साहित्य का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण

‘साहित्य का समाजशास्त्र’ एक विधा के रूप में विकसित हो गया है, जिसमें साहित्य और समाज के अंतर्संबंधों का अध्ययन किया जाता है। इस विधा में साहित्य के अध्ययन की विधियाँ, नाटकीय प्रस्तुति, रचनाकारों और पाठकों की सामाजिक और वर्गीय स्थिति शामिल है। साहित्य के समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण को मुख्यत: दो रूपों में समझा जा सकता है। इसमें लोकप्रिय और परंपरागत दृष्टिकोण के अनुसार साहित्य को ‘समाज का दर्पण’ माना गया है। साहित्य का ‘दर्पण -बिम्ब’ वाला दृष्टिकोण साहित्य को एक सामाजिक दस्तावेज मानता है। इसके अनुसार साहित्य सामाजिक संरचना के विभिन्न पक्षों, संबंधों, प्रवृत्तियों, संघर्षों यानी समाज की बनावट और बुनावट का सीधा प्रतिबिंब है। इस नजरिये से साहित्य ‘सूचनाओं का संग्रह’ के रूप में इस्तेमाल करने का खतरा पैदा करता है, जबकि सच में महान रचनाकार सामाजिक जगत का सीधे-सीधे चित्रण नहीं करता है। लेखक का दायित्व कहीं इससे जटिल होता है। अक्सर कल्पित स्थितियों में उसके गतिशील पात्र अपनी निजी नियति का संधान तो करते ही हैं, साथ ही सामाजिक जगत में मूल्यों और अर्थवत्ता की तलाश भी करते दिखाई पड़ते हैं। अतएव, प्रतिभासंपन्न रचनाकार उसकी कमियों को दूर कर उसे नवीन रूप में उपस्थापित करता है। इस संदर्भ में अरस्तू का मंतव्य बेहद फिट बैठता है, जिसमें उन्होंने कहा कि ‘अनुकर्ता होने के नाते सर्जक/कवि तीन में से किसी एक चीज का अनुकरण करता है- ‘जो वस्तु जैसी थी या है’,’उसे जैसा कहा या माना जाता है’, और ‘उसे जैसा होना चाहिए’।’ इसमें रचनाकार वैसी वस्तु का भी निर्माण करता है, जिसकी सत्ता पूर्व से नहीं है। यहाँ ‘उसे जैसा होना चाहिए’ पर जोर दिया गया है। यही कारण है कि अरस्तू ने साहित्यकार को इतिहासकार से श्रेष्ठ माना, चूँकि इतिहासकार केवल अतीत की घटनाओं का वृत्तांत प्रस्तुत करता है, जबकि साहित्यकार उससे आगे बढ़कर यह भी बतलाता है कि ‘उसे कैसा होना चाहिए?’ साहित्य के समाजशास्त्र का दूसरा दृष्टिकोण रचनाकार की सामाजिक स्थिति पर, रचना के बजाय स्वयं उत्पादन पक्ष पर अधिक जोर देता है। इस नजरिए से ‘विचार का केन्द्र साहित्यिक पाठ के स्थान पर संरक्षण और उत्पादन की लागत हो जाता है। इस सिद्धांत की सबसे बड़ी समस्या होती है इस बात की व्याख्या करना कि साहित्यिक उत्पादन और खपत के नियामक तत्व किन्हीं विशिष्ट साहित्यिक रचनाओं के रूप में कथ्य को किस रूप में और किस हद तक प्रभावित करते हैं। निश्चित रूप से साहित्य की सही समझ के लिए उक्त दृष्टिकोण एक सीमा तक कारगर होता है, तथापि यहाँ इस बात का खतरा सदैव बना रहता है कि साहित्य को समझने का प्रयास अंतत: किन्हीं अंतर्निहित तत्वों को सूत्रों में घटाने का स्थूल प्रक्रिया भर होकर न रह जाए। ऐसी स्थिति में आशंका इस बात की हो सकती है कि साहित्यिक रचना अपने चारों ओर के वातावरण का उपतत्व भर बनकर रह जाए। साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन की उपर्युक्त दो प्रमुख स्थितियाँ एक दूसरे की पूरक हैं, परंतु व्यवहार में प्राय: कभी एक दृष्टि का आश्रय लिया जाता है, तो कभी दूसरी का। ‘विश्वदृष्टि’ की अवधारणा गोल्डमान के साहित्य के समाजशास्त्र का आधार है। उन्होंने रचना के स्तर पर विश्वदृष्टि का विश्लेषण करने के पूर्व उसकी पूरी प्रक्रिया का विश्लेषण किया कि किस प्रकार लेखक व्यक्ति रूप में किसी न किसी समूह का सदस्य होता है और समूह की सामाजिक गतिविधियाँ अपने सदस्यों की चेतना ‘मानसिक संरचनाओं’ को जन्म देती है, जो व्यक्ति की गतिविधियों को नियंत्रित करती है। कला एवं सामाजिक जीवन का संबंध कलाकृति की किसी विषय- वस्तु में निहित नहीं होता,उसमें उस जीवन से संबंधित घटनाओं और विशेषताओं का विवरण होता है। लूसिए गोल्डमान के अनुसार -“साहित्यिक रचना सच्ची और सामंजस्य के स्तर पर इस या उस समूह की चेतना के अनुकूल प्रवृत्तियों का प्रतिफल होती है और उस चेतना को गतिशील सच्चाई मानना होगा।” (साहित्य का समाजशास्त्रीय चिंतन- निर्मला जैन, भूमिका से) विश्वदृष्टि के संबंध में उनका कहना है -“विचारों, आकांक्षाओं और भावनाओं का ऐसा तंत्र है जो समाज में रहने वाले वर्ग विशेष के सदस्यों को परस्पर सहबद्ध करता है।” (वही) विश्वदृष्टि विचारों का पूर्ण तंत्र है, जैसे बुद्धिवाद, अनुभववाद, मार्क्सवाद आदि जो कुछ असाधारण व्यक्तियों, लेखकों द्वारा प्रदान की जाती है। यह संपूर्ण जीवन को अभिव्यक्त करती है और उसमें विशिष्ट समाज, समूह और वर्ग की चेतना समाहित होती है। कुल मिलाकर साहित्य का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण साहित्य और समाज के अंत: सूत्रों की तलाश करता है। वह स्पष्ट करता है कि साहित्य कभी भी समाज निरपेक्ष नहीं हो सकता। और न हीं समाज से परे साहित्य की कोई समीक्षा हो सकती है।*****************इतिश्री***********************

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