोमल भावनाओं को बेरहमी से कुचल दिया जाता रहा है। सीता, अहिल्या तथा द्रौपदी आदि ऐसी ही स्त्रियाँ हैं, जो हमारी आभिजात्य संस्कृति का शिकार बनी हैं। कहने को तो ये अत्यंत सभ्य, सुसंस्कृत और समृद्ध परिवार में उत्पन्न हुईं, लेकिन सभ्यता, संस्कृति और थोपी गई नैतिकता के महाजाल में वह हमेशा मुक्ति के लिए छटपटाती रहीं।
सबसे बड़ी समस्या रही कि स्त्रियों का कोई इतिहास नहीं लिखा गया। और अगर लिखा भी गया तो वहाँ पुरुषवादी चश्में से उसका मूल्यांकन किया गया। महान स्त्रीवादी लेखिका सिमोन द बोउआर पुरुषों की इसी मानसिकता को स्पष्ट करती हुई कहती है- “वह (पुरुष) एक साथ अपराधी भी है और न्यायाधीश भी….अपराधी इसलिए, क्योंकि उसने उसे सेकेण्ड सेक्स बनाकर इतिहास में एक भयानक अपराध किया है और अपने अपराधों को छिपाने के लिए वह न्यायाधीश भी बना हुआ है।”(1) कहना न होगा कि पुरुषवाद के इसी चश्मे से ‘रामायण’ की नायिका सीता का भी मूल्यांकन कर दिया गया। यही कारण है कि रामकथा की विकसनशील परंपरा में ‘लहरों के राजहंस’ की भाँति सीता का अस्थिर चरित्र हमारे सामने आता रहा है।
अब, जबकि चारों ओर ‘जय श्रीराम’ के नारे गुंजाएमान हो रहे हैं। अयोध्या में भगवान श्रीराम की विधिवत प्राण- प्रतिष्ठा कर दी गई है। देशवासी रामभक्ति के सागर में गोते लगा रहे हैं, ऐसे वक्त पर हमें माता सीता के अस्तित्व पर जरूर विचार करना चाहिए। चूँकि भारतीय लोकमानस में जिस प्रकार राम की व्याप्ति है, उसी प्रकार सीता भी जन- जन के हृदय में अधिष्ठित है। जब बात माता सीता के अस्तित्व की आती है तो इस क्रम में सीता के शास्त्रीय संदर्भों का उद्घाटन करना अनिवार्य प्रतीत होता है। चूँकि सीता रामकाव्य परंपरा की नायिका नहीं है, उस अर्थ में जिस अर्थ में हम राधा को कृष्ण काव्य की नायिका मान बैठे हैं। सीता के प्रति भारतीय मानस में शुचिता का भाव है। इस नाम के स्मरण मात्र से हृदय में पवित्रता, नैतिकता तथा स्त्री के उच्चादर्श का भाव मूर्त हो जाता है। जिस प्रकार राम भारतीय समाज में स्थापित हैं, उसी प्रकार सीता की भी व्याप्ति है। अगर राम भारत के पर्याय हैं, तो सीता उसकी प्रतिछाया है। राम शब्द हैं, तो सीता उसमें अंतर्निहित अर्थ है। राम भारत की सभ्यता है, तो सीता भारत की संस्कृति है। राम विस्तृत आकाश हैं, तो सीता वसुन्धरा है। इसीलिए हमें अगर राम चाहिए तो सीता सहित चाहिए। अनादिकाल से ही रामकथा में सर्वत्र सीता अंतर्निहित हैं। इसीलिए आज सीता के शास्त्रीय संदर्भों का उद्घाटन लाजिमी है। कौन थी सीता? कब हुई सीता? राम कौन थे उनके? भारतीय समाज में किस रूप में स्थापित हुई सीता? ये सारे सवाल भारतीयों के मन में स्वाभाविक रूप से उठते रहते हैं। अतएव, इन्हीं अनगिनत अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजने की चेष्टा यहाँ की गई है।
