समाजवादी विचारधारा ने जितनी अधिक हलचल वर्तमान शताब्दी में उत्पन्न की है, उतनी अन्य किसी भी विचारधारा ने नहीं। आज ‘समाजवाद’ अन्य किसी भी विचारधारा की अपेक्षा अधिक व्यापक है। किसी -न – किसी रूप में यह संसार के करोड़ों मानवों का धर्म-सा बन गया है तथा उनके विचारों एव॔ कार्यों की रूपरेखा निर्धारित करता है। ‘समाजवाद’ तथा ‘समाजवादी’ शब्दों को विविध अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है, फिर भी शब्द और अर्थ का घनिष्ठ सम्बन्ध है। ‘समाजवाद’ शब्द भी इन सिद्धान्त का अपवाद नहीं है। ‘समाजवाद’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘सोशलिज्म’ का हिन्दी रूपान्तर है। ‘सोशलिज्म’ शब्द लैटिन भाषा के ‘सोसियस’ (Socius) शब्द से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है- साथी, सहायक अथवा भागाधिकारी। यह किसी ऐसे व्यक्ति को सूचित करता है जो समान कोटि अथवा व्यवस्था का हो। अतएव, समाजवाद का अर्थ है – भ्रातृत्व अथवा मित्रता, जिसमें सब मनुष्य समानता के भाव के साथ मिल-जुलकर काम करेंगे। राज्य के शासन के सम्बन्ध में यह प्रकट करता है कि प्रत्येक कार्य निष्पक्ष रूप से साधारण जनता की सेवा के लिए किया जायेगा। सम्भवतः समाजवाद के अतिरिक्त और किसी आन्दोलन पर न इतना अधिक विवाद हुआ है और न परिभाषा के विषय में इतनी कठिनाइयाँ ही उपस्थित हुई हैं। एक दृष्टि से समाजवाद एक परंपरा विरोधी नीति है, जिसके झण्डे के नीचे वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की समस्त विरोधी शक्तियाँ संगठित हो गयी हैं, जो पूँजीवाद के भिन्न-भिन्न पहलुओं, दोषों तथा दुर्बलताओं को दूर करने की चेष्टा करती हैं। फलतः समाजवाद जिन आन्दोलनों की ओर संकेत करता है, वे प्रारम्भिक बिन्दु और उद्देश्य में, साधनों और तथ्यों में इतने भिन्न हैं कि एक संक्षिप्त परिभाषा के अन्तर्गत उन सबका सन्तोषजनक वर्णन हो जाना सरल काम नहीं है। इसके अतिरिक्त समाजवाद एक जीवित आन्दोलन एवं सिद्धान्त दोनों है जो भिन्न ऐतिहासिक एवं स्थानीय स्थितियों में भिन्न रूप ग्रहण करता रहा है- “Socialism is both a Movement and theory and takes different forms under different historical and local conditions.”(1) रैम्जे म्योर ने उचित ही लिखा है कि “समाजवाद गिरिगिट के समान रंग बदलने वाला विश्वास है। यह वातावरण के अनुसार रंग बदलता है। सड़क के कोने तथा क्लब के कमरे के लिए यह वर्ग युद्ध का लोहित वस्त्र पहन लेता है। मानसिक पुरुषों के लिए इसका लाल रंग भूरे में परिवर्तित हो जाता है। भावनात्मक पुरुषों के लिए वह कोमल गुलाबी रंग का हो जाता है तथा क्लर्कों के समाज में यह कुमारियों का श्वेत वर्ण ग्रहण कर लेता है, जिसको महत्त्वाकांक्षा की मन्द मुस्कान का अभी अनुभव हुआ हो।”(2) श्री डान ग्रिफिथ्स ने 1924 ई. में एक पुस्तक ‘समाजवाद क्या है?’ सम्पादित किया, जिसमें उन्होंने समाजवाद की 263 परिभाषाएँ दी हैं। सन् 1892 ई. में पेरिस के लि फिगारों ने समाजवाद की 600 परिभाषाएँ प्रकाशित कीं। समाजवाद का मूल, विचार की अपेक्षा जीवन में तथा अध्ययन की अपेक्षा कारखानों, दुकानों तथा गन्दी गलियों में है। समाजवाद समाज के अस्तित्व एवं संगठन से सम्बन्धित बहुत से सिद्धान्तों का सम्मिश्रण है। समय- समय पर इसे धर्म तथा दर्शन की उपाधियाँ भी दी जाती रही हैं। 19वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में समाजवाद एक संगठित राजनीतिक शक्ति हो गया। इसकी आयोजनाएँ राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय हो गयीं और इसके प्रतिनिधि, दल तथा प्रेस स्थापित हो गये। अतएव समाजवाद पर इनमें से किसी एक अथवा समस्त दृष्टिकोणों से विचार किया जा सकता है और उसी के अनुसार परिभाषा बनाने के लिए प्रयास किया जा सकता है। बरट्रेण्ड रसेल का कथन है कि “समाजवाद का अर्थ -भूमि तथा पूँजी पर सार्वजनिक अधिकार करना है, साथ- ही -साथ लोकतान्त्रिक शासन भी स्थापित करना है। इसके अनुसार उत्पत्ति, प्रयोग के लिए है, लाभ के लिए नहीं, और उत्पत्ति का वितरण या तो सबको समान रूप से अथवा केवल इतना विषम हो जो कि जनता के लिए अहितकर न हो। यह अनुपार्जित धन तथा मजदूरों की जीविका के साधनों पर व्यक्तिगत अधिकार के निराकरण का समर्थक है। पूर्णरूप से सफल होने के लिए इसका अन्तरराष्ट्रीय होना आवश्यक है।”(3)
श्री डी. एच. कोल लिखते हैं कि “समाजवाद में सिद्धान्त की अपेक्षा विश्वास की भावना अधिक है। यह एक ऐसे समाज को स्थापित करने की इच्छा तथा योजना है, जिसका आधार सहयोग तथा भ्रातृभाव हो, जो संगठित मजदूरों के आन्दोलन द्वारा प्रतिफलित हो सके और यह समझे कि सामाजिक अधिकार तथा सामाजिक कर्तव्य समान हैं तथा जो उन वर्गीय सेवा-सम्बन्धी सभी प्रोत्साहन और प्रेरणा को स्वतन्त्र कर सके, जिनको पूँजीवाद अस्वीकार करता है। संक्षेप में यह मजदूर वर्ग का तत्त्व ज्ञान है जो आर्थिक अनुभव के द्वारा सीखा गया है और अपने को समय की परिस्थितियों के अनुसार एक रीति अथवा कार्य योजना में परिवर्तित कर लेता है। इसके द्वारा शासन प्राबल्य का विनाश होता है और वर्गीय आधिपत्य के मिट जाने से मनुष्य स्वतन्त्र हो जाते हैं।”(4)
जार्ज बर्नार्ड शॉ के अनुसार व्यक्तिगत सम्पत्ति व्यवस्था की पूर्ण समाप्ति एवं सार्वजनिक सम्पत्ति का सम्पूर्ण जनता में समान एवं भेदरहित विभाजन ही समाजवाद है। उन्हीं के शब्दों में, “Socialism is “the complete discarding of the institution of private property and the division of the resultant public income equally and indiscriminately among the entire population.”(5) परन्तु यह परिभाषा अपूर्ण है, क्योंकि सेण्ट साइमन एवं फोरियर के समाजवादी कार्यक्रम पर लागू नहीं होती, साथ-ही-साथ वर्तमान समाजवादी व्यवस्था के लिए भी अनुपयुक्त है। समाजवाद की प्रत्येक वह परिभाषा असफल है जो समाजवादी आन्दोलन के मुख्य उद्देश्य को दृष्टि से ओझल कर उसके केवल बाह्य लक्षणों पर अपना ध्यान केन्द्रित करती है। आस्कर जास्जी ने उचित ही कहा है कि, “एव्री definition must fail which focuses attention upon external features only and overlooks the central motif of all socialist Movements.”(6)
भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है। यहाँ समाजवाद के विकास की अत्यधिक संभावनाएँ हैं। यही कारण है कि यहाँ अनेक समाजवादी चिंतक हुए। यथा – महात्मा गाँधी, अंबेडकर, डाॅ. लोहिया, जय प्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव आदि। इन समाजवादी चिंतकों में आचार्य नरेन्द्र देव का नाम अग्रगण्य है। आचार्य नरेन्द्र देव एक ऐसे समाजवादी चिंतक थे, जो हमेशा समाज एवं देश की समस्याओं के विषय में ध्यान देते थे। आचार्य जी के अनुसार वर्तमान में समाज एवं देश के समक्ष तीन प्रमुख समस्याएँ हैं-1. भोजन की समस्या, 2. शिक्षा की समस्या तथा 3. रोजगार की समस्या। और इन समस्याओं के समाधान के लिये वह हमेशा प्रयत्नशील रहे।
आचार्य जी का समाज-दर्शन उपर्युक्त बिन्दुओं पर आधारित है। पाश्चात्य समाजवादी चिंतकों की तरह भारत के समाजवादी चिंतकों का मुख्य ध्येय समाज के निर्धन एवं कामगार वर्ग (working class) के हितों की रक्षा करने से था। भारत के समाजवादी विचारक सामाजिक -आर्थिक पुनर्निमाण के लिए उत्पादन के प्रमुख साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित करने के पक्षधर थे। यहाँ एक तथ्य विचारणीय है कि समाजवादी वस्तुतः भौतिकवादी होते हैं, उन्हें आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति विशेष आस्था नहीं होती है। भारत के कुछ समाजवादी विचारकों की आध्यात्मिकता के प्रति आस्था भी रही, फिर भी समाजवादियों के नाते उन्होंने समाज के कमजोर और वंचित वर्गों के हितों एवं भौतिक कल्याण के लक्ष्यों को अपने चिंतन में ऊपर रखा। आधुनिक भारत के समाजवादी विचारकों में आचार्य नरेन्द्र देव का नाम प्रमुख रूप से आता है। आचार्य नरेन्द्र देव जी, जयप्रकाश नारायण और डाॅ. लोहिया के समकालीन थे फिर भी उनके समाजवादी विचारों को किसी के साथ मिलाकर देखना उपयुक्त नहीं होगा। आचार्य नरेन्द्र देव आधुनिक भारत के ऐसे विचारक थे, जिन्हें भारतीय समाजवाद (Indian Socialism) के अग्रदूत के रूप में जाना जाता है। आचार्य नरेन्द्र देव ने कार्ल मार्क्स के भौतिकवाद, वर्ग-संघर्ष और वैज्ञानिक समाजवाद के साथ महात्मा गांधी के नैतिकता और अहिंसा के आदर्शों को एक साथ रखकर भारतीय समाजवाद की नींव रख, उसे विकसित किया। आचार्य नरेन्द्र देव इतिहास की भौतिक व्याख्या स्वीकार करते थे, किन्तु भारतीय आध्यात्मिक मूल्यों और मान्यताओं का पूर्णतया परित्याग नहीं किया था। आचार्य जी का विचार था कि “भौतिकवाद शब्द के प्रयोग से प्रायः यह समझ लिया जाता है कि मार्क्स आत्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करता है, उसकी आध्यात्मिक मूल्यों में आस्था नहीं है और उसके लिए विचारों की शक्ति का कोई महत्त्व नहीं है, किन्तु ऐसा समझना गलत है।”(7) आचार्य जी सामाजिक विकास में भौतिक परिस्थितियों तथा मनुष्य के विचारों को समान महत्त्व देते थे। समाज के प्रति उनका दृष्टिकोण अनूठा था। वे वर्ग-विहीन समाज की स्थापना में विश्वास रखते थे। “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया” की सूक्ति उनके समाजवादी चिन्तन का प्रमाण है।
आचार्य नरेन्द्र देव की दृष्टि में समाजवाद मात्र आर्थिक कार्यक्रम नहीं, अपितु यह एक सांस्कृतिक आन्दोलन है। अपने समाजवादी चिन्तन में वे एक ऐसी संस्कृति की कल्पना करते हैं, जिस पर केवल कुछ सुविधा सम्पन्न लोगों का एकाधिकार नहीं होगा, अपितु जो प्रत्येक देशवासी को सुखदायी तथा शिष्ट सांस्कृतिक जीवन के साधन सुलभ करेगी।
