बुचिया डायन नहीं थी……

‘नहीं बचेगी किरण!’ तलबे का जहर मगज पर चढ़ता है और मगज का जहर तलबे तक! उसे विषधर ने काटा है!बरसात की इस रात में ठंडी-ठंडी बरसाती हवा बह रही है, लेकिन महेसर के माथे पर पसीना चुहचुहा रहा है। वह घंटे भर से झाड़-फूँक में लगा है, पर किरण की स्थिति बिगड़ती ही जा रही है। यह काल विकराल रात्रि है जगदीश के लिए! आज परीक्षा है महेसर की। पूरे गाँव के लोग तमाशा देख रहे हैं। महिलाएँ एक- दूसरे के कानों से मुँह सटाकर फुसफुसा रही हैं –

– यह उसी डायन जीबछी की करतूत है सब!

– हकल डाइन है जीबछी! जवानी में पति को खा गयी और बुढ़ापे में बेटे-बहू को! पेट नहीं भरा है अबतक!

– किसी दिन सुनना कि वह अपनी पोती को भी चट कर गयी! – आफत है वह इस गाँव के लिए, सबको खाकर दम लेगी बेटखौकी……..सैखौकी।

माँ का हाल बुरा था! बाप की हालत पस्त! कहाँ ले जाएँ? क्या करें इस अंधेरी रात में….? सावन – भादव की अंधेरी रात। बादल से स्याह आकाश……रह-रह कर पानी टपक रहा है! बिजलियाँ चमक रही हैं। हाथ को हाथ नहीं सूझता। यहाँ से किरतपुर चार कोस! बीच में बहती कोशी की विकराल धारा….! अपना माथा पीट लिया जगदीश ने।

दिबरा वाली को दिलासा दे रही हैं महिलाएँ- बाबू को कुछ नहीं होगा दिदिया। तुमने किसका क्या बिगाड़ा है जो….. महेसर भगत के रहते बाल बांका नहीं होगा……!

महेसर पर अटूट भरोसा है सबका। उसके रहते कभी अंधेर नहीं हो सकता। वही तो है जो कवच बनकर इस गाँव की रक्षा कर रहा है। नहीं तो जीबछी अबतक सबको खाकर बैठ गयी होती। इस गाँव में किसी को कुत्ता काटे या साँप, किसी के माथे में दर्द हो या पेट दर्द , किसी को भूत लगे या बच्चे को पछुआ दाबे, किसी को हवा लग जाय या बसात। महेसर के झाड़ -फूंक से सब छूमंतर । आज पहली बार पस्त हो रहा था महेसर! जहर बार- बार माथे पर……

किरण ही प्रकाश है इस घर का। वही बारिस है खानदान का। लाख मन्नतों के बाद कोख हरियाया था दिबरा वाली का। जगदीश बेटी के जन्म पर इलाके भर को न्यौत दिया था। लोग तृप्त होकर दुआएँ दे रहे थे। अखंड राज करेगी बिटिया। कुल – खानदान को तार देगी। राजयोग है इसके भाग में…. राजयोग! इसके बाद दिबरा वाली का कोख फिर बंजर हो गया। अभी तो बारह साल की हुई है किरण…..

“जय भुइयाँ भवानी।” महेसर जोर से चिल्लाया। उसके देह पर भुइयाँ भवानी सवार हो गयी। वह थर-थर काँपने लगा। उनकी आँखों से चिनगारियाँ फूटने लगीं। आरक्त चेहरा…… महिलाएँ हाथ जोड़कर खड़ी हो गयीं। देवी मैया आज छोड़ेगी नहीं जीबछी को! भूज देगी माता। जीबछी स्वाहा…… रौद्र रूप में प्रकट हुई है देवी! सबकी आँखें चमकने लगीं। कल्याण करो देवी। रच्छा करो….गलती -सलती माफ करो। अपने भगत की रच्छा! त्राहिमाम……

महेसर किरण की बाँह पर कौर (बाइट) करता है। सारा विष खींच लेगा वह। उसका कौर कभी खाली नहीं जाता। वह काँप रहा था! किरण ने घरघराते हुए स्वर में कुछ कहा। उसके शब्द अस्पष्ट थे। कुछ मिनट के बाद महेसर चित्त। लोग उसके मुँह पर पानी के छींटे मारने लगे। निश्चेत है महेसर !