‘ऋग्वेद’ में ‘सीता’ का अर्थ है-‘पृथ्वी पर हल से जोती हुई रेखा’।(2) वैदिक सीता के संबंध में यह समझा जाता है कि यह शब्द लांगल- पद्धति (खेत में हल से बनाई हुई रेखा) का पर्याय है। इसीलिए उन्हें इन्द्र पत्नी और प्रजन्य पत्नी भी कहते हैं। सीता खेत के ‘सिरोर’ अर्थात् ‘हल-रेखा’ (3) का नाम था। इसका समर्थन ‘महाभारत’ में भी हुआ है, जहाँ द्रोण पर्व के जयद्रथ वध के अंतर्गत ‘ध्वजवर्णन’ नामक अध्याय में कहा गया है कि ‘सीता कृषि की अधिष्ठात्री देवी तथा सब चीजों को उत्पन्न करने वाली महाशक्ति है।'(4) इसी प्रकार ‘हरिवंश पुराण’ के द्वितीय भाग में आदि शक्ति माता दुर्गा की लंबी स्तुति के क्रम में कहा गया है- “कर्षुकानां च सीतेति भूतानां धरणीति च”।(5) अर्थात् ‘तू कृषकों के लिए सीता है तथा प्राणियों के लिए धरणी’। अतएव सहज ही कहा जा सकता है कि माता सीता कृषि की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वैदिक साहित्य में पहले से पूज्य थीं। रामकथा परंपरा में वह बाद में स्वीकृत और प्रतिष्ठित हुईं। और कालांतर में ‘भूमिजा’ या ‘अयोनिजा’ सीता की कल्पना की जाने लगी। इस संदर्भ में दिनकर जी बताते हैं कि ‘वेद में जो सीता कृषि की अधिष्ठात्री थी, वही कालांतर में अयोनिजा कन्या बन गई, जिन्हें जनक ने हल चलाते हुए खेत में (बिहार के सीतामढ़ी जिले के पुनौरा नामक स्थान पर) पाया।'(6)
भारत की शास्त्रीय परंपरा में सर्वप्रथम सीता का उल्लेख ‘रामायण’ और उसके बाद ‘महाभारत’ में मिलता है। ‘वाल्मीकि रामायण’ में उसे ‘जनकानां कुले जाता’ कहा गया है, परंतु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि सीता जनक की पुत्री थी। ‘वायु पुराण’ तथा ‘पद्म पुराण’ में सीता के पिता का नाम ‘सीरध्वज’ बताया गया है। ‘उत्तर रामचरित’ में भवभूति ने सीरध्वज को जनक का पर्याय माना है।'(7) ‘कालिदास के ‘रघुवंश’ महाकाव्य में उनके देवी रूप की ही प्रतिष्ठा हुई है। राम और सीता के व्यक्तित्व के दैवीकरण का एक अन्य रूप उनमें ‘प्रकृति’ और ‘पुरुष’ की कल्पना है। सीता प्रकृति है तो राम पुरुष। दोनों के सम्मिलन से ही सृष्टि का उद्भव, विकास और विनाश होता है। माधवदास चारण ने ‘अध्यात्म रामायण’ में सीता को मूल प्रकृति की संज्ञा दी है। ‘स्कंद पुराण’ में सीता को ब्रह्म विद्या का साक्षात अवतार कहा गया है।'(8)
वाल्मीकि रामायण में सीता का चरित्रांकन महाकाव्य की उदात्त नायिका के गौरव के अनुरूप हुआ है। उनके उदात्त चरित्र के कारण ही अनेक स्थलों पर लक्ष्मी के साथ उसका साम्य दिखलाया गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि वाल्मीकि जी राम और सीता में मानवीय गुण धर्मों का उत्कर्ष दिखलाया है। इसीलिए वहाँ देवत्व के बजाय, मनुष्य का संभाव्य संसार है। वहाँ सबकुछ अत्यंत स्वाभाविक रूप से घटित होता है। वनवास मिलने पर जो राम की प्रतिक्रया होती है, वह उन्हें स्वाभाविक रूप से मनुष्य की सीमा में समेटता है। वन के कठिन जीवन का भय, साधनहीनता की स्थिति और विमाता के प्रति आक्रोश उन्हें मनुष्य की एक सीमा में घेर लेता है।
