साहित्य वर्तमान की कोख से निकलकर अतीत और भविष्य दोनों को आलोकित करता है। साहित्यकार जिस सामाजिक- सांस्कृतिक परिवेश में पैदा होता है, जहाँ से वह शिक्षा और संस्कार ग्रहण करता है, जाने- अनजाने में वहाँ का परिवेशगत यथार्थ उनकी रचनाओं अभिव्यक्त होता चला जाता है। इसलिए साहित्य की सामाजिक सापेक्षता को कदापि नकारा नहीं जा सकता। साहित्य और समाज में गहरा अंतर्संबंध होता है। साहित्य समाज को प्रभावित करता है और समाज साहित्य को। साहित्य की सामाजिक सापेक्षता पर प्रकाश डालते हुए मैनेजर पांडेय कहते हैं- “साहित्य का अस्तित्व समाज से अलग नहीं होता, इसलिए साहित्य का विकास समाज के विकास से कटा नहीं हो सकता। साहित्य सामाजिक रचना है, साहित्यकार की रचनाशील चेतना उसके सामाजिक अस्तित्व से निर्मित होती है, साहित्यिक कर्म की पूरी प्रक्रिया सामाजिक व्यवहार का ही एक विशिष्ट रूप है, साहित्यिक कर्म की पूरी प्रक्रिया सामाजिक व्यवहार का ही एक विशिष्ट रूप है; इसलिए साहित्य का इतिहास समाज के इतिहास से अनेक रूपों में जुड़ा होता है।”(1)
भक्तिकाल के सबसे प्रखर और प्रगतिशील कवि कबीरदास की सृजनात्मकता में सर्वत्र भारतीय समाज प्रतिध्वनित होता है। कबीर विश्व-संत हैं। धरती और इस पर विद्यमान जीवन का समग्र चिंतन कबीर का रचनात्मक उद्देश्य है। लोक-चिंता धारा के अग्रगण्य कवि कबीर के विचारों में विश्वमानवता की चिंता है। भारतीय भक्ति-साधना में दो धाराएँ प्रचलित हुईं। इसकी प्रथम धारा महात्मा बुद्ध से आरंभ होती है। बुद्ध ने धर्म को कर्मकांड, बाह्याडंबर तथा बाह्मणवाद की दलदल से निकालकर उसके मूल में स्थापित किया। यह धारा सिद्धों- नाथों से होती हुई संत- परंपरा में उत्कर्ष तक पहुँचती है। कबीरदास इस परंपरा के सर्वप्रमुख उत्तराधिकारी हैं। इसे भक्तिकाल में लोक-चिंता धारा कहा गया। भक्ति-साधना की दूसरी धारा आलवारों और रामानुजाचार्य से होते हुए गोस्वामी तुलसीदास तक आती है। इसे विद्वानों ने शास्त्रीय धारा कहा है। कबीर के साहित्य में ‘जनता’ के बजाय ‘लोक’ पर अधिक ध्यान दिया गया है। यूँ तो ऊपर से देखने पर दोनों शब्द एक-दूसरे का पर्याय प्रतीत होता है, परंतु दोनों में मूलभूत अंतर है। ‘जनता’ समाज के सभी वर्गों और संपूर्ण जनजीवन को समेटता है, जबकि ‘लोक’ जनता के अपेक्षाकृत समाज के पिछड़े वर्ग का अर्थबोध कराता है। ‘लोक’ को सृजन और चिंतन के केन्द्र में रखने के कारण कबीर आभिजात्य वर्ग के बीच सम्माननीय नहीं हैं। वे वस्तुतः समाज के दलित-पीड़ित और वंचित वर्गों में स्थापित और पूज्य हैं। निम्नलिखित पंक्तियों से इसे स्पष्ट समझा जा सकता है- “सूरा सो पहिचानिये, लड़े दीन के हेत।
पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कबहु न छाड़े खेत।।”(2)