किरण ने सबको एक बार देखने की कोशिश की। लेकिन उसे अब कुछ नहीं दिख रहा था। चारों तरफ घनघोर अंधेरा। मुँह से अस्पष्ट शब्द निकला- “माँ”।

फिर कटे पेड़ की भाँति गिर पड़ी किरण! आशा का दीपक बुझ गया! अंधेर हो गया! उधर कुत्ते ने समूह में रोना शुरू किया। आकाश में टिटही टीह-टीह कर शोर मचाने लगे!

पहली बार जीबछी से हारा था महेसर! गाँव वाले का अखंड विश्वास टूक-टूक होकर बिखर गया। अब कौन रक्षक होगा इस गाँव का?

महेसर पूरे गाँव के सामने हाथ जोड़कर खड़ा था। आज निष्काम हो गयी उसकी औझौती।

कोई नहीं सोया उस रात! जैसे जिनकी आँखें खुलीं, दौड़ पड़े जगदीश के घर। डाका पड़ गया! किस जन्म का पाप……..! वह रात, जिसकी कोई सुबह नहीं थी! सभी आकाश की ओर रह -रह कर देख रहे थे। किरण की माँ के रूदन से आकाश फट रहा था। वह रह-रहकर अचेत हो जाती थी! महिलाएँ साथ में बस रो रही थीं! किसी के पास दिलासा के शब्द नहीं थे।

जगदीश बेजान किरण को गोद में समेटे शून्य में देख रहा था। किरण सो रही थी बाप की गोद में! रोज की तरह, पर यह चिरनिद्रा……. धरती घूम रही है। सबकुछ घूम रहा है, पर जगदीश केवल द्रष्टा है आज। सारे सपने ढह रहे उसके भीतर!और उसकी तलहटी में शनै-शनै क्रोधाग्नि सुलग रही है।

जगदीश के भीतर सुलगती क्रोधाग्नि का भयानक विस्फोट हुआ ,जिसमें अहले सुबह धू-धू कर जलने लगा जीबछी का घर -वार सर्वस्व…..।

आज वह भस्म कर देगा सब कुछ। पूरा गाँव उमड़ पड़ा था उसके साथ। जीबछी का घर जल रहा है और सबके कलेजे की आग बुझ रही है। औरतें एक-दूसरे को ठेलकर इस दृश्य को कैद करना चाहती हैं अपनी आँखों में। आज वह वर्षों से लगी कलेजे की आग को बुझा लेना चाहती हैं । भीड़ में घिरी जीबछी आर्तनाद कर रही है, पर भीड़ के कान नहीं होते! लात -घूसों और गालियों की बरसात हो रही है।

जगदीश यादव आज सबकुछ भूल गया है। वह भली -भाँति दूध का करज अदा कर रहा है……सूद समेत!

रत्नेसर उस दिन हाथ जोड़कर खड़ा था जीबछी के आगे, जब सात दिन का दुधमुँहा बालक था जगदीश। माँ उसे जन्म देकर चिरनिद्रा में सो गयी थी! बकरी का दूध पिलाया गया, पर हलक में नहीं अरघता था। केय हो जाता था। धन-धान्य से सम्पन्न रत्नेसर एक मजदूरिन के सामने गिड़गिड़ा रहा था। खानदान का बारिस…..रो पड़ा था रत्नेसर!

ठक्को ने अपनी पत्नी जीबछी को कठकरेजी कहा था उस दिन। फिर तो बरस पड़ी थी जीबछी की आँखें। वह कठकरेजी नहीं हो सकती! जन्म देने से ही कोई माँ नहीं हो जाती। उस अबोध बालक पर दया गयी जीबछी को। उसने एक माह पहले ही डोमी को जन्म दिया था। जगदीश को देखकर उसकी ममता हिलोरें लेने लगीं। उसके भीतर का मातृत्व जाग गया। उसने साट लिया जगदीश को अपने कलेजे से। जगदीश तृप्त था! उसे माँ के बदले माँ मिल गयी। तीन साल तक दूध पिलाती रही वह। मकई की दो रोटी मिलती थी उसे, बदले में। लेकिन आज उसी के प्रतिदान का वक्त था।

