वर्ष 2011 की दीपावली नहीं भूल पाया हूँ अब तक! तब मैं प्रथम श्रेणी से एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर नेट/जेआरएफ की तैयारी में लगा था। अबतक दो बार इस परीक्षा में विफलता मिल चुकी थी, इसलिए दिसम्बर में होने वाली परीक्षा में कोई कोर- कसर नहीं छोड़ना चाह रहा था। जरूरत की सारी किताबें चाट गया था मैं! सामने दीपावली थी। घर से बार-बार बुलावा आ रहा था, लेकिन मैं कौन-सा मुँह लेकर गाँव जाता। एम.ए. में सर्वाधिक अंक लाकर जो प्रतिष्ठा मैंने अर्जित की थी, वह नेट की परीक्षा में दो बार फेल करके गवां चुका था। आस-पड़ोस के लोग पिताजी को मेरी शादी करा देने की सलाह दे रहे थे। उनका कहना था कि ज्यादा पढ़ने-लिखने से दिमाग खराब हो जाता है। पागलपन के दौरे आने लगते हैं। वैसे भी मुझ पर इस दौरे का प्रकोप वे लोग पहले से मान रहे थे। जब मैं मजदूरों के साथ काम करते हुए इंटरमीडिएट की पढ़ाई कर रहा था।
साथी मजदूर अक्सर हमसे पूछते- “इतना पढ़कर क्या करोगे?”
मैं कहता- ” प्रोफेसर बनना है मुझे। काॅलेज में पढ़ाना है।”
– “क्या कहा, प्रोफेसर! पागल कहीं के….!” एक साथ कई मजदूर हँस पड़ते। उनके ठहाकों की गूंज में मेरा स्वप्न एक क्षण के लिए धुँआ- धुँआ हो जाता।
“प्रोफेसर बनना है…. दिमाग खराब हो गया है इसका…..
पढ़ते-पढ़ते!” बड़े भाई साहब उनके समर्थन में खड़े हो जाते। “मैं समझा- समझाकर हार गया हूँ। दिन भर की खटनी और रात का जागरण……कौन समझाएगा इसे!”
इस बार दरभंगा की दीपावली और छठ देखना चाहता था मैं। पर मुझे क्या पता था कि यह दीपावली मेरे लिए मुहर्रम सिद्ध होगा। पिताजी समय से मासिक खर्च नहीं भेज पाए, चूँकि उनका हाथ खाली था। बड़े भाई साहब ने पहले ही हाथ खड़े कर लिए थे- “अब कोई जीवन भर पढ़ता रहेगा तो हम खर्च भरते रहें। मेरा भी अपना परिवार है, बाल-बच्चा है…..!”
पिताजी को परेशान देखकर मैंने कहा कि छोड़ दीजिए आप। हम कहीं से इंतजाम कर लेते हैं। अगले महीने भेज दीजिएगा।
लेकिन मुझे क्या पता कि जिस आदमी पर हमें भरोसा था, वह मौके पर मुझे धोखा देगा। दीपावली से चार दिन पहले ही मैंने उनको फोन किया – “आपको असाइटमेंट लिखवाना था न?”
– “जी, लिखवाना था! लेकिन आपने तो मना कर दिया था।”
– “उस समय मुझे फुरसत नहीं थी, पर अब लिख सकता हूँ।”
इस तरह एम.ए. प्रीवियस के कुल आठ पेपर का असाइटमेंट लिखने का सौदा बारह सौ रुपए में तय हुआ। बारह सौ, मतलब मेरे करीब एक महीने का खर्च।
मन खुशी से नाचने लगा! इस ठंड में एक जैकेट भी खरीद लेने की इच्छा जोर मारने लगी।
सबकुछ छोड़कर मैंने असाइनमेंट लिखना शुरू किया। दीपावली से एक दिन पहले उसे आना था और सारे पैसे उसी दिन…..!
मैं लिखते-लिखते मन -ही- मन हिसाब लगाता रहा…..जोड़ता रहा, घटाता रहा……बचाता रहा!
खाने- पीने का सामान अपने अंतिम पड़ाव पर था। चावल, आटा, दाल, तेल, गैस….. दीपावली पर सबका अस्तित्व खतरे में था।
तीन दिनों में उनके सारे पेपर तैयार हो गये। बात हुई तो बोला कि शाम में चार बजे आता हूँ। आप सब पेपर लेकर ‘श्यामा माई’ मंदिर कैम्पस में रहिएगा।
उन्हें समस्तीपुर से आना था। कहीं मेरे कारण उन्हें लौटने में देर न हो जाए, मैं तीन बजे ही वहाँ जाकर वहाँ बैठ गया। मैं चिर विरहिणी नायिका के समान अपने अज्ञात प्रियतम का मार्ग देख रहा था। मेरी सारी खुशियाँ वहीं थीं……
चार बज गये। वह नहीं आया। पाँच बज गये। वह नहीं आया। मैंने हारकर फोन लगाया, तो उसने कहा कि आज परिवार के साथ बाजार निकल गया हूँ। कल सुबह आता हूँ। आप आठ बजे वहीं रहिएगा।
आज दीपावली का दिन था। लेकिन मैं सात बजे माता की शरण में जा बैठा कि कहीं प्रियतम हमसे रूष्ट न हो जाए! मेरे इंतजार की घड़ी लंबी होती गई…..बारह बजे तक वहीं बैठा रहा…. उनका फोन लगातार बंद आ रहा था।
वहाँ बैठे-बैठे मुझे अपनी छोटी फुआ याद आने लगी। तब मैं आठ- नौ साल का था। भैया दूज के अवसर पर जिद्द ठान कर पिताजी के साथ फुआ के ससुराल गया था। पिछले साल इसी अवसर पर फुआ ने मुझे पाँच रूपये दिये थे। उसी से मैंने छठ के घाट पर दर्जनों पटाखे छोड़कर अपनी मुराद पूरी की थी।विश्वास था कि इस बार भी फुआ भूलेगी नहीं। पाँच रूपये जरूर देगी…..!
