भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के इतिहास में आरंभ से लेकर अबतक आभिजात्यवादी विचारधारा के खिलाफ एक समानान्तर धारा लगातार टकराती रही है। इस धारा ने समय -समय पर अनेक आंदोलन और क्रांतियों को उत्पन्न किया। इस प्रतिरोधी धारा के आंदोलन और क्रांतियों में दलित-अस्मिता के सवाल पर सहमति-असहमति का संघर्ष चलता रहा है। तथापि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में प्रतिरोधी शक्तियाँ और उग्र हो गयीं और भारत में क्रांति, अस्मिता, रूढ़ियों से मुक्ति तथा मानवतावादी मूल्यों की स्थापना का स्वर अपेक्षाकृत प्रखर हो गया, जिसकी परिणति भारतीय स्वाधीनता-संग्राम और लोकतंत्र की स्थापना में हुईं।
भारतीय समाज की बिडंबना रही है कि जिस दलित पिछड़े वर्ग को अक्सर कायर और कमजोर समझा जाता है, संकट के समय वही सबसे साहसी और बहादुर सिद्ध होते हैं। ‘चाहे वह गुरु गोविंद सिंह की लपलपाती तलवार के सामने आकर ‘पंच पियारे’ बनने की बात हो, या देश की आजादी के लिए दुश्मनों के पुलिस थानों को उड़ाना हो, दलित -वंचित सबसे आगे रहे हैं।’ (1) इस वर्ग को हमेशा से दोहरे शोषण तथा शासन का शिकार होना पड़ा है। वे एक साथ विदेशी शासन तथा देशी सामंतों के गुलाम रहे हैं, किन्तु भारतीय स्वाधीनता-संग्राम में उन्होंने यह सब भूलकर जोश और उत्साह के साथ भाग लिया। सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम से लेकर 1947 ई. तक राष्ट्र की बलि वेदी पर कुर्बान होने वालों में दलित और पिछड़े किसी से कम नहीं थे। सिपाही विद्रोह के पश्चात जो आग भड़की, उसमें इन समुदायों ने भी बढ़- चढ़कर हिस्सा लिया। सर्वविदित है कि देशी राजा- महाराजा अपनी सत्ता के लिए लड़ रहे थे, लेकिन दलित-पिछड़े वर्ग के लोग अपनी मातृभूमि के लिए। फिर भी इतिहास में इनका समुचित मूल्यांकन नहीं किया गया। इस क्रम में अज्ञेय जी की एक कविता बेहद प्रासंगिक प्रतीत होती है, जिसका शीर्षक है -‘जो पुल बनाएंगे’। पंक्ति देखिये :
“जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यतः
पीछे रह जाएंगे
सेनाएँ हो जाएंगी पार
मारे जाएंगे रावण
जयी होंगे राम
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएंगे।” (2)
1857 की क्रांति पर दलितों का अपना ऐतिहासिक आख्यान लिखा जा रहा है, जिनके क्षीण स्रोत ब्रिटिशकालीन दस्तावेजों में छिटपुट रूप में उपलब्ध हैं। उनके अनुसार- ‘1857 की क्रांति के नायक वीर कुंवर सिंह, तात्या टोपे, नाना साहब, रानी लक्ष्मीबाई आदि तो थे ही, परंतु ये सारे के सारे लोग अपनी रियायत और सत्ता के लिए लड़ रहे थे। इसलिए इस संग्राम में उनसे भी बड़ी भूमिका दलित नायक- नायिकाओं की थीं, जो सत्ता के लिए नहीं, अपने देश और मातृभूमि की रक्षा के लिए नि:स्वार्थ भाव से लड़ रहे थे।’ (3) दलित चिंतकों का दावा है कि झाँसी में अंग्रेजी सेना से बगावत करनेवाले अधिकांश सैनिक दलित ही थे। इसके अगुआ थे- भाऊजी बक्शी, पूरन कोरी और झलकारी बाई जैसे वीर और वीरांगनाएँ। 1857 की दलित स्त्रियों के बारे में चारु गुप्ता लिखती हैं- “दलित वीरांगनाओं के आख्यान भारतीय अतीत में उनकी सघन उपस्थिति से भरे हुए हैं। दरअसल इस सशस्त्र संघर्ष में दलित महिला योद्धाओं की संख्या पुरुषों से कहीं ज्यादा है।” (4)
भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के इतिहास में वीरांगना झलकारी बाई का महत्वपूर्ण प्रसंग हमें उन स्वतंत्रता सेनानियों की याद दिलाता है, जो इतिहास में भूले- बिसरे हैं। आज शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि झलकारी बाई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रिय सहेलियों में से एक थीं और झलकारी बाई ने समर्पित रूप से न केवल लक्ष्मीबाई का साथ दिया, बल्कि झाँसी की रक्षा में अंग्रेजों का सामना करती हुई मर मिटी।
झलकारी बाई एक घरेलू महिला थी। ’22 नवंबर 1830 ई. को झाँसी के भोजला गाँव में उनका जन्म हुआ था।'(5) वह दलित- पिछड़े समाज में पैदा हुई थी। और जंगल से लकड़ियाँ काटती थी। वह बचपन से ही बहादुर थी तथा तीरंदाजी, घुड़सवारी और कुश्ती आदि में मर्दों को पछाड़ चुकी थी। पिता ने उसे बचपन से ही सैनिक शिक्षा दे रखी थी। तीर, तलवार और भाले -बरछे के साथ -साथ उसे पेड़ों पर चढ़ने और ऊँचाई से छलांग लगाने का भी शौक था। कहते हैं- ‘एक बार झलकारी बाई जंगल से लकड़ी काटकर लौट रही थी, तो उसका सामना एक बाघ से हो गया। उसने अपनी कटार से बाघ को मार दिया और उसे कंधे पर लादकर गाँव में ले आयी। उसके पिता सदोवा और माता लहकारी को थी। उनकी बेटी को कहीं बाघ ने घायल तो नहीं कर दिया। आखिर उसकी उम्र ही क्या थी! इस उम्र में बाघ से लड़ना आश्चर्य की बात थी। कहाँ बाघ और कहाँ झलकारी…..? गाँव के लिए यह गौरव की बात भी थी। यह बात झलकारी बाई के माता-पिता के साथ गाँव के लोगों ने भी महसूस किया की थी। कुछ को खुशी तो कुछ को ईर्ष्या भी हुई थी। छोटी जात की लड़की किसी बाघ को मार दे….! यह तत्कालीन समाज को कैसे सहन हो सकता था! वीरता और बहादुरी के सारे गुण तो सवर्ण समाज के क्षत्रियों में ठूंस- ठूंस कर भरा है। दलितों -पिछड़ों के खाते में तो कायरता और अयोग्यता की भरमार थीं। फिर ऊँची जातियों के लोग आसानी से भला कैसे स्वीकार कर लेते कि कोरी जाति की एक लड़की ने बाघ को पछाड़ दिया! पछाड़ ही नहीं दिया, बल्कि मार गिराया। इस घटना के बारे में जिसने भी सुना, वही सुनकर चकित रह गये। झलकारी की न तो उतनी थी और न ही उतना बलिष्ठ शरीर था कि वह जंगल के राजा को परास्त कर दे। लेकिन सच यही था। उसने बाघ को परास्त कर ही दिया था। उस गाँव में लाला हिम्मत सिंह की दुकान पर सुबह- शाम लोगों की भीड़ जुटती थी। इस बारे में वे खूब जाँच पड़ताल करते। निश्चय ही बाघ मारने की घटना ने उसके पेट का पानी हिलकोर कर रख दिया था। वे सब अधीर हो रहे थे। -‘कुछ लोग इस घटना का संबंध उसके पूर्व जन्म से जोड़ने लगे थे। जन्मपत्री देखी जाने लगी झलकारी की। गाँव के पंडित ने सहज निष्कर्ष निकाला कि यह पूर्व जन्म का फल है। अवश्य ही झलकारी क्षत्रिय परिवार में पैदा हुई होगी। तभी का असर है उस पर। वह असर तो जन्म-जन्मांतर रहता है।’ (6)
