रहना नहीं देश बिराना…..

घर पहुँचते ही भाई ने बताया कि मौलवी साहब नहीं रहे! तीन महीने पहले ही ‘हृदयाघात’ से उनकी मृत्यु हो गयी!

मेरी साँस रूक गयी, कुछ क्षण के लिए। पता नहीं, किस अशुभ मुहूर्त में मैं अपने गाँव आया! सोचा था कि मौलवी साहब से मुलाकात होगी। फिर कितनी बात होगी। मेरा सपना पूरा हो गया, मैं लेक्चरर बन गया। यह जानकर उन्हें कितनी खुशी होगी! पर नसीब में कुछ और ही था! मौलवी साहब को अभी नहीं जाना चाहिए था ! अभी उम्र ही क्या हुई थी उनकी -पचास-पचपन की। जब दिन रात हमलोग ईश्वर से मनाते रहे कि वह मौलवी साहब को उठा ले, तब तो उसने एक न सुनी। और अब जबकि हम हृदय से चाह रहे हैं कि उनको कुछ न हो। उन्हें मेरी उमर लग जाए तो……..ईश्वर ने अच्छा नहीं किया। “सकीना चाची कैसी है…..मुन्नी और मन्नान भाई?” मैंने भाई से पूछा। “अब आ ही गये हैं तो खुद जाकर मिल लीजिएगा कल।” इतना कहकर वह चुपचाप उठ गया वहाँ से। लेकिन मेरे भीतर अनंत प्रश्न उठने लगे। उनके स्कूल का क्या हुआ होगा? क्या मन्नान भाई ने सबकुछ संभाल लिया होगा? क्या वह उसी मनोयोग से पढ़ाता होगा बच्चों को? क्या मुन्नी की शादी मन्नान भाई से हुई होगी? सकीना चाची का गुजारा किस तरह होता होगा? क्या वह अपना आत्म-सम्मान खोकर मुन्नी और मन्नान भाई के आसरे पर जी रही होगी…….?और भी कई अनुत्तरित प्रश्न थे, जिनका उत्तर खोजते हुए पूरी रात बीत गयी। मौलवी साहब से मेरा संबंध तभी से था, जब मैं करीब आठ साल का था। पिताजी अपने कंधे बैठाकर मुझे छोड़ आए थे उनके स्कूल में। स्कूल क्या, जिसमें भेड़- बकरियों की तरह पचासों बच्चे बोरा बिछाए बैठे थे। और आगे-पीछे डोलते हुए सभी कुछ न कुछ रट्टा मार रहे थे। क्या मुस्लिम, क्या हिन्दू, क्या सवर्ण, क्या अवर्ण, इलाके भर के लिए वह इकलौता स्कूल था। मेरी नज़र मौलवी साहब पर पड़ी। पाँच हाथ लंबा और करीब डेढ़ हाथ चौड़ा , श्याम वर्ण का एक विशालकाय आदमी। काली सियाह घनी दाढ़ी और गोल-गोल आँखें। वह मुझे किसी कसाई से कम नहीं लगे थे और उनके सामने सारे बच्चे निरीह मेमने लग रहे थे।

इस कसाई के सामने हमें दिन में दो बार हाजिर होना था। सुबह छह बजे से ग्यारह बजे तक और दोपहर दो बजे से शाम पाँच बजे तक। मन भीतर ही भीतर रो पड़ा। सुख भरे दिन बीते रे भैया………….!