बाद में उसी जगदीश के खेत में हरवाही करते हुए लू लगने से ठक्को मरा था। ठक्को उसका पुस्तैनी बंधुआ मजदूर था। तीन सेर मकई मिलता था उसे प्रतिदिन। जीवनभर वह उबर नहीं पाया हरबाही से। ठक्को के मरते ही डायन होने का मोहर लगा जीबछी पर। लोग कहने लगे कि पति का प्राण देकर जीबछी ने मंत्र सिद्ध कर लिया है…..हक्कल डायन। गाछ हाँकती है जीबछी…….. डोमी ने अपने पुस्तैनी धर्म का निर्वाह न किया। वह अन्य मजदूरों के साथ पंजाब कमाने चला गया। सबकुछ ठीक चल रहा था।धनरोपनी के समय ही एक दिन अचानक डोमी घर लौट आया। देह तबे की भाँति जल रहा था। खाँसी दम साधने न दे रहा था। जाँच में टीबी ठहरा। महीने भर में खून की उलटी करते हुए उसका प्राणांत हुआ। उसके पीछे बहू भी चली गई! रह गयी चार साल की बुचिया। इस बार भी बेटे और बहू को खाने का इल्जाम लोगों ने जीबछी पर लगाया। अब जीबछी जिधर भी निकलती घर की खिड़कियाँ और दरबाजे पटापट बंद हो जाते। आग पानी बार दिया लोगों ने। समाज से बहिष्कृत हो गयी जीबछी। बुचिया अब बारह साल की हो गयी थी। वह रोज सुनती कि उसकी दादी डायन है….. दादी डायन है। रात के अंधेरे में अक्सर वह चौंक जाती। दादी के निकले हुए दो दाँत उसे भयभीत करते! रक्त सने दाँत। सामने ईमली का पेड़, जिसे हाँकती है दादी।….. वह एक दिन उसे भी खा जाएगी!

अब उसके साथ कोई बच्चे खेलना नहीं चाहते। उसकी दोस्ती केवल किरण से बची थी। संयोग से दोनों का जन्म एक ही दिन हुआ था। इसलिए दोनों की पक्की दोस्ती थी। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ने जाती थी।

लोग लाख डायन कहे जीबछी को, पर जगदीश को विश्वास नहीं होता। इसलिए वह किरण को कभी उसके घर जाने से मना नहीं करते।

आज उसने स्वयं देख लिया डायन का करतूत।आज शाम दस किलो अनाज मांगने आयी थी जीबछी। शाम का पहर था। दिबरा वाली ने अनाज देने से साफ मना कर दिया। साँझ पहर कौन तराजू पकड़ेगा? जीबछी निराश हो गयी। वह किरण के माथे को हसोतती हुई चली गयी।

रात के ग्यारह बज रहे थे। किरण कुछ ही देर पहले जगदीश की गोद से उतरकर माँ के पास सोने गयी थी कि दिबरा वाली चिल्लायी। बाबू को साँप काट लिया।

जीवछी की चीख़-पुकार रही थी भीड़ के बीच, लेकिन कौन सुनेगा आज? वह भीड़ के साथ दौड़ती जा रही थी…अर्धनग्न! उसकी साड़ी खोल दिये थे किसी ने। पेटी कोट और ब्लाऊज जीर्णता के कारण उसकी नग्नता को ढँकने में असमर्थ था। मनचले कभी उसके चूत्तर पर हाथ फेरता, कभी अंगुली करता तो कभी उसके पर स्तनों पर हाथ डालता। आज उन्हें कौन रोकता?…. कौन टोकता?

जीबछी दौड़ रही थी…चीख रही थी….अपनी रक्षा की गुहार लगा रही थी! लेकिन यहाँ सबकी संवेदना मर गई थी! सबका सब पत्थर…… अब वह पूर्णतः नग्न हो चुकी थी, तभी किसी ने उसपर मिट्टी तेल का गैलन उलट दिया। देखते ही देखते आग की बड़ी-बड़ी लपटें उठने लगीं, जिसके बीच चींखती हुई जीबछी अब भी दौड़ रही थी। इधर-उधर….!

महिलाओं के कलेजे में ठंडक पड़ रही थी। आज मुक्ति मिली रामनगर गाँव को इस डायन से……।

एक भयानक चिराइँध गंध चारों तरफ फैल रहा था। उस गंध के साथ कुत्ते और कौवे टूट पड़े थे। दरअसल, जीबछी का अंतिम संस्कार अब उन्हें ही करना था!

लोग अपने-अपने घरों की ओर लौट रहे थे। सबके चेहरे पर विजय का भाव था! एक अपूर्व आत्मतुष्टि………

जीबछी का सर्वस्व खाक हो चुका था, लेकिन ईमली पेड़ के नीचे कुछ कुत्ते लगातार भौंक रहे थे। क्या है वहाँ? कई आवाजें एक स्वर में निकली। सब एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। लोगों ने वहाँ जाकर देखा तो सबकी आँखें फटी की फटी रह गयीं। वहाँ बुचिया निष्प्राण पड़ी थी! एकदम नग्न! उसके गालों तथा छातियों पर दाँत के अनगिनत निशान पड़े थे। और जांघों के बीच से रक्त की अविरल धारा बह रही थी…..

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