स्वाधीनता-संग्राम की गुमनाम योद्धा वीरांगना अजीजन बाई – डाॅ. उमेश कुमार शर्मा भारत ही नहीं वरन् अखिल विश्व में दोयम दर्जे पर स्थित संपूर्ण स्त्री-जाति को अपनी पहचान के लिए सदैव संघर्ष करना पड़ा है। आज हम प्रगतिशीलता का चाहे कितना ही दंभ क्यों न भर लें, परंतु यह किसी से छिपा नहीं है कि विश्व के किसी भी समाज ने स्त्री के व्यक्तित्व को सहजता से पनपने न दिया। यह पीड़ा तब और अधिक त्रासद हो जाती है, जब कोई स्त्री दलित – वंचित परिवार में उत्पन्न हुई हो। ऐसी स्थिति में उसे वर्णवाद और लिंगवाद की दोधारी तलवार पर चलते हुए अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है। और यह लड़ाई बहुत आसान नहीं होती!
पुरुषसत्तात्मक समाज ने स्त्री को कभी भोग्या से अधिक नहीं समझा। वह समझता है कि स्त्री उसकी सेवा, मनोरंजन और उपभोग के लिए उत्पन्न हुई है। इसीलिए स्त्री का प्राचीनतम प्रचलित रूप तवायफ और वेश्या का है। स्त्री को घर की चौखट से कोठे तक पहुँचाने वाले पुरुष के लिए वह, बस एक देह है, जिसका भोग करना पुरुष अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है।
इतिहास साक्षी है कि स्त्री के लिए सौन्दर्य अक्सर वरदान होने के बजाय अभिशाप सिद्ध हुआ है। जो कभी उसे दुराचारी रावण के सामने सीता, कौरवों की सभा में द्रौपदी, इन्द्र के सामने अहिल्या और वैशाली की नगर सभा में नगरवधु आम्रपाली बनने को बाध्य किया है। वीरांगना अजीजन बाई इसी श्रृंखला की एक कड़ी है, जिसे नियति ने तवायफ बनाया, परंतु वह तवायफ के मिथ को ध्वस्त करती हुई भारत के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम (सिपाही – विद्रोह) की योद्धा बन जाती है। यह अलग सवाल है कि आज तक वह इतिहास की अंधेरी कोठरी में कैद है। आजादी के नाम पर अपनी ऐड़ियाँ उठा- उठाकर नारे लगाने वाले लोग उनका नाम तक नहीं जानते।
अजीजन बाई 1857 के महासंग्राम की एक महत्त्वपूर्ण योद्धा थी। उसने सिद्ध कर दिया कि स्त्री अपने पायल से झनकार ही नहीं निकाल सकती, वरन् जरूरत पड़ने पर तलवार से चिनगारियाँ भी निकाल सकती है। वह अपने राग- रंग से रसिक पुरुषों सम्मोहित ही नहीं कर सकती, बल्कि मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व होम भी कर सकती है। अजीजन बाई पेशे से तवायफ थी। वह कोठे पर बैठकर सैकड़ों स्त्रियों के साथ अपने सुर, ताल और नृत्य से रसिक पुरुषों का मनोरंजन करती थी, परंतु वह हृदय से राष्ट्र के लिए समर्पित थी।
उन्होंने जब कानपुर के अपने कोठे से आजादी के दीवाने रण- वांकुरों को अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते देखा, तो उसके मन में देश-प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। उन्होंने शीघ्र ही अपनी महिला शक्ति के बल पर अंग्रेजों से लड़ने की ठान ली। इसके लिए उन्होंने युवतियों की टोली बनाई, जो अक्सर मर्दाना वेश में रहती थी। वे सभी न केवल घोड़ों पर सवार होकर हाथ में तलवार लिए अंग्रेजों पर टूट पड़ी, बल्कि राष्ट्र की बलिवेदी पर नौजवानों को मर मिटने का आह्वान भी करने लगी।
इतिहास साक्षी है कि स्वाधीनता-संग्राम के लिए 1 जून, 1857 को क्रांतिकारियों ने कानपुर में एक बैठक की थी, जिसमें नाना साहब, बाला साहब, तात्या टोपे, सूबेदार टीका सिंह, शमसुद्दीन खाँ, अजीमुल्ला खाँ के साथ अजीजन बाई भी हाथ में गंगाजल लेकर अंग्रेजी हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया था। जून 1857 में ही इन लोगों ने अंग्रेजी सेना को जोरदार टक्कर देते हुए विजय प्राप्त किया था तथा नाना साहब को बिठूर का स्वतंत्र शासक घोषित किया था। यह अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों की पहली सफलता थी, परंतु कुछ ही दिनों के पश्चात अंग्रेजी सेना से नाना साहब का पुन: टक्कर हुआ। दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ, जिसमें अंतत: नाना साहब परास्त हो गये। इन दोनों युद्धों में अजीजन बाई मर्दाना वेशधारी महिला सैनिकों को लेकर लड़ती रही। इतिहास यह भी बतलाता है कि जब नाना साहब के पुरुष क्रांतिकारी परास्त होकर भाग गये, तब भी अजीजन बाई अपने पुरुष वेशधारी सेना लेकर लड़ती रही। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि नाना साहब या तात्या टोपे अपनी सत्ता के लिए लड़ रहे थे, इसलिए उन्हें अपनी जान की फिकर थी, परंतु अजीजन बाई और उनके महिला सैनिक सिर्फ और सिर्फ अपनी मातृभूमि के लिए लड़ रही थी। इसीलिए उन्हें मृत्यु का कोई भय नहीं था।