सुबह मकई की बासी रोटी और नमक- मिर्च खाकर जाता तो साढ़े ग्यारह बजे चिलचिलाती धूप में घर वापस आता। फिर डेढ़ बजे जाना होता। गर्मी के दिनों में जमीन तबे की भाँति गरम हो जाती और हमारे पैर में चप्पल- जूते नहीं होते थे। ऐसे में बीच-बीच में किसी पेड़ की छाँव में रूक कर सुस्ता लेने की जरूरत होती। हमारे साथ पढ़ाई करने वाले अधिकांश बच्चे ऐसे ही थे। सबकी जान आफत में थी। मौलवी साहब के पास न कोई हाजिरी बही थी, न हाथ में घड़ी। पर वे समय के पाबंद थे और हमारी हाजिरी उनकी गोल-गोल आँखों में बनती थी। एक दिन कोई बिना छुट्टी लिए नागा कर दे तो अगले दिन बाँस की कई करचियाँ उसके देह पर टूट जातीं। उनके यहाँ सजा के कई प्रावधान थे- जैसे मुर्गे बनाना, कान पकड़कर उठक-बैठक करवाना और सबसे अपमानजनक था कि जब किसी प्रश्न का उत्तर न मिलने पर वे वही प्रश्न किसी जूनियर विद्यार्थी से पूछते थे और अगर वह माकूल उत्तर दे दिया तो फिर उसी के हाथों सबका कान लाल कर दिया जाना।

स्कूल में मेरे कई दोस्त बन गये थे, जिनके साथ पढ़ने और खेलने से लेकर चोरी करने तक की साझेदारी थी।स्कूल हमारे लिए किसी कैदखाने से कम न था, जिसके पहरेदार थे मौलवी साहब। अत्यंत क्रूर! हिंसक! कई बार तो हम समझ भी नहीं पाते कि वे हमें क्यों पीट रहे हैं? गलती कोई भी करे, मार सबको बराबर लगती थी। इस मामले में वे बेहद समदर्शी थे। मार खाने में उनकी एकमात्र सुपुत्री मुन्नी और भतीजा मन्नान भी अपवाद नहीं थे। वह बताती कि अब्बाजान आज घर से अम्मी को पीटकर आए हैं। मतलब यह कि आज हम सबकी पिटाई तय है।

स्कूल ने जीना हराम कर दिया था। स्कूल न जाओ तो घर के लोग पीटते और जाओ तो साला मौलवी….! कई बार मन करता है कूद जाऊँ कोसी की बहती धारा में। कर लूँ जीवन -लीला का अंत। रामबालक भाई ठीक कहते थे कि तुम सबका जीवन नरक है! हमें नहीं बनना पढ़वा बाबू। चैन से खाते हैं और सुबह- शाम गाय चराते हैं। कबड्डी खेलते हैं। गुल्ली-डंडा खेलते हैं। अपने मन के मालिक हैं। हम मचल उठते उनके नसीब पर! हमें ईर्ष्या होती थी उनसे। और तब हम शरापने लगते उधर मौलवी साहब को और इधर अपने चाचा जी को।

चाचा जी तो खुद एक अक्षर नहीं पढ़े थे, पर हमलोगों को विद्वान बनाकर छोड़ने की कसम खा रखे थे। उनके डर से शाम होते ही हम सभी भाई-बहन लालटेन को चौतरफ़ा घेरकर बैठ जाते और खाना बन जाने तक किताब पर टकटकी लगाए रहते। थोड़ी-सी नजर इधर-उधर हुई या जम्हाई आयी तो कान लाल! दादी बताती थी उनके बारे में कि पढ़ने के डर से उन्होंने कई बार आत्महत्या करने की कोशिश की थी। कनैल का फल और अरंडी के पत्ते तक चबाकर निगल गये, पर बाल बाँका न हुआ। अबकी नदी में कूदने की तैयारी कर रहे थे। तब लड़ गयी थी वह दादा जी से- “मेरा लाल अब नहीं पढ़ने जाएगा। जियेगा तो हरवाही-चरवाही करके गुजर काट लेगा।” कर रहे हैं हरवाही-चरवाही आज तक।