कबीर का जीवनकाल 1398 ई. से 1518 ई. के बीच माना जाता है। यह कालावधि सामाजिक-राजनीतिक दृष्टियों से सर्वथा अशांति, अव्यवस्था और अस्थिरता का था। भारत के इतिहास में तुगलक वंश का अंत और लोधी वंश का उदयकाल ही कबीर का जीवनकाल सिद्ध होता है। उससे पहले तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया था। यह आक्रमण फिरोज तुगलक और बहलोल लोधी के शासनकालों के मध्य हुआ था। तैमूर का आक्रमण बर्बरता, नृशंसता और कठोरता का सजीव उदाहरण था, जिसके परिणामस्वरूप लाखों निर्दोष हिन्दू मारे गये। हिन्दू प्रतिष्ठा और गौरव को पूर्णतः कुचल दिया गया था। स्वयं तैमूर ने कहा था कि ‘वह काफिरों को दंडित करने, मूर्ति पूजा का अंत करने एवं बहुदेववाद का मर्सिया लिखने के लिए ही भारत पर आक्रमण कर रहा था।'(3) ऐसी स्थिति में हम हिन्दुओं की धार्मिक- वृत्ति एवं राजनीतिक परिस्थिति की सहज ही कल्पना कर सकते हैं। तैमूर का आक्रमण एक ऐसा वज्रपात था, जिसने भारत के हिन्दुओं के अस्तित्व को झकझोरकर रख दिया। वह धर्मांध था। इसलिए उसने दिल खोलकर (काफिरों) हिन्दुओं की हत्या की और लौटते हुए हजारों स्त्रियों- पुरुषों और बच्चों को गुलाम बनाकर साथ ले गया। इस आक्रमण के फलस्वरूप देश में गरीबी, भूखमरी, आतंक, हताशा, और निराशा दीख पड़ने लगे। अत्याचार और चरित्रहीनता की व्यापक व्याप्ति समाज में दृष्टिगत होने लगा।
तैमूर के लौटते ही देश का प्रशासन लोधी वंश के हाथ में चला गया और सर्वप्रथम शासक बहलोल लोधी ने देश को संगठित करने का प्रयास किया, किन्तु द्वितीय शासक सिकंदर लोधी अदूरदर्शी और धर्मांध निकला। उसने अपनी कट्टरता और मूर्खता से हिन्दू और मुसलमानों के बीच गहरी खाई खोद डाली। सिकंदर लोधी इस्लाम नहीं स्वीकार करने पर हिन्दुओं की जघन्य हत्या करवा देता था। हिन्दुओं का जीना दुर्लभ था। सिकंदर लोधी कबीर के समकालीन थे, इस कारण कबीर भी उसके आतंक से बच न सके। कबीर के (पालक) माता-पिता यदि मुसलमान न होते तो शायद वह कबीर की भी हत्या करवा देता। यूँ तो पत्थर बांधकर नदी में फिंकवाने तथा हाथी के पाँव तले रौंदवाने की सजाएँ तो कबीर के लिए घोषित की ही थीं। तैमूरी और सिकंदरी कट्टरता के कारण हिन्दू- समाज में जो निराशा उत्पन्न हुई थी, उसकी प्रतिक्रिया में हिन्दू ईश्वरीय आस्था का सहारा लेकर जीने को विवश थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इसे ही भक्ति-आंदोलन के उद्भव का प्रमुख कारण मानते हुए लिखते हैं- “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रहा गया। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराये जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था……… अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की भक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था ?”(4)
मंदिरों की तोड़फोड़ और सगुणोपासना की असंभावना के कारण धीरे-धीरे हिन्दुओं ने निर्गुण उपासना का सहारा लिया। निर्गुण-निराकार ब्रह्म उपासना का संभवत: एक और कारण था कि उस समय भारतीय समाज में वर्णाश्रम धर्म का प्रचलन अपने उत्कर्ष पर था। शूद्रों एवं वंचितों के लिए मंदिर- प्रवेश तथा मूर्तिपूजा सर्वथा निषिद्ध था। इसीलिए ये एक ऐसे धर्म की खोज में लगे थे, जिसमें भगवान के मंदिर में जाकर मूर्ति-पूजा करने के बजाय, अपने भीतर ही ईश्वर को खोजा जा सके। सच में, कबीर ने ऐसे ही धर्म का प्रवर्तन किया।