सीता के स्वरूप में विकृति भवभूति कृत ‘उत्तर रामचरित’ से आरंभ हुआ है। चूँकि इस ग्रंथ में राम के द्वारा सीता के निर्वासन की कारुणिक कथा कही गई है। प्रभु श्रीराम ने अपने राज्याभिषेक के तुरंत बाद गर्भवती सीता को वनवास देकर अपनी पुरुषवादी तथा सामंती मानसिकता का परिचय दिया है। सीता वाल्मीकि के आश्रम में शरण लेती है और वहीं अपने दोनों संतानों को जन्म देती है। इस ग्रंथ ने रामकथा में एक अभिनव चमत्कार पैदा कर दिया। यह चमत्कार इतना व्यापक था कि पंडितों ने इसी आधार पर आदिकाव्य ‘रामायण’ का पुनर्लेखन कर डाला। विदित हो कि वाल्मीकि रामायण में अब तक सिर्फ पाँच कांड थे – अयोध्याकांड, अरण्यकाण्ड, किष्किंधाकांड, सुन्दरकांड और युद्धकांड। इसमें पता नहीं कब बड़ी ही चतुराई से बालकांड तथा उत्तरकांड का समावेश कर दिया गया। इस संदर्भ में रामधारी सिंह दिनकर जी का मानना है कि ‘इस रामायण में अयोध्याकांड से लेकर युद्धकांड तक ही कथावस्तु का वर्णन था और उसमें सिर्फ बारह हजार श्लोक थे। किन्तु, इस रामायण का समाज में बहुत प्रसार था। कुशी-लव उसका गान करके तथा उसके अभिनेता उसका अभिनेय दिखाकर अपनी जीविका कमाते थे। काव्योपजीवी कुशी- लव अपने श्रोताओं की रुचि का ध्यान रखकर रामायण के लोकप्रिय अंश को बढ़ाते भी थे। इस प्रकार आदि रामायण का कलेवर बढ़ने लगा।ज्यों-ज्यों रामकथा का यह मूल रूप लोकप्रिय होता गया, त्यों- त्यों जनता को यह जिज्ञासा होने लगी कि राम कैसे जनमे? सीता कैसे जनमी? रावण कौन था आदि- आदि। इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देने के लिए रामायण के आरंभ में बालकांड तथा अंत में उत्तरकांड संलग्न कर दिये गये। यही कारण है कि रामायण जो कि राम + अयन, अर्थात् राम का पर्यटन न रहकर रामचरित के रूप में फैल गया'(9) रामायण में मूलत: तीन कथाएँ हैं, उनके नायक क्रमश: राम, रावण और हनुमान हैं। वास्तव में ये तीन चरित्र तीन अलग-अलग संस्कृतियों के प्रतीक हैं, जिनका समन्वय आदिकवि वाल्मीकि ने एक ही काव्य में किया है। संभवत: सच यह हो कि ‘राम, रावण और हनुमान के विषय में पहले स्वतंत्र आख्यान काव्य प्रचलित हो, और रामायण में इसका संयोग कर दिया गया हो।'(10) सीता- प्रसंग के स्पष्टीकरण हेतु रामायण के ‘उत्तरकांड’ पर विचार करना आवश्यक है, चूँकि इसी भाग में ‘सीता- निर्वासन’ की कथा लिखकर राम को कठघरे में खड़ा किया गया है तथा राम के विराट व्यक्तित्व पर लांछन लगाया गया। यहाँ विचारणीय है कि जो राम गौतम ॠषि की धर्मपत्नी अहिल्या का उद्धार करते हैं, वह क्या अपनी ही पत्नी को लांछित कर त्याग सकता है? रामकाव्य परंपरा में यह कथा प्रचलित है कि गौतम ॠषि की पत्नी अहिल्या से छलपूर्वक इन्द्र ने संसर्ग किया था। संसर्ग के दौरान अहिल्या को ज्ञात हो गया था कि ये देवराज इन्द्र हैं, परंतु वह प्रतिरोध करने के बजाय संसर्ग का आनंद लेती रही। उसे अपने सौंदर्य पर गर्व होता है, जिसके कारण इन्द्र भी अपने को नहीं रोक पाए। रंगे हाथ पकड़े जाने पर गौतम ॠषि अपनी पत्नी को पत्थर होने हो जाने का श्राप देते हैं। परिणामस्वरूप वह पत्थर हो जाती है। राम अपने चरण के स्पर्श से उन्हें स्त्री रूप में लाते हैं। वास्तव में इस कथा