मर्दानी

– “क्या नाम है?”

– “दुलारी देवी।”

– “पति का नाम?”

– “स्वर्गीय किसुन राय?

– “वार्ड नंबर ?”

– “बारह।”

– “कितना खेत दहाया है?”

– “दो बिगहा सात कट्ठा सरकार।”

– “रसीद कटवाती है?” मुंशी जी ने चश्मे के ऊपर से उसे देखा। सफेद वस्त्र में लिपटी हुई एक दुखियारी अधेड़ स्त्री निरीह भाव से उनके सामने खड़ी थी। उसके गेहुंए रंग काले पड़ गये थे।

– “झूठ बोलती है जनानी।” पीछे से कतार में खड़े चानो यादव ने अपना टांग अड़ाया, “इसके पास पाँच-सात कट्ठा जमीन बची है सर। रसीद मांगिये।”

पता नहीं, चानो यादव उनसे किस जन्म का खुन्नस निकाल रहा था। विपत्ति की घड़ी में जब अपने भी मुँह फेर लेते हैं, तो चानो से वह क्या आस रखती। आज अंजू के बाप होते तो…….! आँचल से आँखें पोछने लगी दुलारी!

“रसीद नहीं है सरकार, लेकिन हमारे पास दो बिगहा सात कट्ठा खेत है?” अंजू के माथे पर हाथ रख दी वह, “डेढ़ बिगहा खेत कोसी के पेट में समा गया सरकार। घर-घरारी सब बह गया…..उसके साथ अंजू के बाप……!” बुक्का पार कर रोने लगी दुलारी।

अंजू बोरे को फेंककर माँ को संभालने लगी। दुखों का पहाड़ टूटा था उन पर! लेकिन यहाँ कोई सुनने वाला नहीं था। कतार में खड़े लोगों की आँखें माँ-बेटी जम गयीं।

“नाटक बंद करो यहाँ, जाओ रसीद लेकर आओ। तब मिलेंगे पैसे और अनाज।” सिपाही ने उसे कतार से बाहर कर दिया।

“हमारी तो जिंदगी ही उजड़ गयी सरकार…..खेत को कौन पूछता है?” दुलारी अपना दुखरा सुनाने लगी, “कोसी बांध पर झोपड़ी बनाकर रहते हैं!”

मुंशी जी को इतनी फुर्सत कहाँ? उनकी आँखें फिर बही- खाते में धँस गयीं -“चानो यादव..?”

-“जी सरकार।”

किरतपुर ब्लाॅक पर लोगों की जबरदस्त भीड़ लगी थीं। किसान, मजदूर से लेकर जमींदार तक लाईन में खड़े थे।सबको पर बीघा दो हजार रूपए और एक क्विंटल अनाज दिये जा रहे थे। दहनाली का मुआवजा अगस्त-सितंबर के बजाय जनवरी में मिल रहा था, फिर भी सबके चेहरे खिल रहे थे। किसान खुश थे कि गेहूँ और मकई की फसल के लिए खाद और पानी का इंतजाम हो गया। उनके मन में हरे-भरे खेत नाच रहे थे। रब्बी की फसल अच्छी हो गयी तो सब दु:ख दूर हो जाएगा। इस बार मौसम ने दगा दिया। मूँग की फसल भी मारी गयी। अप्रैल-मई महीने में धूप के तेज होने से जनजीवन अस्त-व्यस्त था, पर किसान बेहद खुश थे। मूँग के लिए यही अनुकूल मौसम है। मूँग कचकचा कर फला था। लेकिन मई के अंत में चार दिनों तक आंधी-पानी…. सत्यानाश कर दिया। किसानों की उम्मीदों पर पानी फिर गया। किन्तु अच्छी बारिश होने से धान की फसल लहलहा उठी, पर डायन कोसी सब बहाकर ले गई!

