हिन्दी साहित्य में ‘भ्रमरगीत-प्रसंग’ उद्धव-गोपी संवाद से सम्बन्धित रचनाओं के लिए प्रचलित है। ऐसी काव्य रचनाएँ, जिनमें उद्धव एवं गोपियों के संवाद की योजना करते हुए ज्ञान एवं योग का खण्डन तथा प्रेम और भक्ति का मण्डन किया जाता है- ‘भ्रमरगीत’ के नाम से जानी जाती हैं। इस श्रृंखला की कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं -सूरदास का ‘भ्रमरगीत-प्रसंग’, नन्ददास का ‘भंवरगीत’, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का ‘प्रियप्रवास’, जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ का ‘उद्धव शतक’ एवं सत्यनारायण कविरल का ‘भ्रमरदूत’। यद्यपि इन सभी रचनाओं के कथानकों में भिन्नता है, तथापि अपने कथ्य के कारण वे भ्रमरगीत-परम्परा की रचनाओं में परिगणित हैं।
उद्धव-गोपी संवाद का मूल स्रोत ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ है। श्रीकृष्ण ने अपने सखा उद्धव के अहंकार को नष्ट करने के लिए तथा उन्हें प्रेम और भक्ति की महत्ता समझाने के लिए ब्रज में भेजा। ज्ञान और योग के प्रकाण्ड पण्डित उद्धव ब्रज में आकर गोपियों को ज्ञान-योग का उपदेश देने लगे, किन्तु गोपियों को उनकी यह बात अच्छी नहीं लगी। गोपियाँ उन पर व्यंग्य वाणों की वर्षा करने लगीं तथा यह सब उन्होंने ‘भ्रमर’ के ब्याज से किया। जो बातें वे शालीनता एवं शिष्टता के कारण उद्धव से सीधे-सीधे नहीं कह सकीं, उन्हें ‘मधुप’, ‘मधुकर’, ‘अलि’ आदि के बहाने सम्बोधित करते हुए उद्धव से कहा। गोपियों के इन कथनों को ‘भ्रमरगीत’ इसीलिए कहा गया है। भ्रमर के माध्यम से उद्धव तथा उद्धव के ब्याज से श्रीकृष्ण के प्रति अपने उपालम्भ को गोपियाँ प्रेषित करना चाहती थीं। श्रीकृष्ण की प्रवृत्ति को भी वे भ्रमरवृत्ति कहती हैं, जिसने पहले तो हम गोपियों से प्रेम किया और जब हमसे मन भर गया तो कुब्जा से प्रीति जोड़ ली।
उक्त विवेचन के आधार पर भ्रमरगीत काव्य के लिए निम्न लक्षण निर्धारित किए जा सकते हैं:
(1) यह उद्धव-गोपी संवाद है।
(2) इसमें मधुकर, मधुप, अलि, मधुकर आदि सम्बोधन उद्धव के लिए हैं तथा उद्धव के ब्याज से गोपियाँ कृष्ण तक अपना उपालम्भ व्यंजित करती हैं।
(3) भ्रमरगीत प्रसंग का मूल उद्देश्य निर्गुण का खण्डन तथा सगुण का मण्डन करने के साथ-साथ ज्ञान-योग का खण्डन एवं प्रेम-भक्ति का मण्डन करना है।
सूरदास के भ्रमरगीत में गोपियों की विरह वेदना की अभिव्यक्ति हुई है। साथ ही निर्गुण की अपेक्षा सगुण ब्रह्म को अधिक महत्त्व प्रदान किया गया है। ज्ञानी उद्धव योग का जो सन्देश गोपियों के लिए लाए हैं, उसे गोपियाँ कदापि स्वीकार नहीं करतीं। सूर की गोपियाँ नन्ददास की गोपियों की तुलना में भावुक अधिक हैं, तथापि वे उद्धव की बोलती बन्द करने में भी समर्थ रही हैं। निश्चय ही सूर की गोपियों में वाग्विदग्धता एवं वचन-वक्रता है। वे कृष्ण की अनन्य प्रेमिकाएँ हैं। वे कहती हैं कि ‘हे उद्धव! किसी को मन से ही स्वीकार किया जाता है। अब मन तो एक ही होता है जो हम श्रीकृष्ण को पहले ही समर्पित कर चुकी हैं:
“ऊधो! मन नाहीं दस बीस।
एक हुतो सो गयो स्याम संग को अराध तुव ईस।।
भई अति सिथिल सबै माधव बिनु जथा देह बिन सीस।
स्वासा अटकि रहे आसा लगि जीवहिं कोटि बरीस।।”