मौलवी साहब के कैदखाने में मैं नौ वर्षों तक रहा। वहीं से दसवीं की परीक्षा पास करके निकला। इस बीच मार-मार कर उन्होंने हमारी नींव मजबूत कर दी। ठीक उसी प्रकार जैसे कोई राजमिस्त्री मकान बनाने से पहले नींव को ठोक-पीट कर तैयार करता है। शायद उन्हें पता था कि इसी नींव पर एक भव्य भवन का निर्माण होना है। मौलवी साहब का गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान से लेकर हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी तक पर उनका जबरदस्त अधिकार था। वह अगर किसी विषय से चिढ़ते थे तो वह था-संस्कृत। कहते कि संस्कृत कोई भाषा है। इसका इजाद पंडितों ने कमाने-खाने और लोगों को उल्लू बनाने के लिए किया है।

मौलवी साहब की एक-एक बातें जीवन का पाथेय बनी रहीं, जिन्हें लेकर मैंने यहाँ तक की यात्रा तय की है। वे उस दिन बहुत खुश थे, जिस दिन मैं काॅलेज में अपना नाम लिखाकर घर वापस आया। वे स्वयं मेरे घर तक चलकर आए और भाव- विभोर होकर मुझे गले से लगा लिये। लग रहा था कि जैसे आज वे स्वयं काॅलेज में नामांकन करवा कर आए हैं। मौलवी साहब केवल मैट्रिक पास थे और जीवन भर मैट्रिक तक पढ़ाते रहे। ऐसे योग्य शिक्षक किसी को बहुत नसीब से मिलते हैं।

उनसे मेरी अंतिम मुलाकात सात साल पहले हुई थी। जब मैं हिन्दी विषय में एम. ए. का युनिवर्सिटी टाॅपर होकर गाँव लौटा था। पिताजी के साथ वे स्वयं मेरी आगवानी करने आए। कह रहे थे -“नरेन अब यह गाँव पहले जैसा नहीं रहा। गंदी राजनीति ने समाज को तोड़-फोड़ कर रख दिया है। आए दिन हिन्दू-मुसलमान के दंगे की नौबत आ जाती है। बच्चों में भी जाति-पाँति और धर्म के कीड़े कुलबुलाने लगे हैं। युवक नशाखोरी के शिकार हो रहे हैं। वे गांजा, ताड़ी और अंग्रेजी शराब पीकर लोटते रहते हैं। शरीफ़ लोगों का इज्ज़त बचना मुश्किल है। अच्छा हुआ कि तुम यहाँ से निकल कर शहर में रहने लगे। संस्कार नाम की कोई चीज़ नहीं बची है यहाँ। मैं अब गाँव वालों के लिए मौलवी साहब न रहा…..मियाँ हो गया…. मियाँ !” गला भर आया था उस दिन मौलवी साहब का!

शाम में टहलने के बहाने मैं चला उसी रास्ते, जीवन के प्रथम पाठशाला में। इन वर्षों में कितना कुछ बदल गया गाँव में। कच्ची सड़क पक्की कोलतारी सड़क में तब्दील हो गयी। काट दिये गये बबूल के कतारबद्ध पेड़ों को। जहाँ हमलोग गर्मी के दिनों में सुस्ताते थे। गुल्ली-डंडा, कबड्डी और क्रिकेट खेलते थे। हमारी सारी योजनाएँ यहीं बनती थीं। सज्जन राम के पेड़ से आम तोड़ना, रामफल यादव के खेत से अल्हुआ खोदना या रमजानी मियाँ के खेत से तरबूज तोड़ना। सारी चोरियों को यहीं से अंजाम दिया जाता था और यहीं होता था माल का बँटवारा। इस चोरी में हम सीआईडी का काम करते थे। जैसे कोई आ रहा है तो हम गीत गाकर संकेत करते। और इस तरह चोरी में हमारे कोई मित्र पकड़े नहीं जाते। मोहन हमारे स्कूल का सबसे तेज़ विद्यार्थी था। उनसे बहुत उम्मीद थी लोगों को, लेकिन वही हमारे समूह का सबसे सीनियर चोर था। इसके विपरीत बिसुन पढ़ाई में फिसड्डी था, पर चोरी वह माँ के पेट से सीखकर आया था। पेड़ पर चढ़ने में वह बंदरों का बाप था। एक बार सज्जन राम के पेड़ से वह आम तोड़ रहा था। नीचे मोहन को आम चुनने का जिम्मा दिया गया था। दोनों सफलतापूर्वक अपना काम कर रहे थे, तभी पटसन में छिपकर सज्जन राम की माँ सीआईडीगिरी कर रही थी। अचानक वह निकलकर चिल्लायी- “चोर….चोर….चोर…….।”