का व्यवहारिक रूप यह होगा कि पर पुरुष के संसर्ग के कारण अहिल्या समाज से बहिष्कृत हो गई होगी, परंतु भगवान राम ने उसका चरण स्पर्श कर उसका समाजीकरण किया होगा। तो अब सवाल है कि जो राम अहिल्या को समाज में प्रतिस्थापित कर सकते हैं, क्या वे अपनी ही पतिव्रता पत्नी का, इस तरह त्याग कर सकते हैं? कदापि नहीं। रामायण का यह अंश बाद में संलग्न कर दिया गया है। सीता निर्वासन की कथा सच में प्रक्षिप्त है। इसके दो और प्रमाण हैं। प्रथम यह कि रामायण के बालकांड तथा अयोध्याकांड की भाषा शेष पाँच कांडों की भाषा से मेल नहीं खाती है। दूसरा, यह कि निर्वासन के बाद सीता वाल्मीकि के आश्रम में आश्रय ग्रहण करती है। इसका मतलब यह है कि वाल्मीकि भगवान श्रीराम तथा माता सीता के समकालीन थे और रामायण की रचना राम के समय में हुई। जबकि यह सर्वविदित है कि रामायण की रचना लौकिक संस्कृत में हुई है, जिसका समय ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी के मध्य है। अतएव, रामायण की रचना इसी समय हुई होगी, जबकि राम का समय ईसा पूर्व पाँच हजार साल पहले सिद्ध हो चुका है। यहाँ यह भी जानते चले कि महाभारत की रचना भी लौकिक संस्कृत में हुई है, पर यह रामायण के बाद की रचना है। चूँकि महाभारत में रामकथा है, जबकि रामायण में महाभारत का कोई पात्र या प्रसंग नहीं मिलता है। महाभारत की मूल घटना भी निश्चय ही रामायण के बाद घटित हुई होगी। इसका ठोस कारण है कि दोनों महाकाव्यों में वर्णित समाज में व्यापक अंतर मिलता है। रामायण में एक भाई दूसरे भाई के लिए अपना सर्वस्व त्याग देता है, जबकि महाभारत में एक भाई दूसरे भाई को सूई की नोंक बराबर जमीन नहीं देना चाहता। जरूर इन दोनों महाकाव्यों के माध्यम से कवियों ने सामाजिक मूल्यों में आई घोर गिरावट का दस्तावेज प्रस्तुत किया है।
उत्तर रामचरित की कथा -परंपरा का प्रतिफलन बौद्ध तथा जैन -साहित्य में मिलता है। क्योंकि बुद्ध और महावीर से पहले से रामकथा परंपरा चली आ रही थी। ‘दशरथ जातक’ नामक बौद्ध ग्रंथ में सीता को राम की अनुजा (छोटी बहन) माना है। और वहाँ बताया गया है कि राम अकेले वनवास को भोगते हैं। वन से लौटने के पश्चात वे सीता से विवाह करते हैं।’ (11) निश्चय ही, इसी कारण विदेशों में राम कथा को विकृत रूप में प्रचारित किया गया है। सीता को राम की अनुजा कहना तथा राम के साथ उसके विवाह के प्रसंग को बौद्ध साधु-संत बौद्ध- दर्शन के अनुरूप स्वाभाविक मानते हैं।
इसी प्रकार अपभ्रंश के वाल्मीकि कहलाने वाले स्वयंभू तथा व्यास कहलाने वाले पुष्पदंत ने क्रमश: ‘पउमचरिउ’ और ‘तिसट्ठिपुराण’ (महापुराण) नामक जैन -ग्रंथ में रामकथा को तोड़- मरोड़ कर प्रस्तुत किया है। जहाँ ‘पउमचरिउ’ में अग्नि परीक्षा से पूर्व सीता पर लांछन लगाते हुए श्रीराम कहते हैं- “स्त्रियाँ अशुद्ध होती हैं, निर्लज्ज होती हैं। पर- पुरुष के संसर्ग में घृष्टा होकर हीन हो जाती हैं, अपयश फैलाती हैं। भला ऐसी स्त्री का मुख उसका पति कैसे देख सकता है?”