अपराध- बोध

– “सर….सर…..सर जी…..!”

किसी ने मुझे पीछे से पुकारा।

इस भीड़ भरी सड़क पर मुझे इस तरह कौन बुला सकता है! दरभंगा का नाका नंबर पाँच वैसे ही जाम को लेकर बदनाम है। यहाँ रुकने का मतलब है जाम कारण बनना। पुलिस वाले से माँ- बहन सुनना। यूँ ही भीड़ के कारण मेरी गाड़ी कछुए की चाल में चल रही थी। मैं अनजान बने बढ़ता रहा………..

आवाज और भी तेज हो गई- “सर…सर…सर….!”

मेरी गाड़ी के सामने एक अनजान युवक आकर खड़ा हो गया, “सर आपने मुझे पहचाना नहीं…..मैं उदय…..उदय साहु…..आपका विद्यार्थी।”

मैंने उन्हें अपनी स्मृतियों में खंगालने की कोशिश की, पर नाकाम रहा। मैंने सच में उन्हें नहीं पहचाना।…..

यह कैसे हो सकता है कि मैं अपने पढ़ाए हुए विद्यार्थी को न पहचान सकूँ! मुझे तो प्रत्येक सत्र के छात्र- छात्राओं का नाम और चेहरा वर्ग- क्रमांक सहित याद है….फिर यह कौन……?

-“आपका सत्र क्या था और वर्ग- क्रमांक…..?” मैंने प्रश्न किया।

-“सत्र- 2015 -17 और क्रमांक- 47…”

– “आप रेगुलर क्लास नहीं आते थे क्या…?”

– “सर रेगुलर होता तो मैं भी एम.ए. कर लेता न…फिर यहाँ पकौड़े क्यों तल रहा होता! आपलोगों ने मुझे फार्म ही नहीं भरने दिया….खैर छोड़िए सर! मेरे भाग्य में यही सब लिखा था तो…..!”

याद आया सत्र- 2015- 17, जिसमें विभागाध्यक्ष महोदय ने दस- बारह छात्र- छात्राओं को फार्म भरने से रोक दिया था। चूँकि उनकी उपस्थिति 75% से कम थी। उदय उसी में से एक रहा होगा। यह अलग बात है कि मैं भी चाहता था, बच्चे अच्छे से पढ़कर डिग्री प्राप्त करे। लेकिन किसी को परीक्षा से वंचित किया जाय, यह कदापि नहीं चाहता था। और कोई इस तरह सड़क किनारे पकौड़े तलने लगेगा, यह तो सोचा ही नहीं था।

मेरा मन अपराध- बोध से भर गया! अब मैं वहाँ एक क्षण नहीं रूकना चाहता था, लेकिन उदय ने मेरा पैर छान लिया- “सर शाम का समय है, नाश्ता करके जाइए…..गरमागरम कचरी- मूढ़ी लाता हूँ…बैठिए न सर…..मैं आपसे मिलकर बहुत खुश हूँ!”

मैं चुपचाप बैठ गया। दो मिनट बाद मेरे सामने गरमागरम कचरी- मूढ़ी, कटे हुए प्याज, तली हुई हरी मिर्च परोस दिये गये।

-“लेकिन, उदय यह काम तो शाम के समय करते हो। दिन में तुम क्लास कर सकते थे न…..!” मैंने प्रश्न किया।

-“कैसे करते सर! दिन में मजदूरी करते हैं और शाम में यहाँ….मैं भी पढ़ना- लिखना चाहता था सर! लेकिन कैसे करता! घर में कोई कमाने वाला नहीं था! पिताजी बचपन में चल बसे! माँ अक्सर बीमार रहती हैं….चार बहने हैं….सबका खाना खुराकी, विवाह- शादी……!” उदय ने अपने दर्द पीकर मुस्कुराया।

मुझे याद आने लगा अपना समय! जब मैं बी. ए. आनर्स की पढ़ाई कर रहा था। काॅलेज घर से कोसों दूर था। वहाँ रोज जाना संभव न था और न ही वहाँ रहने- खाने का इंतजाम था। गरीबी इतनी थी कि दिन भर खटने के बाद भी परिवार का पेट नहीं भरता! पिताजी के साथ मुझे दिनभर मजदूरी पर जाना पड़ता था और रात को पढ़ाई करनी थी…..!

अभाग्य से उसी समय कालेज में फरमान जारी किया गया कि जिसकी उपस्थिति 75% से कम होगी, उसे फार्म भरने नहीं दिया जाएगा।

मुझे फार्म नहीं भरने दिया गया! मैंने स्वयं पढ़कर परीक्षा की पूरी तैयारी की थी। मैं बार-बार निवेदन करता रहा, लेकिन सभी पत्थर बने रहे! एक देहाती फटेहाल की बात कौन सुनता! मैं वहाँ से रो कर घर लौट आया! मुझ पर किसी ने विचार नहीं किया। अगली बार प्रिसिंपल बदल गये…..व्यवस्था बदल गई। मैंने फार्म भरा और परिणाम आने पर सबको पीछे छोड़ दिया।मेरे शिक्षकों को समझ आया कि वे लोग भी ठीक – ठाक पढ़ते हैं, जो मजबूरी वश वर्ग में उपस्थित नहीं हो पाते हैं!

मैंने उदय को एक बार पुन: करुण दृष्टि से देखा!

काश! उस समय उन दस – बारह बच्चों से वर्ग नहीं आने का कारण पूछा गया होता…..!

काश! उन्हें परीक्षा में सम्मिलित होने का अवसर दिया गया होता…..!

तो शायद उनमें से कई मेरे ही तरह होते…..!

सच में, मैं फिर से उदय की ओर न देख सका…..मेरी आँखें भर आईं!

-“सर! मिर्च ज्यादा तीखी है क्या….!” उदय ने मुझसे पूछा।

बिना उनकी ओर देखे, स्वीकृति में मैंने अपना सिर हिला दिया…..!

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