कूद पड़ा था बिसुन पेड़ से। मोहन भी जान लेकर भागा। बुढ़िया उन्हें पकड़ तो न सकी, पर पहचान गयी। उस दिन मेरी सारी सीआईडीगिरी घुसर गयी। हमारे लिए यह बात बहुत बड़ी बात नहीं थी। लगा कि हमेशा की तरह बुढ़िया हमारे पुरखे का श्राद्ध-वर्षी करके शांत हो जाएगी, पर ऐसा नहीं हुआ। वह मौलवी साहब तक शिकायत लेकर पहुँच गयी। धस गये हम सब मिट्टी में! मुन्नी बता रही थी कि अब्बाजान आज अम्मी पीटकर आए हैं। आज खैर नहीं।

बुढ़िया आज हम सब की दुर्दशा देखकर कलेजा शांत करने आयी थी। हो गया कलेजा शांत। जुड़ा गया उनका तप्त हृदय। मौलवी साहब ने हम तीनों पर दर्जनों करचियाँ तोड़ दीं। तीन दिनों तक उठ नहीं पाए हम!

यह नदी है……कोशी नदी!

कई गाँव बह गये इसमें! सैकड़ों परिवार बेघर हो गए!

हजारों लोग कंगाल हो गये!

सैकड़ों बीघे जमीन को लील गयी डायन! लोग श्रद्धा से नहीं , डर से इनकी पूजा करने लगे। हर साल पूस की पूर्णिमा के दिन पूजा होने लगी। मगरमच्छ पर सवार होकर हर साल आने लगी माता। अब भी तीन दिनों तक मेला लगता है यहाँ। लेकिन समय कितना बदल गया। अब यह नदी पूरे कस्बे का कूड़ेदान बन कर रह गयी है। खुद दया की भीख मांगती है! पूरे गाँव का नक्शा ही बदल गया। खैनी बेचने वाला रामप्रसाद महाजन बन बैठा है। किराने के दुकानदारों को थोक माल बेचता है।

जगदीश यादव नेतागिरी छोड़कर कटघरे में बैठे पान बेच रहा है।

बिसुन यादव मछली का थोक कारबार करने लगा है। जिस डीहवार थान के आगे लोगों की पंचायतें होती थीं और दूध का दूध और पानी का पानी होता था , वहाँ अब ताड़ीखाना है! यहाँ अब धूप-अगरबत्तियों की जगह ताड़ी के गंध मिलते हैं। अब शाम की आरती गाने, दीप जलाने यहाँ नहीं आती हैं- ग्राम्य-बालाएँ। यहाँ अब ताड़ी के नशे में धुत्त आबारे की फब्तियां सुनायी देती हैं।

अच्छा है कि अब यहाँ के लोग चेहरे से नहीं पहचानते मुझे। बेगाने हो गये हैं हम। हम बिना किसी से नज़र मिलाए चलते रहे….चलते रहे। मुझे मिलना था मुन्नी बहन से…सकीना चाची से…….मन्नान भाई से……… मोहन से। देखना था अपने पाठशाला को। नमन् करना था वहाँ की पावन मिट्टी को। मौलवी साहब की सारी स्मृतियों को जिंदा करना था अपने भीतर!

