जयशंकर प्रसाद हिन्दी के चर्चित नाटककार हैं। उन्होंने अनेक ऐतिहासिक और पौराणिक नाटकों का सृजन किया। प्रसाद जी को सर्वाधिक सफलता ऐतिहासिक नाटकों के सृजन में मिली है। वह भारत के गौरवमयी अतीत को अपनी मौलिक प्रतिभा से प्राणवान और सरस बना दिया है। अक्सर इतिहास और ऐतिहासिक संदर्भ पाठकों को लिए नीरस माना जाता है, परंतु प्रसाद जी ने इतिहास और कल्पना का मणिकांचन संयोग कर, उसे बेहद रोचक बना दिया है। उन्होंने सर्वत्र संभाव्य कल्पना की योजना की है। उनकी कल्पना वायवीयता की सीमा से परे है।
‘स्कन्दगुप्त’ नाटक का काल (275 ई. से 540 ई.) अतीतकालीन भारत के चरम विकास का काल माना जाता है। उस समय तक आर्य-साम्राज्य का विकास मध्म एशिया से लेकर जाबा और सुमात्रा आदि सुदूर पूर्वी द्वीपों तक हो चुका था। स्कन्दगुप्त नाटक का नायक स्कन्द इसी गुप्त वंश का देदीप्यमान नक्षत्र था। किन्तु उसके राज्याभिषेक के पूर्व ही साम्राज्य में आन्तरिक कलह एवं विघटन होना प्रारम्भ हो गया था। स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य का शासनकाल वस्तुतः निर्वाणोन्मुख दीपशिखा की अन्तिम ज्योति की भाँति शक्तिशाली गुप्त-साम्राज्य के पतन का काल है। स्कन्दगुप्त प्रसाद के नाटक का धीरोदात्त नायक है। उसमें गम्भीरता, धैर्यशीलता, शक्ति-शील-सौन्दर्य एवं विनम्रता का अद्भुत सामंजस्य पाया जाता है। प्रसादजी ने प्रस्तुत नाटक के कथा-शिल्प के निर्माण के लिए कौसल के मूर्ति और लेख, इन्दौर के ताम्र-पत्र, ‘कथासरित्सागर’ तथा ‘राजतरंगिणी’, ‘गाथासप्तशती’, ‘कालकाचार्य की कथा’, ‘प्रबन्धकोष’, ‘स्मिथ का इतिहास’, जल्हण की ‘सुक्ति-मुक्तावली’ एवं कालिदास के ग्रन्थों को आधार बनाया है। बिहार, भिटारी और जूनागढ़ के लेखों से भी स्कन्द के चरित्र एवं उसके महत्त्वपूर्ण कार्यों की जानकारी मिलती है, फिर भी इस नाटक के लिए जो ऐतिहासिक सामग्री ली गयी है, वह अत्यल्प है। अतः इसे ‘पूर्ण ऐतिहासक’ नाटक न मानकर ‘अर्द्ध ऐतिहासिक’ या ‘स्वच्छन्द ऐतिहासिक नाटक मानना अधिक उचित होगा। ‘स्कन्दगुप्त’ नाटक की कहानी उसके नायक स्कन्दगुप्त के अनासक्त कर्मठ व्यक्तित्व की गौरवगाथा है। उसकी दुर्बलताओं, शक्ति- प्रदर्शन, प्रेम, त्याग आदि अन्तर्द्वन्द्वों के विकास की कहानी है। स्कन्दगुप्त के चरित्र में नाटककार ने पाश्चात्य व्यक्ति-वैचित्र्य और भारतीय साधारणीकरण का सुन्दर समन्वय किया है।