माँ के मरने के बाद फुआ से हमारा विशेष लगाव हो गया था। वह हमें अपने साथ स्कूल ले जाया करती थी। प्रेम से समझाकर पढ़ाती थी। उनके ससुराल आ जाने से अनाथ हो गये थे हम!
रात की मेहमानी के बाद अब घर लौटना था। पिताजी के साथ हम भी खा- पीकर तैयार हो गये। आज मेरी नजर खाने से ज्यादा फुआ पर टिकी थी……इस बार फिर वह मुझे पाँच रूपये देगी। हम भी पिताजी के साथ फुआ से विदा लेने आंगन गये। उसने पिताजी के हाथ में बीड़ी और सुपारी दिया। अब मेरी बारी थी……मैं कभी फुआ के हाथ की ओर देखता तो कभी उसके आंचल की खूट को निहारता। सब खाली…..!
उसने पिताजी के पैर छुए। मैंने भी बेमन से फुआ के पैर छूकर यह औपचारिकता पूरी की। और फिर चल पड़े निरीह मेनने की भाँति पिताजी के पीछे- पीछे……
अभी दालान पर पहुँचे भी नहीं थे कि फुआ ने पुकारा हमें……!
मेरा मन नाच उठा! फुआ कैसे भूल सकती है…! मैं खुशी-खुशी उनके पास गया तो उनके हाथ में एक कद्दू था। बोली -“लेते जाओ, छठी माई की डाली पर चढ़ेगा….खूब मन लगाकर पढ़ाई करना। दादी को ज्यादा परेशान नहीं करना। तुम बहुत अच्छे बच्चे हो…..।”
खाक करेंगे पढ़ाई! खाक अच्छे बच्चे….! मेरा मन रो पड़ा।
मैं दो बजे दिन में लौट आया। उस आदमी का मोबाइल अबतक बंद था। मैंने जल्दी-जल्दी अपने कमरे की सफाई की। किताबों को व्यवस्थित किया। लैंप की धुलाई की।
जेब टटोला तो कुल सात रूपये थे। इससे क्या हो सकता है? मोमबत्ती, माचिस और अगरबत्ती………!
शाम ढलते ही पूरा शहर रोशनी में नहा रहा था। लोगों के घरों में और छतों पर हजारों दीप जगमगा रहे थे। सभी एक दूसरे को दीपावली की शुभकामनाएँ दे रहे थे और मैं अपने लैंप की रोशनी में रात के खाने का जुगाड़ कर रहा था। चावल एक ग्लास बचा था। मतलब दो सौ ग्राम। दाल बिल्कुल नहीं। दो आलू……एक प्याज………! सबसे अधिक चिंता थी गैस की। गैस समाप्त हो गया तो सब चौपट।
मैंने मन ही मन माता लक्ष्मी का सुमिरन कर जला दिया चूल्हा….कूकर में चावल के साथ दोनों आलू को कैद कर दिया।सब उबलने लगा एक साथ। धीरे-धीरे….!
मैं बिस्तर पर लेटे-लेटे सीटी बजने का इंतजार करता रहा……बीच में कई सीटियाँ बजीं……ट्रेन की। लेकिन चावल पत्थर हो गया उस दिन……हिम्मत करके उधर देखा तो गैस कब का बंद हो चुका था!
मैंने कूकर खोलकर चावल निकाला थाली में। आलू टस से मस नही हुआ था। चावल गर्म पानी में फूलकर वैसा ही हो गया था, जैसा बचपन में हर शनिवार को स्कूल में भींगे हुए चावल और गुड़ का परसाद मिलता था।
दिनभर का भूखा था। सोचा कि नमक के साथ इसे चबाकर पानी पी लूँ, पर नमक भी इतना नहीं कि…….
मैं चबाता गया…. अधफुले चावल को श्रमपूर्वक……! थोड़ी देर बाद हमें नमक की कमी महसूस नहीं हो रही थी! आँखों से टपकती अविरल बूँदों ने उसे उतना ही खारा कर दिया था, जितना मुझे पसंद था……!