आचार्य नरेन्द्र देव ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘सोशलिज्म एंड नेशनल रिवोल्यूशन’ (1936) में कार्ल मार्क्स के भौतिकवाद का विवेचन करते हुए लिखा कि “मार्क्स ने जड़ और चेतन के सापेक्ष महत्त्व पर कही भी विचार नहीं किया है।”(8) आचार्य नरेन्द्र देव के अनुसार ये दोनों (जड़ और चेतन) एक समान महत्त्व रखते हैं। मार्क्सवाद की इस नई व्याख्या का अर्थ यह था कि मनुष्य के जीवन में भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत दोनों का समान महत्त्व है। मानव- कल्याण के लिए इन दोनों का सापेक्षिक महत्त्व है। किसी एक के आधार पर मानव अपना कल्याण नहीं कर सकता है। इस प्रकार आचार्य नरेन्द्र देव में शास्त्रीय मार्क्सवाद की आलोचना कर उसके भौतिकतावाद के प्रत्यय का खंडन किया जो भौतिक जगत को आधार मानते हुए चेतना को केवल अधिसंरचना की श्रेणी में रखता है और यह दावा करता है। इसका चरित्र और अस्तित्व पूरी तरह आधार के चरित्र और अस्तित्व से निर्धारित होता है। आचार्य नरेन्द्र देव ने गांधी के उस विचार का खंडन किया, जिसके अनुसार-“मनुष्य केवल चेतना के सहारे आत्म-कल्याण की प्राप्ति कर सकता है।”(9) आचार्य नरेन्द्र देव के अनुसार मानव अपनी चेतना को चाहे जितना उन्नत कर ले पर उसका जीवन भौतिक जगत की परिस्थितियों पर ही आश्रित है। मनुष्य की ये परिस्थितियाँ यदि अनुकूल नहीं होगी तो उसकी स्वतंत्रता अधूरी रहेगी भौतिक जगत की स्थितियाँ अर्थव्यवथा से जुड़ी होती हैं। मनुष्य की चेतना अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है और अर्थव्यवस्था चेतना को। विकृत अर्थव्यवस्था में कोई भी मानव अपने मन एवं चेतना पर संयम नहीं रख सकता है।
आचार्य नरेन्द्र देव के विचारों में, “मनुष्य की आजादी एक नैतिक अवधारणा है और वह तभी प्रभावित होगी जब समाज के सारे लोग आर्थिक स्थिति के नजरिए से समान हो।”(10) दूसरे शब्दों में आर्थिक समानता, नैतिक, व्यवस्था की आवश्यक शर्त है। साम्राज्यवाद और पूंजीवादी दोनों ही व्यवस्थाएं मनुष्य की आजादी के लिए घातक है। साम्राज्यवाद एक देश के लोगों पर सीधे ही दूसरे राष्ट्र का प्रभुत्व स्थापित कर उसे गुलाम बना देता है, जबकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में एक राष्ट्र की परीधि में ही एक वर्ग अपना प्रभुत्व स्थापित कर दूसरे समूह या वर्ग को अपना गुलाम बना लेता है। सांमतवाद एवं साम्रज्यवाद दोनों में से पूँजीवाद ही श्रेष्ठ है कम से कम इसमें व्यक्ति मात्रात्मक रूप से ही सही, स्वतन्त्रता का अनुभव तो करता है। आचार्य नरेन्द्र देव के अनुसार,”वास्तविक स्वतन्त्रता एवं अधिकारों की बात की जाए तो वह केवल समाजवाद के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है।”(11) अतः समाजवाद नैतिक व्यवस्था का पर्याय है।