इन युद्धों में अजीजन बाई दोहरी भूमिका निभा रही थी। वह अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध भी कर रही थी और घायल सैनिकों का इलाज भी कर रही थी। उनके घावों पर मरहम- पट्टी भी कर रही थी। वह अपने मोहक अपनत्व से उनकी पीड़ा को हरने की चेष्टा भी कर रही थी। अजीजन बाई देश भक्तों के लिए जितनी मृदु थी, युद्ध में पीठ दिखाकर भागने वालों के लिए उतनी ही कठोर। मातृभूमि के लिए मर मिटने वाले वीरों को वह अपने प्रेम का पुरस्कार देती थी, जबकि कायरों को धिक्कार और तिरस्कार। ऐसी सुंदरी के तीखे शब्द -वाणों और उपेक्षापूर्ण निगाहों की कटारों से आहत होने की अपेक्षा सैनिकगण रणभूमि में लड़ते हुए अपना प्राण गवां देना ही श्रेयस्कर समझते थे।
अजीजन बाई एक बहादुर महिला थी। विनायक दामोदर सावरकर ने उनके बारे में सही ही कहा है, “अजीजन एक नर्तकी थी, किन्तु सिपाहियों को उससे बेहद स्नेह था। अजीजन का प्यार साधारण बाजार में धन के लिए नहीं बिकता था। उनका प्यार पुरस्कार स्वरूप उस व्यक्ति को दिया जाता था, जो देश से प्रेम करता था। अजीजन के सुन्दर मुख की मुस्कुराहट भरी चितवन युद्धरत सिपाहियों को प्रेरणा से भर देती थी। उनके मुख पर भृकुटी का तनाव युद्ध से भागकर आये हुए कायर सिपाहियों को भी पुनः रणक्षेत्र की ओर भेज देता था।”
युद्धों के दौरान अजीजन बाई ने सिद्ध कर दिया कि वह वारांगना नहीं, अपितु वीरांगना है। वह रसिकों के सामने सुर ताल पर केवल थिरकना ही नहीं जानती, बल्कि मातृभूमि को संकट में देखकर भीषण तांडव भी करना जानती है। बिठूर में हुए युद्ध में पराजित होने के पश्चात नाना साहब और तात्या टोपे को भागना पड़ा, परंतु अनवरत युद्ध करती हुई अजीजन बाई पकड़ी गई। इतिहासकारों के अनुसार युद्ध बंदिनी के रूप में उसे जनरल हैवलाक के समक्ष पेश किया गया। हैवलाक उसके अप्रतिम सौन्दर्य पर मुग्ध हो गये। उन्होंने अजीजन बाई के समक्ष प्रस्ताव रखा कि यदि वह अपनी गलतियों को स्वीकार कर अंग्रेजों से माफी मांग ले, तो वह पुन: रास- रंग की दुनिया सजा सकती है। अन्यथा उसे कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी।
अंग्रेजों का यह प्रस्ताव सुनकर अजीजन बाई ने घायल शेरनी की भाँति हुंकार उठी। दो टूक जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि माफी तो अंग्रेजों को मांगनी चाहिए, जिन्होंने भारतवासियों पर इतने जुल्म किये हैं। उनके इस अमानवीय कृत्य के लिए वह जीते जी उन्हें कदापि माफ नहीं कर सकती। अंग्रेजों की भरी सभा में यह कहने का अंजाम उन्हें मालूम था, पर स्वाधीनता के दीवाने को कब इसकी फिकर हुई है।
एक नर्तकी से ऐसा जवाब सुनकर अंग्रेज ऑफिसर तिलमिला उठे। और शीघ्र ही उन्होंने अजीजन बाई को मौत की सजा सुना दी। देखते ही देखते अंग्रेज सैनिकों ने उसके शरीर को गोलियों से छलनी कर डाला।
अंग्रेजों ने अजीजन बाई को मिटा डाला, पर वह स्वाधीनता चेतना को नहीं मिटा सका, जो अजीजन ने लाखों भारतीय स्त्रियों में भर दिया। यह अलग सवाल है कि भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में जो स्थान नाना साहब, तात्या टोपे, वीर कुंवर सिंह, मंगल पांडेय और रानी लक्ष्मीबाई आदि को मिला, वह स्थान अजीजन बाई को नहीं दिया गया। आज जब हम आजादी के पचहत्तर साल पार कर चुके हैं, तब अजीजन बाई और उनके जैसे सैकड़ों गुमनाम युद्धाओं के श्रेय को इतिहास के अंधेरे से निकालकर नयी पीढ़ी तक पहुँचाने की आवश्यकता है।*********************************
लेखक श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक और अध्यक्ष हैं।
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