दुलारी की आँखें सावन-भादव के मेघ की भाँति लगातार बरस रही थीं। अंजू माँ को संभालने की नाकाम कोशिश कर रही थी। दो क्विंटल अनाज और चार हजार रूपये पाने की उम्मीद लेकर यहाँ माँ-बेटी सुबह से बैठी थी! मिल जाता तो कुछ दिन का समय कट जाता। उसका धैर्य जवाब दे गया था। चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा……!

‘मुझे माफ कर देना अंजू की माई! बाल-बच्चे का ध्यान रखना…..हिम्मत न हारना……!’ अंजू के बाप का एक-एक शब्द उसके कलेजे को बरछी की भाँति बेध रहा था। कोसी के गर्भ में इतना कहकर समा गया था वह। अब किसके सहारे वह धैरज धरे? कौन है उसका सहारा? विपत्ति के समय में पकी मछली भी पानी में तैर जाती है!

उस दिन खेत से लौटने पर कितना दु:खी था किसुन! कहने लगा- ‘ अंजू की माई, लगता है हराही बाध पूरा समा जाएगा कोसी में! अपना दसकठवा खेत तो अब आधा बचा है!

दुलारी गंभराये धान को काटकर लौटी थी। उसके माथे पर धान का बोझ किसी प्रियजन की लाश के समान भारी लग रहा था। बड़े मनोयोग से कमठौनी की थी माँ बेटी ने। समय से बारिश होती गयी, जिससे धान पूरी तरह पल गया था। एक-एक जड़ से दर्जनों कोपलें निकल आयी थीं। चारों ओर धान की हरियाली के सिवा दूर-दूर तक कुछ न सूझता था। लेकिन कोसी मैया कुपित थी। सर्वनाश……

-“कसुन भाय, लगता है इस बार कोसी फिर सर्वनाश करेगी?” सरयुग ने दुखी होकर पूछा। वह भी पति-पत्नी अपने खेत के गंभराए धान को काट रहे थे। सरयुग उसका लंगोटिया ‘मीत’ था। जीवन के कई संदर्भ दोनों के जुड़े हुए थे। घर- गृहस्थी और खेती-पथारी से लेकर पंजाब जाने तक में दोनों साथ रहते थे। -“माता की जो मरजी!” किसुन ने मानो रोकर जवाब दिया।

नदी में फिर करीब सात-आठ हाथ का रादा धराम से गिरा। ऊफनता हुआ पानी बीस हाथ ऊपर तक गया और वहाँ से गिर कर फिर धारा में समा गया। उसने अपना कलेजा थाम लिया। हाथ तेजी से चल रहे थे। जब तक वे चार डेग फसल काटते, उससे पहले ही आगे दरारें पड़ जाती थीं। दरारें पड़ती गयीं। धान कटते गये। साथ में कटते और बहते गये उसके सपने! दरारें जमीन में नहीं, उनके कलेजे में पड़ रही थीं। इसी खेत के भरोसे वह पंजाब को तिलांजलि दे आया था। अपने परिवार के साथ आधे पेट खाकर वह खुश था। अंजू की माई कहती थी – परदेस का भरोसा कब तक? अवस्था गिरने पर इसी खेत का आसरा होगा……

खेत का कोसी में समा जाना कोई नयी घटना नहीं थी उनके लिए। हर दस -बारह साल पर जमीन समा जाती है कोशी में! वह अपनी धारा बदलती रहती है। बड़े किसान को तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि एक कोना दहाने-भसने से वह गरीब नहीं हो जाता, परंतु छोटे किसान तो बह जाते हैं उसी के साथ! करीब बारह साल पहले भी उसकी जमीन, घर-द्वार…..सब बह गया था कोसी में! तभी से वह पंजाब खटने लगा। वह तीन साल पहले लौटा था पंजाब से। दुलारी ने फोन पर बताया कि अपना पूरा खेत जाग गया है। माता कोशी ने अपनी धारा बदल दी है। लोग अपने-अपने खेत जोत रहे हैं। जल्दी से गाड़ी पकड़ लीजिए। मकई रोपनी का ‘तड़क’ है।

“नेपाल लगातार बरस रहा है किसुन भाय!” सरयुग ने हाथ रोककर कहा, “पछुआ हवा बह रही है। हिमालय का कलेजा पिघल रहा है। सुनते हैं भीम बराज से पानी छोड़ दिया गया है। वह पानी कल तक बजरेगा (उतरेगा)।जमालपुर के सामने बांध में कटाव लगा है। रात भर सोते नहीं हैं भीतर के लोग। सर्वनाश करेगी कोसी! फिर पंजाब का आसरा……..”