इसी प्रकार सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग में विषय प्रतिपादन की स्थिति बड़ी सरल, किन्तु प्रभावी है। गोपियाँ उद्धव के समक्ष निर्गुण के खण्डन के तर्क कम प्रस्तुत करती हैं, भावात्मक बोध का संकेत अधिक करती हैं। उन्हें श्रीकृष्ण के प्रति अपनी एकनिष्ठ अनन्य भक्ति, प्रेम के आवेग का उल्लेख करना ही अभीष्ट प्रतीत होता है। निम्न पंक्तियों के द्वारा उपर्युक्त कथन की पुष्टि की जा सकती है :
“उर में माखनचोर गड़े।
अब कैसेहु निकसत नहिं ऊधो! तिरछे ह्वै जु अड़े।।
जदपि अहीर जसोदा नन्दन तदपि न जात छड़े।
वहां बने जदुवंस महाकुल हमहिं न लगत बड़े।।”
यहाँ गोपियाँ जिस श्रीकृष्ण की प्रेमाभक्ति में अवगाहन करती दिखाई गई हैं, वह उनका सखा, रास क्रीड़ा करने वाला प्रिय, रसमादक नायक ही है। तब भ्रमरगीत प्रसंग की परम्परा से कुछ अर्थों में सूरदास ने अपने इस वैशिष्ट्य की रक्षा की है कि तर्कसम्मत शास्त्रीय विवेचन या तर्क आधारित निर्गुण का खण्डन यहाँ कम ही मिलता है।
इस दिशा में सूरदास ने निर्गुण के खण्डन के प्रयास में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण ढंग से अपनी गोपियों से कुछ ऐसे सहज प्रश्न अवश्य कराए हैं, जिनको सुनकर उद्धव को निरुत्तर हो जाना पड़ा। यही कारण है कि सूर का ‘भ्रमरगीत प्रसंग’ इतना सहज बन पड़ा है कि भाव-विह्नल गोपियाँ अपनी विरहानुभूति का निवेदन करती हैं, श्रीकृष्ण और उद्धव को उपालम्भ देती हैं, किन्तु जब उनके द्वारा प्रतिपादित निर्गुण-निराकार ब्रह्म की खिल्ली उड़ाती हैं तो उद्धव को बहुत ही दयनीय स्थिति में ले जाकर खड़ा कर देती हैं। निम्न उदाहरण उपर्युक्त कथन की पुष्टि के लिए उद्धृत है
“काहे को रोकत मारग सूधो?
सुनहु मधुप! निर्गुन कंटक ते राजपंथ क्यों रुंधों।”
इतना ही नहीं जब गोपियाँ प्रश्न करती हैं कि तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म कहाँ रहता है, कौन उसका बाप है? कौन उसकी मां? तो उद्धव निरुत्तर हो जाता है। पंक्ति देखिये :
“निर्गुन कौन देस को बासी?
मधुकर हँसि समुझाइ, सौंह दै बूझति सांच न हांसी।
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी?”
इसके साथ ही इन सहज प्रश्नों की झड़ी लगा दी गई है, किन्तु इन प्रश्नों को इसी आधार पर पूछा गया है कि जब किसी का अस्तित्व होगा, कोई व्यक्ति होगा तो उसकी कोई अभिलाषा अवश्य होगी, उसकी रुचि भी होगी, कोई वेशभूषा भी होगी। बस यही है प्रस्तुत प्रश्नावली का आधार :
“कैसो बरन भेस है कैसो केहि रस में अभिलासी।”
इन प्रश्नों का जो प्रभाव उद्धव पर पड़ा उसका बड़ा सजीव चित्र इस चरण में अंकित कर दिया गया है
“सुनत मीन ह्वै रह्यौ ठग्यो सो सूर सबै मति नासी।”
सूरदास ने भ्रमरगीत प्रसंग में गोपी-उद्धव संवाद को योजना करते हुए गोपियों द्वारा उद्धव की जो खिल्ली उड़ाई है, उसका बड़े विस्तार के साथ मनोवैज्ञानिक विवेचन किया गया है। उद्धव को योग का व्यापार करने वाला बताकर गोपियाँ यह व्यंग्य करती हैं कि उसके पास जो सौदा है, वह बड़ा महंगा है, गाँव में इसे कौन खरीद सकता है। योग- ज्ञानोपदेश के अनौचित्य पर इससे बड़ा करारा प्रहार और क्या हो सकता है। यह जोग ठग विद्या है, हम इसके झांसे में नहीं आने वाली :
“जोग ठगौरी व्रज न बिकेहै।
यह ब्यौपार तिहारो ऊधो। ऐसोई फिरि जेहे।।
जापै ले आए हो मधुकर ताके उर न समैहै।
दाख छांड़ि के कटुक निवौरी को अपने मुख खैहै?”