कबीर के समय समाज की दशा अत्यंत दुःखद, दयनीय और चिंतनीय थी। हिन्दु और मुसलमान, दोनों समाज में धार्मिक और आचरणपरक आडंबर बढ़ता ही जा रहा था। पुरोहितवाद और मुल्लावाद से आम जनता त्रस्त थी। मिथ्या जीवन और दिखावा ही उनका दैनिक व्यवहार बन गया था। कबीरदास इस पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं-
“हिन्दू कहत है राम हमारा मुसलमान रहमाना।
आपस में दोऊ लड़े मरतु हैं, मरम कोई नहिं जाना।
बहुत मिले मोहिं नेमी धर्मी प्रात करै असनाना।
आतम-छोड़ि पषानै पूजैं तिनका थोथा ज्ञाना।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे मन में बहुत गुमाना।
साखी सबदै गावत भूले आतम खबर न जाना।
घर-घर मंत्र जो देन फिरत हैं माया के अभिमाना।।”(5)
कबीरदास भक्तिकाल के प्रथम संप्रदाय-निरपेक्ष कवि और संत हैं। इसलिए वे हिन्दू या मुसलमान किसी का पक्ष नहीं लेते। धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठकर वे हिन्दुओं के साथ मुसलमानों पर भी व्यंग्य करते हैं-
“मीयाँ तुम्हसौ बोल्यों बणि नहीं आवै।
हम मसकीन खुदाई बंदे तुम्हरा जस मनि भावै।।
अलह अवलि दीन का साहिब, जोर नहीं फुरमाया।
मुरसिद-पीर तुम्हारे है को, कहो कहाँ थैं आया।।
रोजा करैं निवाज गुजारैं कलमै भिसत न होई।
सत्तरि काबे इक दिल भीतरि, जे करि जाने कोई।।”(6)
कबीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ था, जब राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक क्रांतियाँ अपने चरम उत्कर्ष पर थीं। राजनीतिक परिस्थितियों में कोई स्थिरता नहीं थी। न राजवंशों में कोई स्थिरता थी और न ही उनकी नीति निश्चित थी। किसी समय भी राज-परिवर्तन की संभावना हो सकती थी और जनता पर उसका मनमाना अत्याचार चल सकता था। यही कारण है कि सामान्य जनता में राजवंश और राजनीति के प्रति कोई आस्था नहीं थी। ‘कोउ नृप होय, हमें का हानी’ की प्रवृति थी। कबीरदास राजसत्ता और धर्मसत्ता से एक साथ लड़ रहे थे। वे सिकंदर लोधी जैसे आततायी शासक के समक्ष नहीं कभी घुटने नहीं टेके और न ही पंडितों और मुल्लाओं की आलोचना करने से कभी भयभीत हुए। उस समय पंडितों और मुल्लाओं ने अनेक प्रतिबंध लगा रखे थे। प्रायः ऐसी पद्धतियाँ प्रचलित कर रखी थीं, जो सामान्य लोगों की पहुँच से बाहर थीं। परिणामतः वे लोग कठोर पूजा-पाठ विधियों का शिकार हुए अपने अनुष्ठानों के लिए मौलवियों, पंडितों के गुलाम बनकर रह गये थे। स्थिति यहाँ तक पतित हो गयी थी कि मुल्ला और पंडित जन-साधारण को भरमाकर धन के बदले उसके अनुष्ठान करवाते थे। लोग मिथ्या संतोष का बोझ ढोते हुए अपने को पुण्य का अधिकारी समझते थे। कबीरदास ने साधना के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन किये। उन्होंने जीवात्मा और परमात्मा के बीच मध्यस्थ की जगह मुल्लाओं और पंडितों को बहिष्कृत कर ‘सतगुरु’ को स्थापित किया। साथ ही कबीर ने बहुदेववाद के खिलाफ एकेश्वरवाद की स्थापना की। यह अलग सवाल है कि कबीर के एकेश्वरवाद पर इस्लाम का प्रभाव देखा जाता है। चूँकि इस्लाम ने हिन्दू बहुदेववाद के खिलाफ सर्वप्रथम एकेश्वरवाद का नारा दिया था। ‘कुरान’ की आयतों में लिखा है-‘ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलल्लाह।'(7) अथार्त – ईश्वर एक है और मुहम्मद उसके दूत या पैगम्बर हैं।
