स्कंदगुप्त : एक विहंगावलोकन

हिन्दी नाट्य लेखन परंपरा का प्रवर्तन भारतेन्दु- युग में हुआ, परंतु इस विधा को सृजनात्मक उत्कर्ष प्रसाद-युग में प्राप्त हुआ। जयशंकर प्रसाद ने पौराणिक, ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ को आधार बनाकर कुल बारह नाटकों की रचना कीं। यथा-‘सज्जन'(1910 ई.), ‘करुणालय’ (1913 ई.), ‘प्रायश्चित'(1913 ई,), ‘राजश्री’ (1914 ई,), ‘विशाख'(1921 ई,),’अजातशत्रु'(1922 ई,), ‘जनमेजय का नागयज्ञ’ (1926 ई,),’कामना’ (1927 ई.), ‘स्कंदगुप्त'(1928 ई.), ‘एक घूंट'(1929 ई.), ‘चन्द्रगुप्त'(1931 ई.) और ‘ध्रुवस्वामिनी'(1933 ई.)।

अपने ऐतिहासिक नाटकों में प्रसादजी ने भारत के गौरवमयी अतीत को केंद्र में रखते हुए वर्तमान की समस्याओं को उजागर किया है। प्रसादकृत नाटक ‘स्कन्दगुप्त’ 1928 ई० में प्रकाशित हुआ। यह वही दौर है, जब भारतीय राजनीति अंतर्कलह और बाह्य आक्रमण से जूझ रही थी। नाटककार ने वर्तमान समय के सूत्र को अतीत से खोज निकाला है। इसीलिए यह कहना कि प्रसाद जी नाटकों के बहाने इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ रहे थे,असंगत होगा। वह ‘ट्रैडिशन और इण्डिविजु अल टैंलेंट का भरपूर उपयोग करते हैं। आलोच्य नाटक की रचना गुप्त युग की हासोन्मुख अवस्था को लेकर हुई है,जिनकी एक कडी वर्तमान से जुड़ी थी। चूँकि उस समय बाहर से बर्बर हूणों के आक्रमण हो रहे थे और इधर राज-परिवार में पारस्परिक विद्वेष फैला हुआ था। मालवा पर संकट के मेघ छा गये थे। समस्त सौराष्ट्र को म्लेच्छों ने पदाक्रान्त कर दिया था।

पाँच अंकों के इस नाटक में मुख्य कथा स्कन्दगुप्त से सम्बन्ध रखती है। अपनी महत्त्वाकांक्षा में पागल अनन्त देवी अपने पुत्र पुरगुप्त के लिए राज-सिंहासन चाहती है। वह प्रपंच बुद्धि और भट्टारक के साथ मिलकर अनेक तरह से षड्यन्त्र रचती है। नाटक में अनेक उत्थान-पतन आते हैं, पर अन्त में स्कन्दगुप्त हूणों को परास्त कर देता है और गुप्त साम्राज्य अपने भाई पुरगुप्त के हाथों सौंप देता है। ‘स्कुन्दगुप्त’ नाटक का मुख्य आकर्षण उसका द्वन्द्व है। यह द्वन्द्व और संघर्ष दो भूमियों पर चित्रित होता है। राजनीतिक संघर्ष में राज-परिवार का अपना आन्तरिक कलह है। शक, हूण, मंगोलों के आक्रमण हैं। गप्त साम्राज्य जैसे संकटों से घिर गया हो, सम्राट् कुमारगुप्त अपनी विलासिता में खोये हैं। ऐसे अवसर पर स्कन्दगुप्त एक नक्षत्र की भाँति उदित होता है और अन्त में दस्युओं को परास्त करता है। नाटक में एक दूसरा द्वन्द्व भी है, जिससे पात्रों के आन्तरिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। ऐतिहासिक पात्रों में इस प्रकार के अन्तर्द्वन्द्व की योजना उन्हें निष्प्राण होने से बचा लेती है। वे एक मानवीय भूमिका पा जाते हैं। स्कन्दगुप्त और देवसेना की प्रेमकथा इसी आन्तरिक द्वन्द्व से सम्बन्धित है। नाटक के आरम्भ में ही स्कन्द में एक निर्लिप्त भाव विखाई देता है। वह कहता है-“अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है।” वह हूणों और शकों पर विजय प्राप्त करके भी अपनी प्रियवस्तु देवसेना को नहीं पाता। जैसे राजा होकर भी वह रिक्त है। पुरगुप्त के लिए राज्य सौंप कर वह वैराग्य भावना का जो परिचय देता है, वह भारतीय समाज के समक्ष एक आदर्श की प्रस्तुति है। देवसेना प्रसाद की चरित्रसृष्टि में भावना की दृष्टि से सर्वोत्तम स्त्री पात्र कही जा सकती है। प्रेम का जो आदर्श उसमें निहित है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इन दो मुख्य द्वन्द्वों के अतिरिक्त यहाँ बौद्धों और ब्राह्मणों के विभेद और संघर्ष हैं। गुप्त युग में सनातन धर्म को पुनर्जीवन प्राप्त हुआ। ब्राह्मणों, बौद्धों की संकुचित मनोवृत्ति नाटक में प्रदर्शित है। अन्तर्द्वन्द्व में विजया का चरित्र अतिशय परिवर्तनशील है। प्रलोभनों से घिरी यह नारी अनेक बार प्रेम करती है।