स्कन्दगुप्त नाटक का सबसे शक्तिशाली पात्र है। वह अलौकिक प्रतिभासम्पन्न, सबकी आशाओं का ध्रुवतारा एवं उदात्त चरित्र से सम्पन्न है। उसी के नाम पर नाटक का नामकरण किया गया है। उसमें कुलशील की श्रेष्ठता के साथ ही शान्त सहज प्रकृति, दृढ़ संकल्प एवं गम्भीर भावनाओं का अद्भुत संयोग है। वह गुप्त-कुल का अभिमान एवं आर्य चन्द्रगुप्त की अनुपम प्रतिकृति है। मालव-नरेश बन्धुवर्मा की दृष्टि में ‘स्कन्दगुप्त उदार वीर हृदय, देवोपम सौन्दर्य, इस आर्यावर्त का एक मात्र आशास्थल, इस युवराज का विशाल मस्तक कैसी वक्रलिपियों से अंकित है। अन्तःकरण में तीव्र अभिमान के साथ घोर विराग भी है। आँखों में एक जीवनपूर्ण ज्योति है।’
प्रारम्भ में स्कन्दगुप्त विरक्त और विचारवान दिखाई पड़ता है। वह अधिकार सुख को सर्वथा मादक और सारहीन समझता है। उसमें तितिक्षा और वैराग्य की भावना कूट- कूट कर भरा है। विचारों की गम्भीरता के कारण वह शान्त प्रकृति का है। गुप्त साम्राज्य के उत्तराधिकार-नियमों से भी उसमें चिन्ता का आविर्भाव होताहै। अपने भावी जीवन में उग्र परिस्थितियों से संघर्ष करने के कारण जब वह अन्त में प्रेम की शीतल छाया का भी अभाव पाता है, तब उसकी विरक्ति और अधिक बढ़ जाती है। उसके जीवन की इतनी अधिक विरक्तिपरक चिन्तना नाटक के नायक होने में एक प्रश्न चिह्न लगाती है। फिर भी स्कन्दगुप्त की यह अतिरंजित विराग-भावना उसके व्यक्तित्व को शिवत्व प्रदान कर देबोपम बनाने में सहायक सिद्ध होती है। स्कन्द का जीवन महत्त्वाकांक्षाओं से प्रेरित न होकर अनासक्त कर्तव्य पालन के रूप में गतिशील होता है। वह स्वयं को साम्राज्य का एक सैनिक समझता है। मालव में राज्याभिषेक के अवसर पर गोविन्द गुप्त से कहता है, “इस समय मैं एक सैनिक बन सकूँगा, सम्राट् नहीं।” उसके हृदय में सदैव आदर्शों एवं यथार्थ जगत के कार्य-व्यापारों के बीच संघर्ष छिड़ा रहता है, फिर भी वह कभी आदर्श का पल्ला नहीं छोड़ता है। जिस समय भटार्क के कचक्रों के कारण विदेशी आक्रमणकारी सफलता प्राप्त करते हैं और कुंभा के रण-क्षेत्र में स्कन्द की सेना पराजित होती है। उस वक्त स्कन्दगुप्त विक्षुब्ध होकर भविष्य की बात सोचने लगता है। उसे न तो अपने दुखों की चिन्ता होती है और न संसार के आक्षेपों की। उसे तो यही ग्लानि मारे डालती है कि, “यह ठीकरा इसी सिर पर फूटने को था, आर्य- साम्राज्य का नाश इन्हीं आँखों से देखना था। यह नीति और सदाचारों का महान् आश्रय वृक्ष गुप्त साम्राज्य हरा-भरा रहे और कोई भी इसका उपयुक्त रक्षक हो।” स्कन्दगुप्त के इस कथन में उसका उदार और अनासक्त राष्ट्र-प्रेम अभिव्यक्त हुआ है। उसका निर्लिप्त राष्ट्र-प्रेम परमुखापेक्षी नहीं है,अन्यथा अतुल पराक्रम से अर्जित राज्यों को वह अपने छोटे भाई पुरगुप्त को देने की कामना न करता। शुद्ध बुद्धि से प्रेरित सच्चे कर्मयोगी की भाँति वह न तो किसी से शत्रुता पालता है और न ही उसकी कोई व्यक्तिगत लालसा है। देश-प्रेम से संबलित कर्तव्य-भावना से प्रेरित होकर दृढ़ आत्म-विश्वास के साथ वह एक स्थल पर भटार्क से कहता है, “भटार्क। यदि कोई साथी न मिला तो साम्राज्य के लिए नहीं, जन्म-भूमि के उद्धार के लिए मैं अकेला युद्ध करूंगा।”
