‘शंखनाद’ उपन्यास हिन्दी के चर्चित कथा- शिल्पी रामबाबू नीरव का पाँचवाँ उपन्यास है। यह उपन्यास इसी वर्ष (2023 ई0) प्रतिभा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर से प्रकाशित हुआ है। अपने कलेवर में यह उपन्यास सामान्य है, परंतु इसका कथ्य अत्यंत विराट और समसामयिक है। यह उपन्यास निश्चय ही प्रभावोत्पादक है। कारण, अपनी इस रचना में उपन्यासकार एक ओर इक्कीसवीं शती के तीसरे दशक में बढ़ रहे भूमंडलीकरण और बाजारवाद के प्रसार तथा उससे उत्पन्न संकटों की ओर इसका इशारा करते हैं, वहीं दूसरी ओर एक आम आदमी की अदम्य जिजीविषा तथा अनवरत संघर्ष का महाआख्यान प्रस्तुत करते हैं।
‘शंखनाद’ न केवल सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ आम आदमी का प्रतिरोध है, वरन् यह समकालीन राज और समाज का यथार्थपूर्ण तथा जीवंत इतिहास भी है। दरअसल, ऐसी ही साहित्यिक रचना एक निश्चित समय के बाद अपने समय का इतिहास बन जाता है। रचनाकार रामबाबू नीरव भारतीय समाज की जटिल संरचना से बखूबी अवगत हैं। खासकर ग्रामीण समाज से जुड़े होने के कारण उनकी दृष्टि प्रेमचन्द की भाँति व्यापक है। वे जिस समाज पले-बढ़े हैं, वह समाज अनायास ही उनकी रचनाओं में जीवंत हो उठा है। वैसे भी साहित्य और समाज में गहरा अंतर्संबंध होता है। किसी भी साहित्य को उसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है या उसका मूल्यांकन किया जा सकता है। इसे स्पष्ट करते हुए चर्चित आलोचक मैनेजर पांडेय ने ठीक ही कहा है- “साहित्य का अस्तित्व समाज से अलग नहीं होता, इसलिए साहित्य का विकास समाज के विकास से कटा हुआ नहीं हो सकता। साहित्य सामाजिक रचना है, साहित्यकार की रचनाशील चेतना उसके सामाजिक अस्तित्व से निर्मित होती है, साहित्यिक कर्म की पूरी प्रक्रिया सामाजिक व्यवहार का ही एक विशिष्ट रूप है; इसलिए साहित्य का इतिहास समाज के इतिहास से अनेक रूपों में जुड़ा होता है।”(1)
साहित्य को समाज का दर्पण मानने की परंपरा रही है, परंतु मैं तो समझता हूँ कि ‘शंखनाद’ जैसी साहित्यिक रचना समाज का दर्पण मात्र नहीं हो सकता, जो व्यक्ति और समाज का वास्तविक प्रतिबिंब मात्र दिखलाता हो। अगर यह सत्य होता तो यह केवल सामाजिक दस्तावेज बनकर रह जाता। जबकि ऐसा नहीं है। यह उपन्यास उससे आगे बढ़कर हमारे सामने एक नये आदर्श को प्रस्तुत करता है। हमारे अंतस में परिवर्तन की चेतना उत्पन्न करता है और बतलाता है कि हमें कैसा होना चाहिए! यह उपन्यास किसी भी परंपरित अवधारणाओं का या राजनीति का पिछलग्गू नहीं बनता। प्रेमचन्द ने ठीक ही कहा है- ”साहित्य राजनीति का पिछलग्गू नहीं है, वह आगे-आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।”(2)
‘शंखनाद’ सच में हमारे सामने श्रेष्ठतम आदर्शों को उपस्थापित करता है, जिसका अनुकरण कर सर्वोत्तम मानव समाज का निर्माण किया जा सकता है। उपन्यास की कथा पूर्वदीप्त शैली में वहाँ से आरंभ होती है, जहाँ नायक विजयकांत दिल्ली के तिहार जेल में बंद है। यहाँ स्पष्ट होता है कि वह पुपरी, सीतामढ़ी का निवासी है और भयावह बाढ़ की विभीषिका से तबाह होकर रोजी- रोजगार की तलाश में दिल्ली आया है। भटकाव की स्थिति में उसकी मुलाकात बिहार के ही एक पुलिस इंस्पेक्टर बी. एन. तिवारी से होती है। वही विजयकांत को हनुमान मंदिर के पुजारी और मानवतावादी संत बाबा निर्भयानंद