कबीरदास ने ‘अद्वैतवाद’ के तर्ज पर आत्मा और परमात्मा के एकत्व पर बल दिया। साथ ही, आत्मा और परमात्मा के मिलन में माया और अज्ञानता को बाधक बताया। उनका मानना है कि आत्मा परमात्मा का ही अभिन्न अंश है। परमात्मा की सत्ता में आत्मा का मिल जाना, एकमेक हो जाना ही सही अर्थ में मोक्ष है। वे कहते हैं –
“अविनासी दुल्हा कब मिलिही, भक्तन के रछपाल।
जल उपजी जल ही सो नेहा, रटत पियास पियास।।”(8)
कबीर ने निर्गुण, निराकार ब्रह्म की बात कर तमाम कर्मकांडीय भक्ति- पद्धति का सहज ही निषेध कर दिया। जब परम सत्ता को अपने भीतर ही खोजना है तो फिर पंडित और मुल्ला की क्या जरूरत? डाॅ. बच्चन सिंह का कथन इस संदर्भ में प्रासंगिक है-“कबीर ने जो कुछ किया, उसके पीछे एक परंपरा है, इतिहास की एक सामंती मंजिल है, मुल्ला- पंडितों का वर्चस्व है। किन्तु कबीर के व्यक्तित्व में वह ताकत थी, जिससे सामंती व्यवस्था के इन सरमायादारों की मूर्ति तोड़ने में वे एक सीमा तक सफल हुए।”(9) कबीर का पदार्पण जैसे राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों का एक आग्रहपूर्ण आमंत्रण था और कबीर ने धर्म और समाज के संघटन के लिए समस्त बाह्याचारों का अंत करने और प्रेम से समान धरातल पर रहने का एक सर्वमान्य सिद्धांत प्रतिपादित किया। कोशकार के अनुसार- “परंपराओं के उचित संचयन तथा परिस्थितियों की प्रेरणा में कबीर ने ऐसे विश्व-धर्म की स्थापना की जो जन-जीवन की व्यावहारिकता में उतर सके और अन्य धर्मों के प्रसार में समानांतर बहते हुए अपना रूप सुरक्षित रख सके।”(10)
कबीरदास ने अनेक स्तरों पर अपने समय के समाज को प्रभावित किया। इसलिए कबीर जितने बड़े कवि हुए उससे कहीं बढ़कर समाजसुधारक हुए। विश्व के आधुनिक अस्तित्ववादी विचारक कामू, काफ्का, सार्त्र आदि ने जो अस्तित्ववादी विचार आधुनिक समय में दिये, कबीर उसी विचार को आज से लगभग सात सौ साल पहले व्यावहारिक रूप प्रदान कर चुके थे। कबीर के समय का समाज अनेक तरह की विकृतियों से त्रस्त था। कबीर का साहित्य उसका वैचारिक रूप से प्रतिरोध करता है। वे प्रमुखत: जिन सामाजिक धार्मिक विकृतियों से टकरा रहे थे, उनमें प्रमुख हैं- जातिवाद, बाह्मणवाद, धार्मिक उन्माद, हिंसावाद, कर्मकांड और बाह्याडंबर।
कबीर के समय का समाज आज की ही भाँति न केवल अनेक जातियों में विभक्त था, वरन् उसके बीच ऊँच-नीच तथा छूताछूत की भावना भी व्याप्त थी। प्रत्येक जाति हमेशा अपने से एक छोटी जाति की खोज में तल्लीन थे। उस समय वर्णाश्रम धर्म का बोलबाला था। लोग यह भूल ही गये थे कि श्रम -विभाजन वस्तुतः कार्य-विभाजन है। इसे सामाजिक स्तरीकरण का आधार बना लिया गया था। ब्राह्मणों और शूद्रों के बीच ‘मुखस्य संस्कृति’ और ‘पदस्य संस्कृति’ का संघर्ष जारी था। ब्राह्मण अपने को सबसे ऊँचा और शूद्रों को सबसे नीचा मानते थे। उनका मानना था कि ब्राह्मणों का जन्म ब्रह्माजी के मुख से हुआ है तथा शूद्र उनके चरण से उत्पन्न हुए हैं। कबीरदास इस विषमता से बेहद आहत थे। उन्होंने ब्राह्मणों की उत्पत्ति और उनकी जातीय शुचिता पर व्यंग्य किया है-