आचार्य नरेन्द्र देव के अनुसार वर्ग- संघर्ष की अवधारणा आचार्य नरेन्द्र देव ने गांधी जी के वर्ग -संघर्ष सिद्धान्त से भिन्न विचार व्यक्त करते हुए कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत वर्ग-संघर्ष का समर्थन किया था। आचार्य नरेन्द्र देव जी ने कार्ल मार्क्स द्वारा वर्ग-संघर्ष में प्रयुक्त क्रान्तिकारी वर्ग के स्वरूप का भारतीय संदर्भों में नवीन चित्रण प्रस्तुत किया, जिसके लिए उन्होंने यह तर्क दिया कि “सम्पूर्ण मानव इतिहास परस्पर विरोधी वर्गों के सतत् संघर्षों की कहानी है। समाज का जो वर्ग अपने समय की तत्कालीन सामाजिक स्थिति में परिवर्तन लाना चाहता है। वह वर्ग-संघर्ष में विजय प्राप्त कर भौतिक एवं आर्थिक संसाधनों पर अपना नियत्रंण स्थापित कर लेता है। लेकिन यह तभी संभव है जब वह विरोधी वर्ग से मजबूत एवं सक्षम हो।”(12) इस प्रकार से स्थापित नई सामाजिक स्थिति विशाल जन समुदाय के नैतिक बोध के अनुरूप होती है। अतः वह सामाजिक नैतिकता का मानदंड बन जाती है। इस तरह नरेन्द्र देव ने नैतिकता के जनवादी आधार की पुष्टि की है।
आचार्य नरेन्द्र देव के अनुसार समकालीन समाज में मजदूर वर्ग और उनके सहायक किसान और बुद्धिजीवी वर्ग की संख्या ज्यादा है। अतः इन सब का सामूहिक नैतिक बोध सामाजिक नैतिकता का उपयुक्त प्रतिनिधित्व करता है। आचार्य नरेन्द्र देव के विचार से भारत के समस्त मनुष्य एक समान स्थिति में नहीं आते हैं जैसा कि मार्क्स मानता है कि समाज में केवल औद्योगिक श्रमिक आते हैं। आचार्य जी के अनुसार, ‘इसमें श्रमिक, कामगार, किसान, बागान एवं खेतिहर मजदूरों के अतिरिक्त बुद्धिजीवी वर्ग भी आता है। अगर इन सभी वर्गों ने अपने-अपने हितों के अनुसार अलग-अलग संगठन बनाए तो इनकी शक्ति बिखर जाएगी और इन्हें अपने लक्ष्यों में सफलता नहीं मिलेगी।'(13) समाज के ये सभी वर्ग साम्रज्यवाद एवं पूँजीवाद के शिकार व शोषित हैं। अतः इन सबकों एकजुट होकर समाजवादी आन्दोलन को शक्तिशाली बनाना चाहिए। इस समाजवादी आंदोलन का वर्ग चरित्र एक जैसा नहीं होगा, किन्तु उनका लक्ष्य एक होगा। साम्रज्यवाद और पूँजीवाद को समाप्त कर उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित करने के लिए चलाए जाने वाले सामाजिक समानता आन्दोलन को आचार्य जी ने ‘नव जीवन आन्दोलन’ की संज्ञा दी। ‘नव जीवन’ आन्दोलनों में समाज के मजदूर, किसान, बागान एवं खेतिहर मजदूरों के अतिरिक्त बुद्धिजीवी वर्गों को मिलकर साम्रज्यवाद और पूँजीवाद से मुकाबला करना होगा। इसके लिए मजदूर वर्ग ‘आम हड़ताल की प्रक्रिया के द्वारा अपना योगदान आंदोलन में देगें। किसान वर्ग ‘किसान आंदोलनों’ के द्वारा अपना योगदान आंदोलन में देगें। आचार्य नरेन्द्र देव ने कृषकवाद की आलोचना की है।
आचार्य नरेन्द्र देव ने समाज के सभी वंचित और कमजोर वर्गों को एकजुट होकर अपने सामान्य लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्रजातंत्र की स्थापना करने की दिशा में प्रयत्न करने की सलाह दी, जिससे समाज में किसी भी मनुष्य एवं वर्ग का शोषण न हो। आचार्य नरेन्द्र देव के अनुसार,”जो लोग समाजवादियों पर यह दोषारोपण करते हैं कि वे बलात् वर्ग संघर्ष की सृष्टि करते हैं और सामाजिक वर्गों की सृष्टि करके उनमें परस्पर घृणा फैलाते हैं, वे भूल करते हैं। समाजवादी तो उसे समाप्त करके वर्ग विहीन समाज की स्थापना करना चाहते है।”(14)