(12) इसके बाद सीता अग्नि में प्रवेश करती हुई राम का प्रतिवाद करती हुई कहती है- “एमहि तिह करोमि पुणु रघुवई, जिह ण होमि पडिवारें तिय भई।”(13) अर्थात् ‘अब ऐसा करना चाहिए कि स्त्री- जाति में जन्म ही न हो।’ इसी महाकाव्य के अंत में सीता राम का परित्याग कर जैन धर्म स्वीकार कर लेती है। पुष्पदंत ने तो अपने रामकाव्य में राम कथा का नक्शा ही बदल दिया है। कथा में जो परिवर्तन किये गए, उस पर विचार कर लेना चाहिए। उनके अनुसार, ‘राम की माता का नाम सुबला है। लक्ष्मण कैकेयी के पुत्र थे। राम की आठ पत्नियाँ थीं। सीता मंदोदरी के गर्भ से पैदा हुई। अनिष्टकारी रावण ने उन्हें मिथिला में छोड़ दिया। बालि और रावण को लक्ष्मण ने मारा। राम पीतवर्ण के थे और लक्ष्मण श्याम वर्ण के…आदि- आदि।'(14) स्पष्ट है कि इन ग्रंथों में प्रचारित रामकथा सर्वथा भ्रामक है। क्योंकि सीता जैन धर्म कैसे स्वीकार कर सकती है, जब जैन धर्म का प्रवर्तन ही रामायण के बहुत बाद हुआ है। इन ग्रंथों में निश्चय ही रामकथा परंपरा को विकृत करने का प्रयत्न किया गया है।
वाल्मीकि रामायण के नायक राम तथा नायिका सीता के मानव स्वरूप का दैवीकरण सर्वप्रथम माधवदास चारण ने ‘अध्यात्म रामायण’ में किया। तुलसी का ‘रामचरितमानस’ उसी का हिन्दी संस्करण है। कुछ उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। वाल्मीकि रामायण में राम जब वनवास का दु:संवाद सुनाने कौसल्या के पास आते हैं तो वे अधीर होकर कहते हैं- ‘देवी आप जानती नहीं हैं, आपके लिए, सीता के लिए और लक्ष्मण के लिए बड़ा भय आया है, इससे आप लोग दुखी होंगे। अब मैं दण्डकारण्य जा रहा हूँ। महाराज भरत को युवराज का पद दे रहे हैं, और तपस्वी वेश में मुझे चौदह वर्ष के लिए अरण्य भेज रहे हैं।'(15) यहाँ राम की आकुलता स्वाभाविक लगती है, चूँकि वह मानव रूप में हैं।
‘अध्यात्म रामायण’ में राम ने इस प्रसंग में कहा है -‘माता मुझे भोजन करने का समय नहीं हैं, क्योंकि आज मेरे लिए यह समय दण्डकारण्य जाने के लिए तय किया गया है। मेरे सत्य- प्रतिज्ञ पिता ने माता कैकेयी को वर देकर भरत को राज्य और मुझे अति उत्तम वनवास दिया है। वहाँ मुनि वेश में चौदह वर्ष रहकर मैं शीघ्र ही लौट आऊंगा। आप किसी प्रकार की चिंता न करें।'(16) यहाँ तो राम के संवाद से यही लगता है कि वह चौदह वर्ष के वनवास पर नहीं, चौदह घंटे के लिए पिकनिक पर जा रहे हैं। ‘रामचरितमानस’ में यह प्रसंग इस प्रकार है-”मातु वचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला।। सुख मकरंद भरे श्रिय मूला। निरखि रामु मन भंवरु न भूला।। धरम धुरीन धरम गनि जानी। कहेउ मातु सन अमृत वानी।। पिता दीन्ह मोहिं कानन राजु। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू।। आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।। जनि सनेह बस डरपति मोरे। आबहुँ अम्ब अनुग्रह तोरे।।”(17) इसी प्रकार जयंत वाली कथा में भी वाल्मीकि और तुलसी में अंतर है। ‘वाल्मीकि ने लिखा है कि जयन्त ने सीता जी के स्तन पर प्रहार किया, किन्तु गोस्वामीजी ने चरणों पर चंचु प्रहार की बात लिखी है।'(18) चूँकि तुलसी मर्यादावादी कवि हैं।