लेकिन हम खो गये…. भटक गये, कहाँ से कहाँ? यहीं…… बिलकुल यहीं तो था मेरा स्कूल। और पीछे घर था मौलवी साहब का। कहाँ है घर….सकीना चाची कहाँ रहती है अब………. स्कूल कहाँ है? यहाँ तो अंग्रेजी शराबखाना है! जहाँ हम लोग बैठकर पढ़ते थे, वहाँ लोग पी रहे बैठकर! जहाँ बच्चों के रटने की शोर सुनाई देती थीं, वहाँ गालियाँ सुनाई दे रही हैं! जहाँ बच्चे झूलते थे पढ़ते हुए, वहाँ झूल रहे हैं शराबी, नशे में चूर होकर!

“नरेन भाई”। चखने की दुकान से एक स्त्री का स्वर सुनाई दिया।

कौन हो सकती है वह? वहाँ तो किताब-कापियों की दुकान थी। कचरी-मूढ़ी, तली हुई मछलियाँ, भुना हुआ चूड़ा, कलेजियाँ, हरी मिर्च और कटे हुए प्याज के बीच बैठी हुई कौन है वह? अबारे मर्दों की फब्तियाँ झेलती हुई कौन है वह स्त्री? मन में कई सवाल उठने लगे।

“नरेन भाई! मैं मुन्नी।”

साँस थम गयी मेरी। आँखें चढ़ गयीं ललाट पर। नहीं, मुन्नी नहीं हो सकती वह!

“नरेन भाई, तुम तो पहचान में नहीं आते हो। एकदम हाकिम लगते हो।” भ्रम टूट गया मेरा। मुन्नी ही थी वह।

“तुम यहाँ….मन्नान भाई कहाँ हैं?”

“वहाँ शराब की दुकान पर नहीं देखा तुमनेे। उसने ही ठेका लिया है। अब्बा नहीं चाहते थे कि उनके स्कूल की जगह शराबखाना खुले। वे लाख मना करते रहे, गिड़गिड़ाते रहे, हाथ जोड़ते रहे, पर कौन सुने! पूरा गाँव एक हो गया। क्या हिन्दू ,क्या मुसलमान? हार गये अब्बाजान।”

मुन्नी बोलती गयी, “हमारा तीन तलाक़ हो गया है उनसे। कोई मतलब नहीं है हमें। अपना कमा कर गुजारा करते हैं। तीन बच्चे हैं हमारे। सबका भार…………।” कहते- कहते रो पड़ी वह!

“अम्मी कहाँ रहती है?” मैंने जिज्ञासा की। “मेरे साथ रहती है। भीतर कचरी छान रही है। बुलाती हूँ।” मुन्नी का जवाब था।

“नहीं- नहीं, रहने दो फिर।” मैं भागा वहाँ से।

सूर्य बहुत पहले ही अस्त हो चुका था। चारों तरफ रोशनी ही रोशनी थी, फिर भी मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था। चारों ओर अज्ञात भय व्याप्त था। मैं तेज कदमों से चला जा रहा था यह सोचते हुए कि मोहन भाई से मुलाकात होती तो जरूर पूछता उनसे -“यह क्या हो गया है हमारे गाँव को? कैसे जीते हैं भले लोग यहाँ…….?

मैं जल्दी-जल्दी अपने घर पहुँचना चाह रहा था। मैं वहीं आ गया, जहाँ बबूल के पेड़ होते थे कभी। जहाँ हम खेलते थे। तभी अचानक मेरे पैर से कुछ टकराया। कुछ नहीं। एक आदमी, जो शराब के नशे में धुत्त चौखने चित्त पड़ा था। बीच सड़क पर। पैर से टकराते ही वह मेरी माँ- बहन करने लगा-“कौन है बे? साला अंधा कहीं का। सूझता नहीं है तुम्हें? मुझे उनकी आवाज कुछ जानी-पहचानी-सी लगी। यह कौन हो सकता है, इस घुप्प अंधेरे में? मैंने मोबाईल का लाईट जलाया। सामने मोहन भाई थे!

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