समकालीन समाज की चुनौतियाँ और गांधीवाद की प्रासंगिकता।

भारतीय समाज अनेक जातियों, प्रजातियों, वर्गों, समुदायों, धर्मों, संप्रदायों का समुच्चय है। भारतीय संस्कृति की असली सामासिकता समाज में ही दृष्टिगत होती है। अनेकता में एकता तथा विषमता में समता का संदेश देने वाला भारतीय समाज संसार के समक्ष सर्वोत्तम उदाहरण है। लेकिन वर्तमान समय में भूमंडलीकरण और बाजारवाद के कारण उत्पन्न उपभोक्तावादी संस्कृति ने भारतीय सामाज की शुचिता को ध्वस्त कर दिया है। ‘अर्थ’ के पीछे आँखें बंद कर भागने की प्रवृत्ति ने नैतिकता के तमाम मानदंडों को तार-तार कर डाला है। विकास की अंधी दौर में हम सबने अपना ही जड़ खोद डाला है, जिसकी परिणति को अनेक रूपों में भोगने को अभिशप्त हैं।           वर्तमान समय में जातिवाद, वर्गवाद, वर्णवाद, धर्मवाद तथा लिंगवाद जैसी अवधारणाओं ने भारतीय समाज में अनेक विभाजक रेखाएँ खींच दी हैं, जिनके कारण समाज के सामने अनेक तरह के संघर्ष तथा चुनौतियाँ उत्पन्न हो गयी हैं। सच में इन चुनौतियों से मुक्त होने का एक ही मार्ग है- ‘गाँधीवाद’। गाँधीवाद वस्तुत: गाँधीजी के मूलभूत विचारों का समुच्चय है, जिसमें तमाम चुनौतियों से लड़ने के सूत्र निहित हैं। गाँधीजी ने यद्यपि वर्णाश्रम धर्म का समर्थन किया था, परंतु वे किसी भी तरह की जातीय विषमता के घोर विरोधी थे। वे मानते थे कि वर्ण- विभाजन का मूल उद्देश्य श्रम-विभाजन है, ताकि समाज का समुचित संचालन हो सके। आज जब नित नवीन जातियों का निर्माण हो रहा है तथा जातियाँ सामाजिक स्तरीकरण का आधार बन रही है, ऐसे में गाँधी जी के विचार बेहद प्रासंगिक हैं। गाँधी जी ने दलित वर्ग को सम्मान दिलाने के लिए ‘हरिजन’ नाम की पत्रिका का संपादन किया। दलित को मुख्यधारा में लाने के लिए उन्होंने लिए हरिजन शब्द का प्रयोग किया। उनका मानना था कि हम सभी (हरि+जन, अर्थात हरि से उत्पन्न संतान ) एक ही परमात्मा के संतान हैं। इसलिए किसी भी तरह का भेद निराधार है।         

  वर्तमान समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है- धर्मवाद बनाम साम्प्रदायिकता। जब -जब धर्म के भीतर उन्माद पैदा होता है, तब-तब साम्प्रदायिकता की समस्या सामने आती है। गाँधीजी ने ‘सर्वधर्म समभाव’ जैसे विचार का प्रचार किया और कहा कि सभी धर्मों में कोई मूलभूत अंतर नहीं है। सभी धर्म परमात्मा तक पहुँचने का अलग-अलग मार्ग है। आज जब वैश्विक स्तर पर साम्प्रदायिक संघर्ष जारी है, तो गाँधीवाद उससे मुक्ति का मार्ग बतलाता है।           

आज जब लिंग के आधार पर स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है तथा कदम-कदम पर स्त्री का शोषण और दमन किया जा रहा है, तब गाँधीजी के स्त्री-मुक्ति संबंधी विचार बेहद उपयोगी लगते हैं। उन्होंने न केवल स्त्री- शिक्षा पर जोर डाला, बल्कि यह भी कहा कि ‘अगर हम किसी एक पुरुष को शिक्षित बनाते हैं तो एक व्यक्ति शिक्षित होता है, लेकिन जब एक स्त्री शिक्षित करते हैं, तो पूरा परिवार शिक्षित होता है। महात्मा गाँधी ने स्त्री को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की सिफारिश की थी। सच में आर्थिक परमुखापेक्षिता की स्थिति में स्त्री-स्वातंत्र्य की बात महत्वहीन है।             

गाँधीजी तमाम भेदों से मुक्त, स्वाधीन तथा स्वनिर्भर तथा प्रगतिशील भारतीय समाज की परिकल्पना की थी। अगर वास्तव में हम सपनों के भारत निर्मित करना चाहते हैं, तो हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। हमें सामाजिक सद्भाव की स्थापना करनी होगी। हमें गाँधीजी के बताए रास्ते को अपनाना होगा। हमें ‘गाँधीवाद’ को अपने भीतर आत्मसात करना होगा।                                

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