पंजाब के नाम पर चिढ़ जाता है किसुन! दिन-रात खटते रहो, बाल-बच्चे को त्यागकर! और सारा माल ठीकेदार पीट लेता है। मजदूर एड़ी-चोटी का पसीना एक कर अपने परिवार का पेट नहीं भर पाता और ठीकेदार-नंबरदार दो साल में कोठा पीट लेता है। उसके सामने चानों यादव का चेहरा नाचने लगा। चानो उसका ठीकेदार था, जो हर साल बीसों मजदूर को अपने खर्चे पर बहला- फुसलाकर ले जाता है और उसके पसीने की कमाई पर हाथ मारता है। वह हर साल दस कट्ठा जमीन खरीदता है। कोठे पर कोठा पीट रहा है। साथ में सूद-ब्याज का कारोबार। दसटकया ब्याज…. सूद का सूद जोड़ता है बेईमान! किसुन पाँच मजदूरों को लेकर खुद जमींदार से बात करके खटने लगा था। उसे लगा था कि वह चानों के महाजाल से उसे मुक्ति मिल गयी है। लेकिन उसे कहाँ पता था कि ऐसे निरीह कामगारों का श्रम लूटने के लिए सब जाल बिछाए रहते हैं। यह सब उसे तब मालूम हुआ, जब जमीन मालक ने ही उसकी मजदूरी मार ली। विरोध करने पर वह बोला, ‘साला भागता है यहाँ से कि नहीं। बिहारी भिखमंगे कहीं के!’ तब से पंजाब के नाम पर घीन आती है उसे। उसने पंजाब को आखिर बार सलाम कर लिया था। इतनी मेहनत कोई अपने खेत में करे तो सोना उगलेगी यहाँ की धरती। बिहार की सूरत बदल जाएगी। “खेत बह गया तो बटाई खेती करेंगे। जोड़ी भर बैल है न , क्या दिक्कत है! लेकिन पंजाब…..पंजाब को तीन बार परणाम करते हैं।” उसने सरयुग को बेलाग जवाब दिया।

पछुआ हवा बहती गई…. तेज…. और तेज। हिमालय का कलेजा पिघलता गया। नदी हाथियों की झुंड की तरह चिंघारती हुई तांडव करने लगी। पंडित जी ने ठीक ही कहा था। अबकी हाथी पर सवार होकर आएगी कोसी। सत्यानाश करेगी।खेत समाते गये कोसी के गर्भ में। गाँव के पूरबी छोर पर कटनिया लगी है। जगेसर मंडल, धनपत ठाकुर, सजन मलाह सबका घर-द्वार बह गया! बाबा डिहबार भी मंदिर समेत नदी में समा गये। अब कुर्मी टोले में कटाव……भीतर से बाहर तक काँप गया किसुन!

बाढ़! बाढ़!! बाढ़!!!

बाढ़ आ गयी।

धरती चारों तरफ जलमग्न!

पानी…. पानी…..पानी……कटाव।

कुर्मी टोला नदी में…. कोसी का भयंकर तांडव।

आर्तनाद…….त्राहिमाम……….

सब भाग रहे हैं! रासन-पानी, बक्सा-पेटी, माल-जाल लेकर….जान है तो जहान है। तरवारा बांध पर पैर रखने की जगह नहीं है। आदमी से लेकर माल-जाल सबका यही एक आसरा है। कई जगह बांध में कटाव जारी है। विभागीय अधिकारी परेशान हैं। ऊपर के अधिकारियों और मंत्रियों की धमकी….’बांध टूटा तो नपेंगे अधिकारी’। एक्यूटिव इंजीनियर और एसडीओ के पसीने छूट रहे हैं। लगातार कैरेटिंग जारी है। मजदूर दिन-रात खट रहे हैं। बबूल का पेड़ काटकर डाल रहे हैं। बोरियों में बालू -ईंट भरकर तार के जाल में डाल रहे हैं। लेकिन सब समाता जा रहा है कोशी के गर्भ में। अपनी गति से बढ़ती जा रही है वह भीषण अट्ठहास करती हुई!