“ज्यों तू बामन बामनी जाया।
आन बाट खै क्यों नहीं आया।”(11)
कबीर का मानना था कि मनुष्य अपने कर्म से श्रेष्ठ होता है, जन्म से नहीं। इसलिए वे कहते हैं- “
ऊँचे कुल में जनमिया, करनी ऊँच न होय ।
स्वर्ण कलश सुरा भरा, साधु निंदत सोय।।”(12)
कबीर के अनुसार मनुष्य अपने ज्ञान से महान् होता है, कुल से नहीं। इसलिए संतजनों की पहचान ज्ञान से करना चाहिए, उनकी जाति से नहीं। जिस प्रकार तलवार के आगेम्यान महत्त्वहीन है, उसी प्रकार व्यक्ति के आगे जाति। वे जातिवाद का निषेध करते हुए लिखते हैं-
“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करौ तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।”(13)
कबीरदास सच्चे अर्थों में जाति-विहीन समाज के सबसे प्रखर परिकल्पक थे। वे जाति को किसी भी स्तर पर स्वीकारना नहीं चाहते थे। और न ही जुलाहा होने के कारण उनमें किसी प्रकार का हीनताबोध था। इसीलिए कबीरदास ने डंके की चोट पर कहा है-
“तू कासी का बाम्हन, में कासी का जुलाहा।” या,
“नीच कुल जुलाहा भइयो गुनी गंभीर।।” (14)
इस तरह वे साफ कहते हैं- ‘तू ब्राह्मण है उच्च वर्ण के मुकुटमणि तो मैं जुलाहा हूँ निम्न जाति में कमीन। यह तथाकथित नीच कुल में पैदा होकर भी ‘गुणी’ है अर्थात श्रेष्ठ है।
ब्राह्मण एक जाति है और ब्राह्मणवाद एक विचारधारा’। – कबीर ने ब्राह्मण नहीं, ब्राह्मणवाद का विरोध किया है, जिसके कारण ऊँच-नीच, छुआछूत की भावना समाज में फैली थी। उन्होंने ब्राह्मणों की वंशगत और जातिगत तमाम श्रेष्ठता का खंडन डाला। यह विडंबना ही है कि कुछ ब्राह्मणवादी विचारकों ने कबीर का वाल्मीकि और व्यास की ब्राह्मणीकोण कर दिया गया है। आज लोग भूल ही गये हैं कि वाल्मीकि ‘भील’ और व्यास ‘धीवर’ जाति के थे। ये दोनों पैदायशी दलित थे। यह सर्वविदित है कि ‘कबीर के जीवनकाल में सवर्ण हिन्दुओं तथा मुल्ला- मौलवियों ने उनकी दुर्दशा करने में कोई कोर- कसर नहीं छोड़ी। पर प्रसिद्धि के बाद हिन्दुओं ने उन्हें विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से, जिसे रामानंद ने भूलवश पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे रखा था, पैदा होने की कहानी गढ़ ली।'(15)आखिरकार कुछ ब्राह्मणवादी चिंतक कबीर के निम्नलिखित पद के आधार पर उसका संबंध ब्राह्मण से जोड़ने की चेष्टा की है-
”पूरब जनम हम ब्राह्मण होते,ओछे करम तप हीना। रामदेव की सेवा चूका, पकरि जुलाहा कीना।”(16)
ज्ञात हो कि ‘बीजक’ जो कि कबीर का प्रमाणिक ग्रंथ है, में यह पंक्ति नहीं है। यह सर्वथा प्रक्षिप्त अंश है। निश्चय ही यह किसी चतुर ब्राह्मण की करतूत है। कबीर के साथ यह भी विडंबना है कि जो व्यक्ति जीवनपर्यंत हिन्दुओं-मुसलमानों को धर्मनिरपेक्षता और मानवीय समता का पाठ पढ़ाता रहा, उसी के शव को लेकर हिन्दू-मुसलमान झगड़ बैठे। ‘ना हिन्दू ना मुसलमान’ की घोषणा करने वाले कबीर के शव को हिन्दू और मुसलमान बना दिया गया।