इतना ही नहीं आपस में गोपियाँ जब उद्धव को लक्ष्य करके तिरस्कृत वाच्य-ध्वनि छोड़ती हैं, तो ‘भ्रमरगीत’ प्रसंग की सहजता का अनायास ही परिचय प्राप्त हो जाता है। इस उदाहरण में गोपियों के सहज व्यंग्यों का रूप देखा जा सकता है:
“आयी घोष बड़ौ ब्यौपारी।
लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आय उतारी।।
घुर ही तें खोटो खायो है लिये फिरत सिर मारी।
इनके कहै कौन डहकावे ऐसी कौन अजानी।।”
गोपियों को निर्गुण ब्रह्म नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के सम्मुख फीका प्रतीत होता है। निराकार ब्रह्म की तुच्छता निरूपित करती हुई गोपियाँ कहती हैं :
“ए अलि कहा जोग में नीको
तजि रस रीति नन्दनन्दन की सिखवत निरगुन फीको।।
देखत सुनत नाहि कछु सवननि जोति-जोति करि घावत।
सुन्दर स्याम कृपालु दयानिधि कैसे ही विसरावत।।”
गोपियाँ उद्धव से यह भी कहती हैं कि तुम यहाँ ब्रज में निर्गुण ब्रह्म का प्रचार करने तथा योग का उपदेश देने आए हो पर यहां तुम्हारे इस मत को कोई स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि ब्रज में तो सब गोपाल कृष्ण की उपासिकाएं हैं, योग साधना करने वाले तो काशी में रहते हैं:
“गोकुल सबै गोपाल उपासी।
जोग अंग साधत ने ऊधो! ते सब बसत ईसपुर कासी।”
सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग की एक अन्य उल्लेखनीय उपलब्धि यह भी मानी जा सकती है कि भ्रमरगीत प्रसंग के मुख्य उद्देश्य निर्गुण के खण्डन और सगुण के मण्डन या प्रेमभक्ति की ज्ञान-योग पर विजय को बड़े काव्यात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। गोपियां उपालम्भों द्वारा श्रीकृष्ण को खरी-खोटी सुनाती है “काहे को गोपीनाथ कहावत कहकर फटकारती है या उद्धव को श्रीकृष्ण की बात तक करने या उनकी चर्चा तक चलाने से रोकती हैं :
”कहत कत परदेसी की बात।
मन्दिर अरघ-अवधि बदि हम सी हरि अहार चलि जात।”
और इसी क्रम में सूर ने गोपियों के मन में उभरती हुई नारियोचित ईर्ष्या-भावना का बड़ा ही सहज चित्र प्रस्तुत करके यह दिखा दिया है कि भ्रमरगीत प्रसंग केवल दार्शनिक विवेचन पर आधारित पदों का संग्रह भर नहीं है अपितु मानवीय चित्त-वृत्तियों का सहज पिटारा है। भ्रमर का तो ब्याज है। वे कुब्जा से सीतिया डाह करती हुई कहती हैं :
“जीवन मुंहचाही की नीकौ।
दरस-परस दिन-रात करति है, कान्ह पियारे पी को।”
इस प्रकार सूरदास ने ‘भ्रमरगीत’ प्रसंग के अन्तर्गत गोपी-उद्धव संवाद के प्रसंग को बहुत सजीव ढंग से चित्रित किया है। उसमें निर्गुण पर सगुण की विजय का दार्शनिक उद्देश्य तो है, किन्तु कोरा दार्शनिक विवेचन मात्र नहीं। सूरदास मानव हृदय के पारखी कवि हैं, इसीलिए भ्रमरगीत प्रसंग में गोपियों की मनोदशा का बड़ा सूक्ष्म पर्यवेक्षण करते हुए उन्होंने गोपियों की भाव-विह्नल दशा के चित्र उतारे हैं। कहीं श्रीकृष्ण के लम्पट प्रेमी रूप पर व्यंग्य वाण चलाए जाते हैं, तो कहीं कुब्जा पर प्रहार किए जाते हैं। कहीं उद्धव द्वारा प्रतिपादित निर्गुण-ब्रह्म की खबर लेने से गोपियाँ चुकती नहीं हैं। कुल मिलाकर सूर का भ्रमरगीत प्रसंग प्रतिपाद्य की दृष्टि से बहुत प्रभावोत्पादक, मनोवैज्ञानिक, सहज एवं भाव-विह्वल करने वाला काव्यांश है।
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