अछूत की शिकायत : दलित दंश की मार्मिक अभिव्यक्ति

भारतीय समाज की आभिजात्यवादी परंपरा के खिलाफ लोक-परंपरा का शंखनाद निरंतर जारी रहा है। वर्ण-भेद की मानसिकता के खिलाफ विद्रोह, इसका सबसे प्रखर रूप है। वर्ण-भेद के कारण ही हमारे देश में मुखस्य तथा पदस्य संस्कृति का विकास हुआ। ‘ऋग्वेद’ के प्रक्षिप्त अंश ‘पुरुष-सूक्त’ के अनुसार ‘ब्राह्मण’ ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न हुआ और ‘शूद्र’ उनके चरण से! मुख से उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण पवित्र माने गये और वे उछलकर वर्ण-व्यवस्था के शीर्ष पर स्थित हो गये। समाज में उनकी पूजा होने लगी, लेकिन चरण से उत्पन्न शूद्र को सबसे निकृष्ट, उपेक्षित और अस्पृश्य माना गया। शूद्रों को हाशिए का जीवन जीने के लिए अभिशप्त होना पड़ा! कालांतर में इस विभाजन के केन्द्र में कर्म या श्रम- सिद्धांत नहीं रह गया। वरन् वर्णों के बीच अभेद्य दीवार खड़ी कर दी गयी, ताकि सवर्णों की जातीय शुचिता बरकरार रह सके। वर्ण और जाति की इसी शुचिता से च्युत शूद्र अपनी अस्मिता की खोज करने लगे। यह खोज निरंतर जारी रहा…..।

अस्मिता की इसी खोज की एक कड़ी है- हीरा डोम की एक मात्र उपलब्ध कविता -‘अछूत की शिकायत’। यह कविता हिन्दी की बोली भोजपुरी में लिखी गयी। ‘अछूत की शिकायत’ में हीरा डोम ने दलित जीवन के दु:ख, अवसाद और पीड़ा को गहराई से अभिव्यक्त किया गया है। इस कविता के भाव, इसकी बनावट- बुनावट, सशक्त कथ्य और मजे हुए शिल्प को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि कवि ने एक ही कविता लिखी होगी। इस कविता को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका रचनाकार कितना कुशल कवि और सधा हुआ कलाकार है! लोकधुन की लय, प्रवाह, छन्द, यति, गति और तुकों की मिलावट का ऐसा संयोजन कोई कुशल कवि ही कर सकता है। निश्चय ही हीरा डोम अपने जमाने के अत्यंत सशक्त और कुशल कवि रहे होंगे, जिसकी सुधि तत्कालीन साहित्य में नहीं ली गई। खैर, भला हो महावीर प्रसाद द्विवेदी का, जिन्होंने यह कविता सन् 1914 ई. में ‘सरस्वती’ के सितम्बर अंक में प्रकाशित की थी। फिर यह एक कविता ही हीरा डोम का इतिहास बन गयी। इसमें, भारतीय समाज, खासकर हिन्दू समाज से हीरा डोम ने अछूतों की दुर्दशा की शिकायत की है। वह भी अत्यंत कातर स्वर में! हीरा डोम ने दलितों की दीन-हीन दशा का हाल सुनाया है। इसमें वर्णित यथार्थ भारतीय समाज में दलित जीवन का नंगा यथार्थ है। कवि का मंतव्य है कि हम गरीब सदियों से जातिगत भेदभाव और छुआछूत का दंश झेल रहे हैं। हमारे दु:ख-दर्द को कोई सुननेवाला या हरने वाला नहीं है! यहाँ तक कि भगवान भी हमारी दुर्दशा पर करुणाद्र नहीं होते! वर्ण-सत्ता, वर्ग-सत्ता, राज सत्ता तथा धर्म-सत्ता को एक साथ कटघरे में खड़ा करती हुई यह कविता मुख्य धारा के तमा वैचारिक मान्यताओं के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज कराती है। यह कविता अछूतों की स्वानुभूत पीड़ा की मार्मिक एवं यथार्थपूर्ण अभिव्यक्ति है। कवि ने अपने भोगे हुए जीवन -सत्य को कविता का विषय बनाया है। कविता आकार की दृष्टि से छोटी है, परंतु उसका कथ्य और प्रभाव महाकाव्यात्मक औदात्य से संपन्न है। कविता ‘अछूत की शिकायत’ का शीर्षक बेहद सटीक और सार्थक है। कवि स्वयं अछूत हैं, जो आभिजात्य वर्गों की बहुआयामी सत्ता के समक्ष अपनी शिकायत दर्ज करता है। कविता में कुल पाँच पड़ाव हैं, जिनके माध्यम से अलग-अगल तरह की शिकायतें दर्ज कराई गयी हैं। इन शिकायतों को क्रमश: निम्नलिखित संदर्भों में देखा जा सकता है : –