आज तक कबीर को वर्णाश्रम धर्म के प्रबल समर्थक रामानंद का शिष्य बताया जाता है। किसी ने यह नहीं सोचा कि जो ‘कबीर ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद के पीछे लाठी लेकर खड़ा है, वह ब्राह्मणी मतों के प्रबल समर्थक रामानंद का शिष्य कैसे हो सकता है?'(17) कबीरदास निरक्षर थे- इसके समर्थन में कबीर का प्रचलित पद ‘मसि कागद छुयो नहीं’ को दलित चिंतक हरिनारायण ठाकुर प्रक्षिप्त मानते हैं। उनका कहना है-“जिस कबीर को जीवन और जगत का इतना गहरा ज्ञान है, जो महान् दार्शनिक और तत्त्वज्ञानियों- सी बातें करता है, वह निरक्षर याअशिक्षित कैसे हो सकता है?” (18)
कबीर का युग धार्मिक उन्माद का युग था। यद्यपि यह उन्माद आज भी यथावत है। धर्म जब अंतर्विरोधों का सामंजस्य छोड़कर संप्रदाय का रूप धारण कर प्रचार का विषय बन जाता है और एक-दूसरे को नीचे सिद्ध करने की चेष्टा करने लगता है, तब उसे धार्मिक उन्माद या साम्प्रदायिकता का नाम दिया जाता है। जिस प्रकार कबीर के समय हिन्दुत्व अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए तथा मुसलमान इस्लाम के प्रचार- प्रसार के लिए उन्मादी रूप धारण कर लिया था, उसी प्रकार आज भी हम ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के दौर से गुजर रहे हैं। आज भी धर्म उन्माद का विषय बना हुआ है। कबीरदास ने हिन्दू और मुस्लिम की बीच के झगड़े को मिटाने के लिए राम और रहीम, कृष्ण और करीम के एकत्व पर बल दिया। उन्होंने कहा कि जो राम है, वही रहीम है, जो कृष्ण है, वही करीम है। कबीरदास ने दोनों धर्मों की खामियों को उजागर करते हुए दोनों से पृथक निर्गुण ब्रह्म की स्थापना की है। पंक्ति देखिये :
“जोगी गोरख गोरख करै,
हिन्दू राम नाम उच्चारे।
मुसलमान कहै एक खुदाई,
कबीर के स्वामी रहयो घट-घर समाई।”(19)
कबीरदास दोनों धर्मों में व्याप्त कर्मकांड और बाह्याडंबर पर व्यंग्य करते हैं। जहाँ वे हिन्दुओं की मूर्ति-पूजा का मखौल उड़ाते हुए कहते हैं-
“पाहन पूजें हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़ ।
तासे भली चक्की पूजे, पीस खाई संसार ।”(20)
वहीं वे मुसलमानों पर भी व्यंग्यवाण चलाने से नहीं चूकते हैं –
“कांकर-पाथर जोरि केय, मस्जिद लेई चुनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग देत, का बहिरो भयो खुदाय।।”(21)
‘कागद की लेखी’ पर आस्था रखने वालों के विरोध में ‘आँखिन देखी’ प्रस्तुत करने वाले कबीर का कर्मकांड में निमग्न पंडितों से मतभेद स्वाभाविक ही था। वे इस मतभेद का कारण बताते हुए कहते हैं-
“मेरा-तेरा मनुआँ कैसे इक होई रे।
मैं कहता हौं आँखिन देखी,
तू कहता कागद की लेखी।”(22)
कबीरदास मरते-मरते भी भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वास पर प्रहार कर जाते हैं। उस समय मान्यता थी किकाशी में शरीर त्याग करने वाले को स्वर्गलोक तथा मगहर में शरीर त्याग करने वाले को नरक में जाना तय है। कबीर इस अंधविश्वास का खंडन करने के लिए ही जीवन भर काशी में रहते हैं और मृत्यु के समय मगहर चले जाते हैं। काशी या मगहर से कबीर को कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें अपनी भक्ति पर, अपने निर्गुण राम पर पूर्ण विश्वास है। वे कहते हैं –
“लोका मति के भोरा रे।
जो कासी तन तजे कबीरा,
राम ही कहा निहोरा रे ।” 23