से मिलवाता है। बाबा की कृपा से उसे रहने-खाने का ठिकाना मिल जाता है। वह बाबा का भक्त बन जाता है और वही से अपने संघर्ष की शुरूआत करता है। बाद में उनकी मुलाकात शब्जी बेचने वाली रूपाली से होती है जो कि आईएएस की तैयारी कर रही है। साथ ही जेल में वह कर्मठ पत्रकार अमृता कौर के संपर्क में आता है जो कि पत्रकारिता की महत्ता और सामर्थ्य को बख़ूबी समझती है। रूपाली और अमृता के साथ मिलकर विजय सदैव असत्य और अन्याय के खिलाफ संघर्ष करता है और इसी क्रम में झोपड़पट्टी की जमीन पर एक कंपनी (डीडीए) कब्जा जमाना चाहता है, जिसे बचाने के लिए रूपाली स्थानीय विधायक रूपचंद से मिलने जाती है। पर रक्षक के नामक पर भक्षक बना विधायक उसके बलात्कार की कोशिश करता है। इसी बीच विजयकांत पहुँचकर उसकी रक्षा करता है। यह अलग बात है कि इसी कारण विजयकांत को गलत मुकदमें में फंसाकर जेल में बंद कर दिया जाता है।
इधर रूपाली आईएएस बनने में सफल हो जाती है और उधर अमृता के प्रयास से विधायक तथा भ्रष्ट आफिसर बेनकाब कर दिये जाते हैं। जमीन पर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले लोगों के साथ रूपाली सबसे आगे है। आखिरकार उनपर गोली चलायी जाती है, जो कि बाबा निर्भयानंद को लगती है।बाबा निर्भयानंद शहीद हो जाते हैं, परंतु अमृता और विजयकांत के सहयोग से अंतत: रूपाली की जीत होती है। जमीन पर उसका मालिकाना हक सिद्ध हो जाता है। रूपाली की इस जीत में विजयकांत और अमृता कौर बराबर के भागीदार हैं। इस तरह कथावस्तु की दष्टि से यह उपन्यास सुखांतक है। चूँकि निरंतर संघर्ष करने वाले सभी सद्पात्रों को उनके अभीष्ठ की प्राप्ति हो जाती है। ‘शंखनाद’ उपन्यास की कथावस्तु को दृष्टि में रखते हुए यह निश्चय ही कहा जा सकता है कि रामबाबू नीरव ने अपनी इस औपन्यासिक कृति के माध्यम से अत्यंत सजगतापूर्वक एक ओर भूमंडलीकाण और बाजारवाद के दुष्प्रभावों को रेखांकित किया है, वहीं दूसरी ओर अपराध और राजनीति के सांठगांठ को उजागर कर दिया है।
इस उपन्यास की सबसे बड़ी खासियत है कि उपन्यास के सभी मुख्य पात्र मानवीय संभावनाओं के उत्कर्ष तक पहुँचता है। वे सभी पात्र समस्याओं बीच जीने का मार्ग खोज लेते हैं तथा सफलता पाने तक संघर्ष करते रहते हैं। उपन्यास में चार पात्र नायक विजयकांत, नायिका रूपाली, सहनायिका अमृता कौर तथा मानवतावादी संत बाबा निर्भयानंद के चरित्र निश्चय ही अनुकरणीय हैं। उपन्यास का नायक विजयकांत आम आदमी का प्रतीक है, जो अपने संघर्ष में कभी टूटता नहीं है। ऐसे आम आदमी को नायक बनाने से उपन्यास अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी और विश्वसनीय बन गया है। सर्वविदित है कि सन् 1789 ई. की फ्रांस की राज्य क्रांति के प्रभाव से पाश्चात्य साहित्य में आभिजात्यवाद के खिलाफ रोमांटिसिज्म का जन्म हुआ था, चूँकि सत्ता से आभिजात्य वर्ग च्युत कर दिये गये थे और आम आदमी सत्तासीन हो गये थे। इसके फलस्वरूप साहित्य के नायकत्व में जो परिवर्तन हुआ, उसका व्यापक प्रभाव विश्व साहित्य पर पड़ा। पाश्चात्य साहित्य में विलियम वर्ड्सवर्थ, लियो टॉलस्टॉय, चेखव, गोर्की से होते हुए यह परंपरा भारतीय साहित्य में प्रेमचंद और शरतचंद्र के रास्ते रामबाबू नीरव तक आता है। आभिजात्यवादी परंपरा के खिलाफ विजयकांत और रूपाली जैसे पात्रों का निर्माण बेहद प्रशंसनीय है।