किसुन नाव मांगने गये थे, जगेसर मलाह से। अभी तक नहीं लौटे। सुबह से दोपहर हो गया। दुलारी और अंजू अनाज को बोरियों में भरकर बैठी थी। मंगल भूसे का अंतिम फलिया भरकर बांध रहा था। सबके भूख-प्यास मर गये थे! दोनों बैल पगहा तोड़ने पर ऊतारू थे। भैंस सारी परिस्थिति से अनजान बनी हुई जुगाली कर रही थी। वह गाभिन थी। अंतिम महीना चल रहा था। इस पर समधी की नजर कब से गड़ी है। अब भैस के साथ ही अंजू की बिदाई होगी। गछे हैं तो देना ही पड़ेगा। अंजू की शादी को तीन साल हो गये। पति दिल्ली रहकर डायरी में गाय दूहता है। बाप का सच्चा सपूत। भैस नहीं तो बिदाई नहीं…

किसुन और मंगल नाव से तीन खेप में सबकुछ बांध पर रख आए। अंजू वहीं बैठकर चौकीदारी करने लगी। अब दोनों बैलों तथा भैस को पार उतारना था। वे लोग जब तक लौटे, तब तक भूसा-घर जल समाधि ले चुका था। कटाव अब दालान मे लगा था। वह पहले दोनों बैलों को पार किया, चूँकि बैलों में अधिक घबराहट थी। अब वे भैस को लेने आए थे। नाव छोटी थी इसलिए भारी-भरकम भैस को नाव के साथ तैरकर जाना था। किसुन ने जोर से पगड़ी बांधी और भैस का पूछ पकड़कर धारा के साथ होड़ लगाने लगा। मंगल नाव खे रहा था। दुलारी पतवार चला रही थी। बांध की दूरी एक मील। लगातार कटाव के कारण नदी विकराल होती जा रही थी। उसकी चौड़ाई चौगुनी हो गयी थी। भैस विशालकाय शरीर के बावजूद भी धारा को चीरती हुई आगे बढ़ रही थी। पार करना उसके लिए कठिन नहीं था। लेकिन तभी जलकुंभी का एक पहाड़ उसके साथ हो लिया। भैस का दम फूलने लगा। अभी वे बीच नदी में आए थे। नाव भी दिशाहीन हो गयी।

“भैस की रस्सी छोड़ दो अंजू की माई।” किसुन चिल्लाया। उसने रस्सी छोड़ दिया। नाव जलकुंभी के घेरे से बाहर हो गयी। लेकिन भैस चारों तरफ से घिर गयी थी। वह उससे मुक्त होने के लिए पूरी ताकत लगा रही थी, लेकिन नदी की तेज धारा उसे लिए जा रही थी।

“चल बेट्टा हम हैं पीठ पर!” किसुन ने लिलकारी दिया।वह एक बार पीछे मुड़कर किसुन को देखी। एक गहन आत्मीयता थी दोनों में। चार साल पहले कितनी छोटी थी वह, जब किसुन उसे ससुराल से लेकर आया था। ‘डकहा’ रोग के कारण उसकी माँ चल बसी थी। पशुओं के लिए कहर आन पड़ी थी। उसके ससुर ने इसका पगहा किसुन के हाथ में थमा दिया था। मर्जी हो तो पाल लेना, न मर्जी हो तो बेच देना किसी कसाई के हाथ……यहाँ रह गयी तो बचेगी नहीं! दोनों को एक-दूसरे पर अटूट विश्वास था। “नांगर (पूँछ) को जोर से पकड़े रहना अंजू के बाबू।” दुलारी चिल्लायी।