कबीरदास ने किसी धर्म या संप्रदाय का प्रवर्तन नहीं किया।उन्होंने परंपरा से प्राप्त धर्म के उत्तमांशों को व्यावहारिक रूप प्रदान किया है। कबीर के विचारों में शंकर का अद्वैतवाद, सूफी रहस्यवाद, वैष्णववाद, बौद्ध तथा जैन- धर्म का अहिंसावाद का सम्मिलन है। उन्होंने सनातनी तथा इस्लामिक हिंसावाद का प्रबल विरोध किया है। वे बुद्ध और वर्द्धमान महावीर की भाँति अहिंसा का समर्थन और हिंसावाद का निषेध किया है। वे कहते हैं- “साई के सब जीव है, कीरि- कुंजर दोय।” (24)
कबीर का यह विचार आज भी बेहद प्रासंगिक प्रतीत होता है। चूँकि साम्प्रदायिक उन्माद के कारण हो या धार्मिक मान्यताओं के कारण समाज में हिंसावाद व्याप्त है। जीव -जंतु ही नहीं, मानव जीवन का भी कोई मोल नहीं रह गया है। आज इसका एक नया और त्रासद रूप हमारे सामने आ रहा है। धर्म और धर्मरक्षा के नाम पर लोग गायों की रक्षा के लिए प्राण देने और लेने में तनिक देर नहीं लगाते। यह कैसा उन्माद है, जहाँ हिंसावाद के सिंहासन पर खड़े होकर हिन्दुत्व और इस्लाम का नारा लगाया जा रहा है। आज कबीर होते तो उन्हें कितना कष्ट होता।
कबीरदास कालजयी रचनाकार हैं। समय के साथ उनकी रचनाएँ, उनके विचार और दर्शन और भी प्रासंगिक हो रहे हैं। कबीर की विद्रोही क्रांतिकारी धार आज के रचनाकारों के लिए सर्वथा प्रेरणास्पद है, क्योंकि इसी सरोकार से वह सत्ता और व्यवस्था के द्वारा अपनाए गये जन-विरोधी सभी व्यवहारों का काटता है, सभी उत्पीड़नों को चुनौती देता है, सभी प्रकार के अन्यायों के समक्ष झुकने को अस्वीकार ही नहीं करता, बल्कि उनसे टकराता है। समाज के अदना से अदना व्यक्ति के लिए सगर्व सिर ऊँचा करके उन्हें अस्तित्व की गरिमा का पाठ पढ़ाता है। बतौर साहित्यकार कबीर ने बखूबी अपने इस धर्म का निर्बाह किया है। साहित्यकारों के रचना- धर्म पर विचार करते ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं- “साहित्य वही है जो पीड़ित, दलित जनता के दुखों को कम करने में मदद करे।”(24)
वास्तव में कबीर एक समतामूलक, न्यायपूर्ण, संवेदनशील, मानवीय समाज की स्थापना के पक्षधर, क्रांतिधर्मा संत और समाज-सुधारक हैं। इसलिए अंधी भौतिकता, क्रूर बाजारवाद, गलाकाट व्यावसायिकता तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के इस युग के लाइलाज रोगों के उपचार की दवा भी कबीर के पास है। जिन दबावों के सामने आज के साहित्यकार नतमस्तक हो जाते हैं, उनका भी काट कबीर के पास है। वर्तमान समय अत्यंत संघर्षों का है। ऐसे में अखिल विश्व के कल्याण की कामना कबीर की रचनाओं में मिलता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ उनके साहित्यिक चिंतन के केन्द्र में स्थित है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर के बारे में सत्य ही कहा है- “हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न है नहीं हुआ।”(25) कबीर की रचनाओं का प्रभाव इतना विराट् है कि वह देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण कर अनेक भाषाओं में अनूदित होकर संपूर्ण मानव -जाति तक प्रसारित हो रही है। उन्होंने जाति, वर्ग, धर्म और संप्रदायों की सीमाओं को ध्वस्त कर ऐसे समाज की स्थापना की है, जिसमें समस्त मानव-जाति सम्मिलित हो सकती है। अस्तु, कबीर का काव्य और दर्शन विश्वमानवतावाद की स्थापना की सुनियोजित चेष्टा है।