(1) हिन्दू – समाज से शिकायत :

भारतीय वर्ण-व्यवस्था में शूद्रों को अछूत कहकर संबोधित किया गया है! जिन पर समाज ने अस्पृश्यता का आरोप लगाया! जिन्हें संविधान में अनुसूचित जाति कहा गया! जिन्हें निकृष्टतम कार्य करने के लिए बाध्य किया गया! जिन्हें स्वतंत्र रोजगार करने की छूट नहीं दी गयी! साथ ही अछूतों की सबसे बड़ी समस्या यह रही कि उन्हें हिन्दू कहा गया, परंतु हिन्दू के रूप में उन्हें सम्मान नहीं दिया गया! जब अंबेडकर जैसे समर्थ व्यक्ति को हिन्दुत्व का शिकार होना पड़ा तो आम दलितों की क्या बात की जाए! बावजूद इसके कवि अपने धर्म का परित्याग करना नहीं चाहता। वह विधर्मी होकर जीना नहीं चाहता! वह हिन्दू धर्म के प्रति अनास्था का समर्थन नहीं करता है। यह कविता वर्तमान में धर्म- परिवर्तन कर रहे दलितों के लिए प्रासंगिक है। चूँकि कविता धार्मिक पलायन का निषेध करती है। उन्हें बखूबी पता है कि धर्म का परित्याग या धर्म-परिवर्तन समाधान नहीं है। चूँकि सभी धर्मों में कमोबेश अछूतों के प्रति ऐसा ही भाव है। वह समय था, जब ईसाई मिशनरियों द्वारा लोकलुभावन घोषणाएँ करके तथा अन्य धर्मों की खामियों को समझाकर लोगों को ईसाई बनाने का महिम चल रही थी। ऐसे समय में कवि प्रतिरोध के स्वर में कहता है-

“बे-धरम होकर रंगरेज बनि जाइबि।

हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे,

बे-धरम होके कैसे मुंखबा दिखाइबि।।”

कविता के इस पड़ाव में कवि धर्मगत अस्मिता को खोने के विरोधी नजर आते हैं। जो उनकी संघर्ष चेतना का परिचायक है। वह हिन्दुत्व का परित्याग करने के बजाय, परिष्कार की चेनता जगाता है।

(2) ईश्वर के प्रति शिकायत :

ईश्वर के प्रति आस्था भारतीय संस्कृति की विशेषता है। सभी मनुष्य परमात्मा के संतान हैं, लेकिन अगर ईश्वर समदर्शी नहीं हों तो शिकायत असंगत नहीं है। यहाँ कवि की शिकायत है कि ‘ईश्वर भी उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर समय पड़ने पर अपने भक्तों के मान- सम्मान की रक्षा करते हैं। यथा – वे खंभे से प्रकट होकर प्रह्लाद को बचाते हैं तथा ग्राह के मुख से गज को। वे द्रोपदी की मान की रक्षा करते हैं। वे रावण का वध करके विभीषण का राज्याभिषेक करते हैं। वे अपनी कनिष्ठा अँगुली पर गोवर्द्धन उठाकर ब्रजवासियों की रक्षा करते हैं। लेकिन उनकी दुरवस्था को देखकर वे दया नहीं करते! शायद उन्हें भी डोम से छुए जाने का भय होता है। अतएव, कवि ईश्वर से शिकायत करता है-

“कहवां सुतल बाटे सुनत न वारे अब,

डोम जानि हमनी के छुए से डेरइले।।”

यह अलग सवाल है कि इस कविता दलित प्रतिरोध का स्वर मुखर नहीं हो पाता है, लेकिन कवि शिकायत करने में कोई कोताही नहीं करते।