‘स्कन्दगुप्त’ की रचना में प्रसाद जी के प्रमुखत: दो उद्देश्य दृष्टिगत होते हैं। पहला, राष्ट्रीय, सांस्कृतिक भावना से परिचालित होने के कारण उन्होंने शक, हूणों पर स्कन्द की विजय घोषित की है। यह एक प्रकार की सांस्कृतिक विजय है, जो ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक में भी विद्य‌मान है। दूसरा, गुप्त साम्राज्य जब हासोन्मुख अवस्था में था, उस अवसर पर स्कन्द के रूप में एक वीर नायक का प्रतिष्ठापन प्रसाद की राष्ट्रीय भावना पर आधारित है। ‘स्कन्दगुप्त’ नाटक का अन्तर्द्वन्द्व उसका प्रमुख आकर्षण है। देवसेना अपनी आदर्शवादिता में इस धरती का पात्र नहीं प्रतीत होतीं। प्रेम और संगीत उसके जीवन के दो प्रमुख अंग हैं। प्रेम में जो त्याग वह करती है, उससे उसका गौरव बढ़ जाता है। स्कन्दगुप्त नाटक के सभी चरित्र अपना एक खास व्यक्तित्व रखते हैं। उनका अपना विशिष्ट स्वरूप है- अच्छा या बुरा जो भी हो। शिल्प की दिशा में प्रसाद ने सफलता प्राप्त की है क्योंकि उन्होंने ऐतिहासिक, राजनीतिक घटनाओं को पारिवारिक और व्यक्तिगत घटनाओं से सम्बद्ध कर दिया है। यहाँ दोनों का मेल हो गया है। समस्त वस्तु विन्यास दो भूमियों पर चलता दिखाई देता है, जो चरित्रों को आकर्षक बनाता है। ‘स्कन्दगुप्त’ में घटना-व्यापार पर्याप्त गति से आगे बढ़ते दिखाई देते हैं। प्रश्न है कि यह नाटक सुखान्त है अथवा दुःखान्त। राजनीतिक जीवन में पुरगुप्त के लिए एक निष्कण्टक राज्य छोड़कर भी नाटक का नायक स्कन्द व्यक्तिगत जीवन में रिक्त है, क्योंकि वह देवसेना को नहीं पाता। ‘स्कन्दगुप्त’ नाटक की रचना जीवन की स्वाभाविक गतिविधि को ध्यान में रखकर की गयी है इसलिए उसे किसी विशेष वर्ग में नहीं रखा जा सकता।

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