संदर्भ – ग्रंथ -सूची :
1. मैनेजर पांडेय – साहित्य और इतिहास दृष्टि, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण-1981, पृष्ठ- vii (भूमिका से)
2. डॉ० बलदेव वंशी- पूरा कबीर (संपादित ग्रंथ), प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2018, पृष्ठ के 8 पर उद्धृत
3. डॉ बलदेव वंशी- ‘पूरा कबीर, डॉ. मनमोहन सहगल का आलेख- ‘कबीर: राजनीतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य) पृष्ठ – 41
4. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल- हिन्दी साहित्य का इतिहास, जयभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संरकरण-2020, पृष्ठ -535.
5. हजारी प्रसाद द्विवेदी- कबीर, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण – 1971, पृष्ठ -248
6.हजारी प्रसाद द्विवेदी- कबीर, पृष्ठ – 249
7. रामधारी सिंह दिनकर – संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण- 1956, पृष्ठ – 203
8. हजारी प्रसाद द्विवेदी- कबीर, पृष्ठ -251
9. डॉ० बच्चन सिंह – हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1996, पृष्ठ -83
10. डॉ० धीरेन्द्र वर्मा – हिन्दी साहित्य कोश, भाग- 2, ज्ञानमंडल प्रकाशन, वाराणसी, प्रथम संस्करण- 1956, पृष्ठ- 66
11. हजारी प्रसाद द्विवेदी – कबीर, पृष्ठ- 128
12. हजारी प्रसाद द्विवेदी- कबीर, पृष्ठ- 134
13. हजारी प्रसाद द्विवेदी- कबीर, पृष्ठ -239
14. डॉ० बच्चन सिंह – हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृष्ठ 85 पर उद्धृत पंक्तियाँ
15. डॉ० बच्चन सिंह- हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृष्ठ – 85
16. डॉ० बच्चन सिंह – हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृष्ठ -86
17. हरिनारायण ठाकुर- दलित साहित्य का समाजशास्त्र, वाणी प्रकाशन ग्रुप, दरियागंज, नई दिल्ली, पेपर बैक, प्रथम संस्करण-2022, पृष्ठ- 244
18. हरिनारायण ठाकुर- दलित साहित्य का समाजशास्त्र, पृष्ठ – 244
19. डॉ० राममूर्ति त्रिपाठी – कबीर का समय और उनके स्वप्न का समाज (पूरा कबीर- संपादक – डॉ० बलदेव वंशी), प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2018, पृष्ठ- 34
20. डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी -कबीर का समय और उनके स्वप्न का समाज, (पूरा कबीर- संपादक- डाॅ. बलदेव वंशी, पृष्ठ- 35
21. हजारी प्रसाद द्विवेदी- कबीर, पृष्ठ -244
22. हजारी प्रसाद द्विवेदी- कबीर, पृष्ठ सं०- 247
23. हजारी प्रसाद द्विवेदी- कबीर, पृष्ठ ॐ-246
24. ओमप्रकाश वाल्मीकि- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण – 2001, पृष्ठ- 45
25. हजारी प्रसाद द्विवेदी- कबीर, पृष्ठ- 247
संप्रति : सहायक प्राध्यापक – सह अध्यक्ष,
हिन्दी – विभाग,
श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय,
सीतामढ़ी, बिहार
संपर्क – 6201464897
ईमेल- umesh.kumar.sharma59@gmall.com