विजयकांत का चरित्र निश्चय ही अनुकरणीय है। वह जीवनपर्यंत असत्य और अन्याय के खिलाफ लड़ता है, परंतु कभी भी उग्र और असहिष्णु नहीं होता। न ही वह अपनी मानवतावादी भावनाओं को विस्मृत करता है। भयानक बाढ़ की चपेट में फंसे लोगों को बचाने के क्रम में वह बतहू साहू जैसे व्यक्ति के प्रति भी संवेदनशील है, जो गाँव के गरीबों को सालों से लूटता आया है। इस घटना के बाद साहू जी का हृदय परिवर्तन हो जाता है जो कहीं से भी अस्वाभाविक नहीं लगता है। वह विजयकांत से माफी मांगते हुए कहता है- “मुझ जैसे पापी को माफ कर दो बेटा। हमसे बहुत भारी पाप हो गया। जिन लोगों को हमने लूटा, वही लोग हमारी जान बचाने आए हैं।” (3) विजयकांत बाढ़ की विभीषिका में फंसे हुए लोगों की रक्षा करता ही है और जब वह रोजगार की तलाश में दिल्ली जाता है तो वहाँ एक साहूकार के गिरफ्त से दो मासूम बालकों को मुक्त कराता है। साथ ही वह रूपाली को उसके लक्ष्य तक पहुँचाने में आशातीत सहयोग करता है। और बदले में कोई अपेक्षा नहीं रखता। ऐसी अवस्था में कोई नायक कामासक्त हो सकता था, परंतु विजयकांत में अपार संयम है। वह नि:स्वार्थ प्रेम के उच्चादर्श को पाठकों के समक्ष रखता है। इस तरह विजयकांत में एक उदात्त नायक होने के सारे गुण विद्यमान हैं।
कथानायिका रूपाली का चरित्र उन तमाम लोगों के लिए प्रकाशपुंज है, जो अक्सर साधनहीनता का रोना रोते हैं, जो अपने भाग्य को कोसते हैं और हाथ पर हाथ धड़कर बैठे रहते हैं। रूपाली अनवरत संघर्ष से अपने लक्ष्य को सिद्ध करती है। वह अपनी स्थिति और परिस्थिति की चिंता किये बिना स्वयं अपने भाग्य को रचती है। रूपाली बहुत ही मजबूत स्त्री पात्र है। उसकी परिस्थिति तो उसे केवल मजदूर बना सकती थी, पर वह आईएएस बनकर दिखा देती है दुनिया को। वह सिद्ध कर देती है कि एक गरीब की बेटी भी चांद का सपना देख सकती है। यह अलग बात है कि कथाकार सुरेंद्र वर्मा ने अपने उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’ में वर्षा वशिष्ठ को संभावनाओं के शिखर तक पहुँचा दिया हैं, पर भूलना नहीं चाहिए कि वर्षा वशिष्ठ अपने लक्ष्य तक पहुँचने के क्रम में नैतिकता के तमाम मानदंडों को ध्वस्त कर देती है। इसी तरह प्रदीप सौरभ रचित उपन्यास ‘मुन्नी मोबाइल’ की नायिका बिन्दु यादव से मुन्नी मोबाइल बनने तक में नैतिकता को तार-तार कर देती है, परंतु ‘शंखनाद’ की नायिका मानवीय मूल्यों, संवेदनाओं और नैतिकताओं से कतई समझौता नहीं करती है और सद्मार्ग पर चलकर अपने लक्ष्य को सिद्ध कर लेती है। निश्चय ही वर्षा वशिष्ठ और मुन्नी मोबाइल से अधिक अनुकरणीय चरित्र है- रूपाली। रूपाली में अदम्य जिजीविषा है। अनवरत संघर्ष का सामर्थ्य है। अगर हर गरीब की बेटी रूपाली हो जाय तो कितना अच्छा होगा।
भूमंडलीकरण और बाजारवाद के कारण आज सबकुछ बिकाऊ हो गया है। ‘जो बिकाऊ है, वहीं टिकाऊ है’ जैसे कथन धड़ल्ले से चरितार्थ हो रहे हैं। तमाम चीजों को नफे और नुकसान की कसौटी पर तौलकर देखा – परखा जा रहा है। अगर इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव कहीं दिखता है, तो है- मीडिया। एक समय था, जब लोग मिशन की भावना से मीडिया के क्षेत्र में काम करने आते थे, परंतु अब यह एक मुनाफादायी व्यापार बन गया है। ऐसे विचित्र दौर में अमृता कौर जैसे जीवट, कर्मठ, ईमानदार और बेखौफ पत्रकार की कल्पना सुखकर एवं प्रेरणास्पद