संस्कारहीन

“गाड़ी नहीं हुई….बस से निकल जाओ।” पिताजी आकर रुखे लहजे में बोल गये। वे सहज होने की चेष्टा कर रहे थे, परंतु क्रोध उनके चेहरे से साफ चू रहा था। आखिर हुआ क्या! “लेकिन कल शाम उनसे मेरी बात हो गई थी। बोला कि गाड़ी खाली है कल के लिए। फिर आज….!”

“खाली है तो रहने दो….नहीं जाना है उसकी गाड़ी से…!” वे गुस्से से एकदम लाल थे।

“लेकिन हुआ क्या सो….?” मैंने डरते-डरते पूछा।

“सुबह- सुबह पीकर तैयार था ‘जगता’। वही गाड़ी चलाकर जाता….हम अपने परिवार को उनके साथ नहीं भेज सकते…संस्कारहीन कहीं का….दारूबाज….!”

जगतनारायण को ‘जगता’ कहने से शायद उन्हें कुछ शांति मिल रही थी। मैंने इससे उनके क्रोध की मात्रा को भांप लिया। मुझे चुप रहना ही बेहतर लगा।

बहन की शादी से निबटने के बाद मुझे सपरिवार गाँव से दरभंगा लौटना था। अगले दिन ड्यूटी ज्वाईन करना अनिवार्य था। मैं छटपटा रहा था।

उधर मेरे एक शहराती मित्र बस से यात्रा करना अपने शान के खिलाफ समझते थे। वह मेरे गाँव को इस तरह कोस रहे थे, जैसे मैंने यहाँ पैदा होने के लिए भगवान के यहाँ आवेदन दिया था। वैसे वे स्वयं दो दशक पहले कमला नदी से बहते हुए दरभंगा आए थे और बस गये।

‘यह भी कोई गाँव है, जहाँ एक ढंग की गाड़ी नहीं मिलती… जानवरों के तरह लोग खटते हैं…न खाने का ठिकाना न पहनने का सहूर…….न सड़कें, न बिजली….भुच्च देहात!’

मैं इसका उत्तर देता तो आरंभ हो जाता शीत- युद्ध। परंतु यहाँ इतिहास – पुराण को बांचने का वक्तन था। ‘अतिथि देवो भव’ की परंपरा का स्मरण करते हुए मैंने अपना हाथ जोर लिया। मैं चाहता तो कह सकता था-

– यह मेरा गाँव है, मेरी जन्मभूमि!

– मेरे लिए स्वर्ग-सा सुंदर……….!

– गाँव के पूरब में बहती है कोशी की अविरल धारा कितना सुहावना लगता है!

– बाँसों की झुरमुट में खोया हुआ गाँव, शहर के तमाम कोलाहलों से दूर, बुद्ध की भाँति ध्यानस्थ नहीं लगता क्या! शहराती छल- छद्मों से मुक्त!

– चंद सुविधाओं के अभाव में यह गाँव असुंदर कैसे हो सकता! कुछ लोगों के खराब हो जाने से यह बुरा कैसे हो सकता! इसी गाँव में मेहनत- मजदूरी करके मैंने अपने जीवन को सफल बनाया है। यह कैसे बुरा हो सकता है!

यह अलग सवाल था कि वहाँ की मौजूदा स्थिति ठीक नहीं थी। गंदी राजनीति, जातिवादी कट्टरता और वैमनस्यता ने गाँव की शुचिता को ध्वस्त कर डाला था।

शराबबंदी के बावजूद भी पता नहीं ये लोग कहाँ से ले आते हैं….! जगतनारायण, रामनारायण यादव का इकलौता पुत्र है। अपनी अमीरी का अहंकार लिए हुए। हालाँकि अब वैसी कुछ बात न रह गई थी। दरबाजे पर दो ट्रैक्टर और एक बोलेरो उसकी अमीरी का अवशेष मात्र है। लोग कहते हैं उनके दरबाजे पर कभी हाथी बंधा रहता था। सौ बीघे जमीन का मालिक… शानो-शौकत वाले लोग थे उनके दादा रामस्वरूप यादव। मेरे दादा जी की पूरी जिंदगी बीत गयी उसकी बेगारी करते हुए……!

लेकिन कहते हैं न, ‘बुरे वंश कबीर का तो उपजे पूत कमाल…..! रामनारायण ने अपने हाथों संपत्ति और प्रतिष्ठा दोनों का सर्वनाश किया….गांजा, दारू, जुआ और रखैलों के चक्कर में……. जगतनारायण (जगता) उसका भी बाप निकला…….!

मैं उस दिन को आज तक नहीं भूल पाया। जब जगतनारायण के साथ मेरा रहना तय हुआ था। मैं यथासंभव उपयोग की सामग्रियों को बांधकर तैयार बैठा था कि अब चलना है। लेकिन मेरे पिताजी उनके दरबाजे से हताश होकर लौट आए। जगतनारायण ने साफ मना कर दिया कि ‘मुझे एक मजदूर के साथ नहीं रहना है…उसके देह से पसीने की बदबू आती है….! दिन भर लोगों के घर खटने वाला मजदूर क्या पढ़ाई करेगा! संस्कारहीन……!’

मेरी सारी योजना पर पानी फिर गया। उस समय मैं इंटरमीडिएट की परीक्षा की तैयारी कर रहा था। परीक्षा के केवल तीन महीने बचे थे। दिन भर की खटनी के बावजूद भी रात दो-ढाई बजे तक पढ़ाई करके मैंने पाठ्यक्रम पूरा कर लिया था। लेकिन जरूरत थी स्थिर होकर प्रश्नोत्तर के रिवीजन की……।

अकेले रहने- खाने का इंतजाम करना पिताजी के वश का न था, इसीलिए उन्हें लगा कि जगत के साथ रहने से मुझे दिक्कत न होगी। लेकिन मेरा अभाग्य……..

पिताजी से यह सब सुनकर मैं बहुत दुखी हुआ।

उन्हें मेरे पसीने की बदबू ही दिखी !

उसके पीछे की श्रमशीलता न दिखी !

मेरी जीवटता न दिखी !

मेरी ईमानदारी न दिखी !

मेरे परिवार की सेवा- भावना न दिखी!

यह तो अच्छा हुआ कि पिताजी ने पन्द्रह साल पहले उनके कहे हुए शब्द को, उन्हें सूद समेत लौटा आए……

– संस्कारहीन…….

– गंजेरी…….

– भंगेरी…….

– दारूबाज…..

– रंडीबाज कहीं का…..!

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