उपर्युक्त संदर्भों से स्पष्ट हो जाता है कि तुलसीदास वाल्मीकि रामायण के राम को ग्रहण न कर अध्यात्म रामायण के राम को ग्रहण किया है। तुलसीदास जी के राम भगवान विष्णु के प्रत्यक्ष अवतार हैं। इनके राम पर रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत का स्पष्ट प्रभाव है। जहाँ राम मनुष्य रूप में होकर भी मनुष्य से विशिष्ट हैं। अर्थात् वे पुरुष रूप में होकर मर्यादापुरुषोत्तम हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में राम और सीता के आदर्श चरित्र की स्थापना की है। नैतिकता के स्तर पर इनके पात्र समाज के लिए अनुकरणीय हैं। जहाँ श्रृंगार के संदर्भ हो सकते थे, तुलसी न वहाँ भी मर्यादा का ख्याल रखा है। जनक की पुष्पवाटिका में राम और सीता का मिलन जरूर होता है, परंतु लता के अंतराल में नयनों से नयनों का गोपन संभाषण से अधिक कुछ नहीं होता। इस मिलन में न तो एकांत की खोज है और न ही किसी तरह की कामुकता। यहाँ राम अपने भाई के साथ है, तो सीता अपनी सखियों के साथ। इस तरह तुलसीदास ने रामकथा के लगभग उन सभी प्रसंगों का निषेध किया है, जिससे राम और सीता के चरित्र में गिरावट की संभावना थी। चाहे वह शंबूक की हत्या का प्रसंग हो या सीता-वनवास का प्रसंग।
हिन्दी साहित्य के उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) में केशवदास ने रामकाव्य परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए ‘श्रीरामचन्द्र चन्द्रिका’ नामक महाकाव्य लिखा है। कहा जाता है कि इस ग्रंथ को केशवदास ने रामचरितमानस की प्रतिद्वन्द्विता में लिखा था, जिसके कारण यह स्वाभाविक न रह सका। इस काव्य को इतना कलात्मक बनाने की चेष्टा की गई कि यह छंदों और अलंकारों का अजायबघर बनकर रह गया। इस ग्रंथ में न तो राम के प्रति कवि स्वाभाविक रह पाये, न सीता के प्रति।
आधुनिक काल में अनेक वैज्ञानिक आविष्कारों तथा वैचारिक क्रांतियों के कारण मध्यकालीन सोच के खिलाफ नवीन दृष्टिसंपन्न विचारों को कवियों ने आत्मसात कर सृजन को नया आयाम दिया है। इस दौरान तमाम ऐतिहासिक पौराणिक संदर्भों में नवीन चेतना भरने की कोशिश की गई। आधुनिक काल में अनेक रामकाव्य लिखे गये, जिसमें ‘वैदेही वनवास’, ‘साकेत’ और ‘राम की शक्ति पूजा’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। वैदेही वनवास में भवभूति के उत्तर रामचरित को आधार बनाकर सीता के उदात्त चरित्र की स्थापना की गई है। साकेत में सीता के चरित्र पर गांधीवाद का व्यापक प्रभाव मिलता है। सीता जहाँ एक ओर अहिंसावाद का समर्थन करती है, वहीं दूसरी ओर महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की शिक्षा भी देती है। यहाँ सीता भारत माता का प्रतीक है, जिसे अंग्रेज रूपी रावण के गिरफ्त से मुक्त कराने का संघर्ष चलता है। राम की शक्ति पूजा में भी सीता भारत माता का प्रतीक है, जिसे मुक्त कराने हेतु राम तत्पर हैं।