भैस पूरी शक्ति लगा रही थी। तभी पानी के परत पर खून की एक परत उभरने लगी। किसुन को समझते देर न लगी कि भैस को ग्राह ने अपने कब्जे में कर लिया है। वह अंतिम बार किसुन को मुड़कर देखी। मानो, अब उनसे बिदाई मांग रही हो। किसुन ने फिर लिलकारी भरने की कोशिश की। लेकिन तब तक भैस जल समाधि ले चुकी थी। उसकी पूँछ एक झटके के साथ हाथ से छूट गयी। दुलारी छाती पीटने लगी।

“हमें माफ कर देना अंजू की माई! धैरज रखना….. हिम्मत न हारना!” जलकुंभी के पहाड़ों के बीच से आवाज आयी थी। रात भर सो नहीं पायी दुलारी। चानों ने तो ठीक ही कहा था। झूठ बोलती है जनानी। पाँच-सात कट्ठा खेत है इसके पास। बांध पर किनारे झोपड़ी बनाकर रहती है यह। दाने-दाने को तरस रहे थे वे। दोनों बैलों को खोलकर ले गये चानों यादव। अंजू की शादी में उनसे दस हजार रूपया कर्ज लिया था। दस हजार अब पैंतीस हजार हो चुका था। पंचों ने बैलों का दाम बीस हजार निर्धारित किये। मतलब अब भी उस पर पन्द्रह हजार का बकाया……वह कई बार मंगल को पंजाब ले जाने की कोशिश की, ताकि बाकी का रकम बसूला जा सके। उसने कई बार दुलारी को समझाने की कोशिश की थी। मंगल पंजाब खटने लगेगा तो संकट की घड़ी टल जाएगी। परिवार में खुशहाली लौट आएगी….. अभी पंजाब में धनरोपनी का ‘तड़क’ है।

चानो यादव जब भी मंगल को पंजाब ले जाने की बात करता है। दुलारी कलेजे से साट लेती है बेटे को! अभी तो पन्द्रह साल का हुआ है मंगल। पंजाब की खटनी में कैसे ठठेगा? धनरोपनी और कटनी में कलेजा टूट जाता है!

संकट की इस घड़ी में समधी पिछले सप्ताह धमकी दे गये थे। ‘भैस मर गयी तो क्या, हमें जमीन बेचकर पचास हजार रूपये दो, भैस का पूरा दाम……नहीं तो गौना नहीं होगा! हम बेटे का बियाह कहीं और कर देंगे। फिर झाल बजाते रहना माँ-बेटी, बांध पर बैठकर।’

सूरज उगने तक आधे खेत को कुदाली से कोर चुकी थी दुलारी। अब यही पचकठवा खेत उसकी संपत्ति थी। उसका भरोसा सब पर से उठ चुका था। किसुन का एक-एक शब्द उसकी शक्ति बन गयी। सूरज की प्रथम किरणें उसके पोर-पोर में समा गयी। अब उसके भीतर प्रकाश था….केवल प्रकाश। माँ-बेटी ने खेत मे ही डेरा जमा दिया। कुछ ही दिनों में समूचे खेत में फूट-तरबूज और परबल की फसलें लहराने लगीं। थोक खरीदार खेत से ही माल उठाना शुरू कर दिया। अब उसके पास पैसे का अभाव नहीं रहा।

एक दिन मंगल सुबह-सुबह नाचता हुआ घर आया – “माँ अपना पूरा का पूरा खेत जाग गया है। सरयुग काका कह रहे थे कि मकई की जबरदस्त फसल होगी उसमें।”

दुलारी का मन खेत को वापस पाकर खिल उठा। वह फिर बैलों को वापस ले आयी चानो का बकाया देकर। अब सुबह से लेकर शाम तक खेत में लगे रहते माँ-बेटी और मंगल। गाँव में हल्ला था कि दुलरिया रात में खुद हल जोतती है…… बीज बोती है। वह जनानी नहीं ‘मर्दानी’ है।

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