है। अमृता चंद पैसों के लिए बिकती नहीं है और न ही नेताओं या पूंजीपतियों के सामने दुम हिलाती है। वह हमेशा असत्य और बुराई के खिलाफ जंग लड़ती है। पत्रकारिता उसके लिए रोज़गार नहीं, असत्य के विरुद्ध लड़ने का हथियार है। आज जब ‘गोदी मीडिया’ जैसे शब्द प्रचलित हो गये हैं, तब अमृता जैसे मीडियाकर्मी हमारे सामने एक श्रेष्ठ उदाहरण है। वह मीडिया की वास्तविक शक्ति को दिखा देती है। देखिए एक कथन,जब उसकी जीवटता की प्रशंसा की जाती है- “वंडरफुल अमृता…..तुम्हारे इस ब्रेकिंग न्यूज ने दुनियाभर में तहलका मचा दिया है।”(4)
भारत संतों और महात्माओं का देश रहा है। यहाँ दधीचि जैसे संत हुए, जिन्होंने संसार के कल्याणार्थ अपनी हड्डी तक दान कर दिया। लेकिन वर्तमान समय में धर्म और अध्यात्म के नाम पर जो भ्रष्टाचार फैला है, मूल्यों में जो गिरावट आई है, वह सर्वविदित है। स्खलन के इस दौर में बाबा निर्भयानंद अनुकरणीय चरित्र है, जो धार्मिकता के नाम पर ढोंग करने के बजाय जनकल्याण में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। वे कहते हैं -“संतों का कर्तव्य मात्र ईश्वर की भक्ति और पूजा अर्चना करना ही नहीं होता, बल्कि दीन-दुखियों का दु:ख -दर्द बाँटना भी होता है।”(5) बाबा निर्भयानंद सच में इस कथन को चरितार्थ करते हैं। वे अनगिनत भूखे- प्यासे लोगों को भोजन और आश्रय तो देते ही हैं, साथ में अन्याय के खिलाफ सत्याग्रह भी करते हैं।
निष्कर्षत: रामबाबू नीरव रचित उपन्यास ‘शंखनाद’ मानवीय जिजीविषा और संघर्षशीलता का चरमोत्कर्ष प्रस्तुत करता है। उपन्यास के सभी सद्पात्र अपनी संभावनाओं के शिखर तक पहुँचने की चेष्टा करते हैं और उन्हें सफलता भी मिलती है। उपन्यास का अंत सुखांतक और प्रभावोत्पादक है।
संदर्भ – ग्रंथ सूची :
(1) साहित्य और इतिहास दृष्टि – मैनेजर पांडेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981 ई.,पृष्ठ- viii, (भूमिका)
(2) साहित्य का उद्देश्य- प्रेमचन्द, सरस्वती प्रेस, वाराणसी, 1934 ई., पृष्ठ- 11
(3) शंखनाद – रामबाबू नीरव, प्रतिभा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, 2023 ई., पृष्ठ- 53
(4) शंखनाद – रामबाबू नीरव, पृष्ठ- 154
(5) शंखनाद- रामबाबू नीरव, पृष्ठ-155
सहायक ग्रंथ सूची :
(1) हिन्दी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी,1929 ई.
(2) हिन्दी साहित्य का इतिहास- संपादक- डाॅ. नगेन्द्र और डाॅ. हरदयाल, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1973 ई.
(3) हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास – रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1986 ई.
(4) हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास- डाॅ. बच्चन सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996 ई.
(5) हिन्दी गद्य-साहित्य- रामचंद्र तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1955 ई.
(6) संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1956 ई.
(7) हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली- डाॅ. अमरनाथ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012 ई.
सम्प्रति : सहायक प्राध्यापक
हिन्दी विभाग,
श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय,
सीतामढ़ी, बिहार
ईमेल : umesh.kumar.sharma59@gmail.com