कुल मिलाकर कहें तो भारत की शास्त्रीय परंपरा में सीता के चरित्र का बहुविध वर्णन किया गया है। सभी ग्रंथों में सीता के अलग-अलग स्वरूप देखने को मिलता है। लेकिन भारतीय समाज में वर्तमान समय में सीता के जिस स्वरूप की व्याप्ति है, वह है- तुलसीदासकृत ‘रामचरितमानस’ की सीता। यह अलग सवाल है कि आज सीता के चरित्र को स्त्री- अस्मिता के निकष पर रखकर पुरुषवादी समाज से अनेकानेक प्रश्न किये जा रहे हैं। पर यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं कि भूमंडलीकरण और बाजारवाद की अंधी दौर में सीता का चरित्र ही भारतीय स्त्री के लिए प्रकाशपुंज है। इसके चरित्र को आत्मसात करके ही भारतीय नारी अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकती है।
संदर्भ – ग्रंथ- सूची :
(1) स्त्री उपेक्षिता – प्रभा खेतान, पाॅकेट बुक्स, दिल्ली, 2004 ई., पृष्ठ- 386
(2) संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, लोकभारती प्रकाशन, दिल्ली, 1956 ई., पृष्ठ- 75
(3) संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ- 75
(4) हिन्दी साहित्य कोश, भाग- दो, संपादक- डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, 1956 ई., पृष्ठ- 629
(5) हिन्दी साहित्य कोश, भाग -दो, संपादक- डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ – 629
(6) संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ – 76
(7) हिन्दी साहित्य कोश, भाग- दो, संपादक- डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ- 630
(8) हिन्दी साहित्य कोश, भाग- दो, संपादक- डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ- 630
(9) संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ – 76
(10) भारत का इतिहास- रोमिला थापर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1975 ई., पृष्ठ- 27
(11) हिन्दी साहित्य कोश, भाग- दो, संपादक- डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ- 630
(12) हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास- डाॅ. बच्चन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1996 ई., पृष्ठ- 40
(13) हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास- डाॅ. बच्चन सिंह, पृष्ठ – 40
(14) हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास- डाॅ. बच्चन सिंह, पृष्ठ- 41
(15) हिन्दी साहित्य कोश, भाग- दो, संपादक- डाॅ.धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ- 498
(16) हिन्दी साहित्य कोश, भाग- दो, संपादक- डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ- 499
(17) हिन्दी साहित्य कोश, भाग- दो, संपादक- डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ- 490
(18) गोस्वामी तुलसीदास- आचार्य सीताराम चतुर्वेदी, चौखंभा प्रकाशन, काशी, 1956 ई., पृष्ठ -75
लेखक परिचय :
डाॅ.उमेश कुमार शर्मा,
सहायक प्राध्यापक सह अध्यक्ष,
हिन्दी विभाग,
श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय,
सीतामढ़ी (बिहार)
संपर्क- 6201464897
ईमेल – umesh.kumar.sharma59@gmail.com