आचार्य नरेन्द्र देव ने सामान्य जनमानस को राष्ट्रीय आन्दोलन की ओर प्रेरित करने के लिए आर्थिक विचारों में भारतीय संदर्भों में परिवर्तन करने पर बल दिया। इसके लिए आचार्य जी ने समाजवाद की मार्क्सवादी संकल्पना में भारतीय संदर्भों में अनेक परिवर्तन किए। जहाँ मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार समाजवादी क्रांति का स्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय होना चाहिए इसमें राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रप्रेम के लिए कोई गुंजाइश नहीं वहीं आचार्य नरेन्द्र देव ने राष्ट्रीय आन्दोलनों को समाजवादी आन्दोलनों का पयार्य बना कर राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए इसके समाजवादी स्वरूप पर बल दिया।
नरेन्द्र देव ने मार्क्सवादी विचारधारा का समुन्नत रूप प्रयोग करते हुए समाजवाद की एक नई विचारधारा, जिसे डेमोक्रेटिक सोशालिज्म कहा जाता है उसे जन्म दिया। डेमोक्रेटिक सोशालिज्म के अनुसार श्रमिक, कामगार, निर्धन वर्ग, किसान और बुद्धिजीवी वर्ग सब मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण करेगें, जिसमें कोई शोषित एवं शोषक- वर्ग नहीं होगा। आचार्य नरेन्द्र देव ने आध्यात्मिकता के साथ-साथ भौतिकता के पहलुओं पर विचार कर डेमोक्रेटिक सोशालिज्म’ की नींव रखी, क्योंकि बिना भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति किए बिना नैतिकता और समाज का समरस विकास नहीं किया जा सकता है।
आचार्य नरेन्द्र देव को वर्ग- सिद्धान्त में तो विश्वास था, लेकिन उनका वर्ग सिद्धान्त मार्क्स के विचारों के समान नहीं है। कार्ल मार्क्स के अनुसार,”समाज में दो वर्ग होते हैं- एक बुर्जआ और दूसरा सर्वहारा वर्ग।”(15) इसके भिन्न आचार्य नरेन्द्र देव अपने वर्ग सिद्धांत में इन दो वर्गों के अतिरिक्त अन्य वर्गों को स्वीकार कर अपने वर्ग सिद्धान्त को प्रस्तुत किया है। आचार्यनरेन्द्र देव के अनुसार श्रमिक, कामगार के अलावा किसानों, भूमिहर मजदूरों तथा समाज के बुद्धिजीवी वर्गों के सहयोग के बिना सच्चे समाजवाद की प्राप्ति संभव नहीं है। आचार्य नरेन्द्र देव के अनुसार,”जो लोग समाजवादियों पर यह दोषारोपण करते हैं कि वे बलात वर्ग संघर्ष की सृष्टि करते हैं और सामाजिक वर्गों की सृष्टि करके उनमें परस्पर घृणा फैलाते हैं। वे भूल करते हैं। समाजवादी तो उसे समाप्त करके वर्ग- विहीन समाज की स्थापना करना चाहते हैं।”(16)
मार्क्स की भाँति आचार्य नरेन्द्र देव जी भी समाज परिवर्तन की भौतिक प्रक्रिया में वर्ग-संघर्ष की धारणा को स्वीकार करते हैं। उनके मत में, “समाजवाद का ध्येय वर्ग विहीन समाज की स्थापना करना है, जिसके अन्तर्गत भारी आर्थिक विषमता से युक्त ऐसे वर्ग न रहे जो आर्थिक उत्पादन प्रक्रिया में कार्य करते रहने के साथ-साथ शोषण तथा शोषितों के रूप में विद्यमान रहें और जिनके हित एक- दूसरे के विरोधी हो।”(17) आचार्य नरेन्द्र देव जी का मत है कि समाजवाद के विरोधी इस आधार पर भी समाजवाद की आलोचना करते हैं कि भौतिकवादी प्रवृत्ति इसे नैतिकता से रहित व्यवस्था बना देती है। इसमें मानवता की मानवीय नैतिकता नहीं रह जाती, परंतु आचार्य जी ऐसी धारणा को भ्रामक व मिथ्या बताते हैं। उनके अनुसार,’समाजवाद मानवता का प्रतिरूप है।’