स्कन्दगुप्त यदि कोरा आदर्शवादी बनकर राष्ट्र की समस्याओं को सुलझाने से तटस्थ हो जाता तो वह अपने कर्मठ कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्त्व में एक प्रश्नचिह्न लगा लेता। स्कन्दगुप्त के आदर्श संघर्ष एवं समस्याओं की तीव्र लपटों में न झुलसकर और अधिक भास्वर हो उठते हैं। वह शर्वनाग, भटार्क, अनन्त देवी के जघन्य कार्यों को माता देवकी की आज्ञा से क्षमादान द्वारा दण्डित करता है। नाटककार ने स्कन्द के चरित्र में निर्लिप्त कर्तव्य-निष्ठा के अतिरिक्त प्रणय-भाव के मधुर पक्ष का चित्रण भी बड़ी कुशलता के साथ किया है। वह यौवन की प्रारम्भिक बेला में विजया के सौन्दर्य से आकृष्ट होता है। उसका प्रणय सतही न होकर सागर की सी गम्भीरता एवं विशालता छिपाये हुए है। विजया द्वारा भटार्क को पति रूप में वरण करने के कथन को सुनकर वह क्षुब्ध हो उठता है और स्वाभाविक आवेग में कह पड़ता है, “परन्तु विजया तुमने यह क्या किया ?” इस स्वप्न के भंग हो जाने पर स्कन्द गुप्त के जीवन में देवसेना का प्रवेश होता है। श्मशान में मृत्यु के मुख में पड़ी देवसेना उसके शौर्य संबलित सौन्दर्य का ध्यान करती है और स्कन्द छिपा हुआ सुनता है। हूणों के दमन कार्य में रत हो जाने से उसे एक दीर्घ समय तक देवसेना से मिलने का अवकाश नहीं मिलता। पुनर्मिलन होने पर स्कन्द की सात्विक प्रणय-भावना इन शब्दों में मुखर हो उठती है, “जीवन के शेष दिन, कर्म के अवसाद में बचे हुए हम दुःखी लोग एक दूसरे का मुँह देखकर काट लेंगे। इस नन्दन की बसन्त श्री, इस अमरावती की सची, इस स्वर्ग की लक्ष्मी तुम चली जाओ……… ऐसा मैं किस मुँह से कहूँ?” स्कन्दगुप्त के चरित्र की विशेषताओं पर नाटक के अन्य पात्रों द्वारा प्रकाश पड़ता है।
मातृगुप्त कहता है- “प्रवीर उदारहृदय स्कन्दगुप्त कहाँ है! वह अपनी करुणापरक वाणी में उसका आवाहन करता है। रामा उसके लोकोत्तर चरित्र की स्मृति में प्रलाप करती हुई कहती है “वही स्कन्द, रमणियों का रक्षक, बालकों का विश्वास, वृद्धों का आश्रय और आर्यावर्त की छत्र छाया।” इस प्रकार लोकोत्तर उदात्त चरित्र से सम्पन्न, कर्तव्यनिष्ठा एवं देश-प्रेम की भावना से सराबोर स्कन्दगुप्त सबकी आशा का केन्द्र प्रोज्ज्वलित ध्रुवतारा सिद्ध होता है।
कुल मिलाकर स्कन्दगुप्त प्रसाद-साहित्य का श्रेष्ठ चरित्र है, जिनमें एक उदात्त नायक के सभी गुण विद्यमान हैं। मानवीय संवेदना से संयुक्त यह चरित्र निश्चय ही अनुकरणीय है।