(3) अर्थतंत्र से शिकायत :

भारत का अर्थतंत्र दोषपूर्ण है। यहाँ दिन-रात काम करने वाले भुखमरी के शिकार होते हैं और आराम फरमाने वाले मौज करते हैं। बिहार में एक कहावत प्रसिद्ध है कि ‘कमाएगा लंगोटी वाला और खाएगा धोती वाला।’ दरअसल हो यही रहा है। ऐसे शोषणकारी श्रमतंत्र से हीरा डोम शिकायत के स्वर में कहते हैं कि ‘वह दो रुपया पाने के लिए दिन-रात मेहनत करता है। और ठाकुर लोग आराम से सोया रहता है। वह उनका खेत जोतता है, उनकी बेगारी करता है। फिर भी लोग उनसे काम कराते वक्त भरपेट भोजन भी नहीं देते! अपना मुँह बांधकर वह कब तक खट सकता है। कवि ईश्वर से अपनी स्थिति बयां करता है –

“मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानी,

ई कुलि खबर सरकार के सुनाइबि।।”

(4) श्रमतंत्र का विरोध और नैतिकता पर प्रश्न :-

सर्वविदित है कि समाज का वर्णों में विभाजन वस्तुत: श्रम विभाजन था, जो कालांतर में सामाजिक स्तरीकरण में तब्दील हो गया। कवि श्रम-विभाजन की महत्ता को स्वीकार करते हुए श्रम- संक्रमण का निषेध करते हैं। वह ब्राह्मणों की भाँति भीख मांगना नहीं चाहता। न ही ठाकुर की तरह तलवार चलाना चाहता है। साहु की तरह डंडी मारना भी उन्हें स्वीकार्य नहीं। अहीरों की तरह गाय चुराना तथा भट्ट कवियों की भांति कवित्त बनाकर सम्मान अर्जित करना अथवा पगड़ी बांधकर कचहरी जाना भी उन्हें पसंद नहीं है। उन्हें अपने मेहनत पर अटूट विश्वास है। वह पसीने की कमाई को अपने परिजनों में बाँटकर खाना चाहता है-

“अपने पसीनवा के पैसा कमाइब जां,

घर भरि मिली-जुली बांटि-चोंटि खाइबि।।”

(5) जातीय विषमता के प्रति शिकायत :-

भारतीय समाज में यह धारणा प्रचलित है कि ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से तथा शूद्रों की उत्पत्ति पैर से हुई है। इसलिए यहाँ मुखस्य संस्कृति तथा पदस्य संस्कृति में टकराहट जारी है। कवि की शिकायत है कि हम सब का शरीर एक तरह के हाड़ -मांस से निर्मित है। फिर भी ब्राह्मणों की घर-घर में पूजा होती है और वह इनार का पानी भी पीने को स्वतंत्र नहीं है। मजबूरी में पांक (कीचड़) को हटाकर उन्हें पानी पीना पड़ता है। उनसे थोड़ी भी गलती हो जाती है तो ये लोग जूते -चप्पलों से पीट-पीटकर उसका हाथ-पैर तोड़ देते हैं। आखिरकार हम अछूतों के साथ ये ऐसा क्यों करते हैं! कवि कातर स्वर में कहता है-

“पनहीं से पिटि-पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,

हमनी के एतनी काही के हलकानी?”

कुल मिलाकर ‘अछूत की शिकायत’ दलित दंश की मार्मिक अभिव्यक्ति है, जो अपने मूल्यांकन के लिए पृथक् सौंदर्यशास्त्र की मांग करती है। यह कविता ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’, ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ तथा ‘रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्द: काव्यम्’ जैसी आभिजात्यवादी साहित्यिक अवधारणाओं को खारिज करती है। चूँकि यह कविता आनंद या मनोरंजन के लिए नहीं लिखी गई। इसका रचनात्मक उद्देश्य है- ‘दलित- पीड़ा की यथार्थपूर्ण अभिव्यक्ति। इसका उद्देश्य है -विषमता के खिलाफ समता, स्वतंत्रता और बंधुता की मांग। इसका उद्देश्य है – शोषण और अपमान मुक्त राज और समाज की स्थापना……..!

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