आचार्य नरेन्द्र देव का समाजवाद में अटूट विश्वास था। समाजवाद के सभी स्वरूपों में से आचार्य नरेन्द्र देव कार्ल मार्क्स और उनके विचारों से काफी प्रभावित थे। वह कार्ल मार्क्स को एक महान सामाजिक वैज्ञानिक मानते थे। हालाँकि वह उन सभी बातों का समर्थन नहीं करते थे जो उस समय माक्र्स ने कही थी। रूसी और चीनी साम्यवाद की कतिपय प्रवृत्तियों ने उन्हें निराश किया और उनका यह विश्वास और अटल हो गया कि दुखी मानवता की उन्मुक्ति केवल लोकतांत्रिक समाजवाद में ही संभव है। उनके लिए समाजवाद केवल एक राजनीतिक या आर्थिक आंदोलन नहीं था, बल्कि एक नया दर्शन, एक नई जीवन शैली, एक नई संस्कृति थी, जिसमें एक नई आचार संहिता थी। उनका विश्वास था कि ‘इससे एक ऐसे नए क्षितिज का साक्षात्कार होगा, जिसमें ग्रह- नक्षत्रों के बीच प्रकाश के स्पंदन की भाँति ही स्त्री और पुरुष अपने उदात्त और उत्कृष्ट विचारों और भावनाओं से एक- दूसरे को आलोकित कर सकेंगे और एक ऐसे समाज का निर्माण करेंगे जिसमें घृणा, ईर्ष्या और शोषण का कोई नामो-निशान नहीं होगा।'(18)
निष्कर्षत :
उपर्युक्त वर्णन- विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि सभी प्रकार के भेदभाव से मुक्त एक संगठित मानव समुदाय की परिकल्पना ही समाजवाद है। समाजवाद समता और स्वाधीनता के साथ सभी वर्गों की आर्थिक समृद्धि का दर्शन है। यह एक बेहतर समाज की उदात्त अवधारणा है। समाजवाद ‘बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय’ के साथ-साथ ‘विश्व बंधुत्व’ पर बल देता है।
आचार्य नरेन्द्र देव ने इन्हीं उदात्त भावों के आधार पर अपने समाजवादी दर्शन की स्थापना की है। उनका समाजवाद कार्ल मार्क्स, गांधी, अंबेडकर, डाॅ. लोहिया तथा जय प्रकाश नारायण के समाजवाद संबंधी उत्कृष्ट विचारों का संयोजन है। नरेन्द्र देव का समाजवाद परंपरागत समाजवादी विचारों का बढ़ाव भी है और निषेध भी। इसके आधार पर श्रेष्ठ समाज और श्रेष्ठ राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है।
संदर्भ- ग्रंथ- सूची :
1. Encyclopaedia Britannica, p. 756
2. Ramsay Muir: The Socialist Case Examined, p.- 3 (अमर नारायण अग्रवाल : समाजवाद की रूपरेखा, पृ. 25 से उद्धृत)
3. Don Griffiths, What is Socialism, p. 61
4. Don Griffiths, What is Socialism, p. 61, (अमर नारायण अग्रवाल : समाजवाद की रूपरेखा, पृ. 22 और 24 उद्धृत)
5. Encyclopaedia of Social Sciences VI, 13-14, p.188
6. Encyclopaedia of Social Sciences, Vol. 13-14, p. 188
7. आचार्य नरेन्द्र देव – जगदीश चन्द्र दीक्षित, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1979 ई., पृष्ठ- 11
8. आचार्य नरेन्द्र देव- जगदीश चन्द्र दीक्षित, पृष्ठ- 27
9. आचार्य नरेन्द्र देव : युग और नेतृत्व- मुकुट बिहारी लाल, पृष्ठ- 10
10. यंग इंडिया -अक्टूबर,1989, पृष्ठ – 58
11. आचार्य नरेन्द्र देव : जीवन और सिद्धान्त, मुकुट बिहारी लाल, नव हिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, 1987 ई., पृष्ठ-86-87
12. वही, पृष्ठ- 112
13. वही, पृष्ठ- 112
14. भारतीय समाजवादी आन्दोलन- श्रीमती जय देवी, नादान महल रोड,लखनऊ, 1984 ई. पृ- 52-53
15. वही, पृष्ठ- 53
16. वही, पृष्ठ- 54
17. आचार्य नरेन्द्र देव – जगदीश चन्द्र दीक्षित, पृष्ठ- 48
18. वही, पृष्ठ- 51
लेखक, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक और अध्यक्ष हैं।