एक बार उसने डाकुओं से गाँव की रक्षा भी की थी। उसकी बहादुरी के कारण पिता ने उसका विवाह झाँसी सेना के तोप चालक पूरन कोरी से किया। झलकारी और पूरन का विवाह एक -दूसरे का पूरक था। दोनों सजातीय थे और सबसे बढ़कर दोनों योद्धा थे। दोनों में अद्भुत प्रेम था। एक-दूसरे को मान-सम्मान देते थे। भारतीय समाज में गरीब लोगों की यही तो सबसे बड़ी पूँजी है। वे धन- दौलत के भूखे न थे। मान-सम्मान को महत्व देते थे। वे मेहनत करते और दो वक्त की रोटी मिल जाए, इसी में संतुष्ट रहते थे। उन्हें महल- दुशाले नहीं चाहिए थे। न ही वे किसी जागीर की चाहत रखते थे। रोज कुआँ खोदना और रोज पानी निकाल कर प्यास बुझाना उसका काम था। मेहनत ही उसकी पूजा थी। शादी के बाद पूरन के साथ झलकारी भी कभी-कभार रानी के दरबार में भी जाया करती थी। अपनी प्रतिभा और बहादुरी के कारण रानी लक्ष्मीबाई ने उसे अपनी सखी बना लिया तथा महिला सेना ‘दुर्गा दल’ का सेनापति बना दिया।’ (7)
इतिहास साक्षी है कि डलहौजी ने झाँसी की मिसिल पर 27 फरवरी,1854 को अपना हुक्म जारी किया, जो इतिहास को उलटने की शानदार तैयारी था- ‘झाँसी राज्य पेशवा का आश्रित राज्य था। 1804 की संधि में शिवराव भाऊ ने इस बात को कबूल किया था। हमको ऐसे आश्रित राज्यों में गोद मानने, न मानने का अधिकार है। रामचन्द्र राव 1835 में जिसको हमने 1832 में राज्य की उपाधि दी थी। मरने के एक दिन पहले किसी को गोद लिया था। वह गोद ब्रिटिश सरकार ने नहीं मानी थी। हम दामोदर राव को उत्तराधिकारी मानने के लिए बाध्य नहीं हैं। इसलिए झाँसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाया जाता है। और रानी को जीवनपर्यंत वृत्ति दी जाएगी।’ (8)
रानी को वृत्ति देने जैसी बात कितनी अपमानजनक थी! कैसा दो-टूक फैसला दिया था फिरंगियों ने। मालकम के पास डलहौजी की आज्ञा आ गई – ‘दत्तक को गवर्नर जनरल ने नामंजूर किया है। इसलिए भारत सरकार की 7 मार्च, 1854 की आज्ञा के अनुसार झाँसी का राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया जाता है।'(9)
झाँसी के इतिहास की इसी दुखद घड़ी से रानी ने युद्ध की तैयारी करनी आरंभ कर दी। झलकारी बाई झाँसी की स्त्री सेना की वीर महिला थी, जिसकी सूरत रानी लक्ष्मीबाई से मिलती-जुलती थी। जब झाँसी के किले पर अंग्रेजी सेना का आक्रमण हुआ, तो इसी झलकारी बाई ने लक्ष्मीबाई बनकर रानी और उसके अबोध बच्चे के प्राणों की रक्षा की थी। वह रानी की सबसे विश्वस्त सैनिक थी। जब किले पर अंग्रेजी सेना का आक्रमण हुआ और सेना किले में प्रवेश करने लगी, तो सलाहकारों की राय से रानी बच्चे को कमर में बांधकर चुपचाप किले से बाहर निकल गयी और स्त्री सेना का भार झलकारी बाई के हाथों थमा दिया। झलकारी बाई रानी के वेश में लक्ष्मीबाई बनकर अंग्रेजी सेना से लड़ती रही। उसका पति पूरन पहले ही मारा जा चुका था। चारु गुप्ता के अनुसार- “अंग्रेजों ने जब झाँसी का किला घेरा, तो झलकारी बाई बहादुरी से लड़ीं। उन्होंने रानी को महल छोड़कर भाग जाने को कहा और खुद रानी का वेश धारण कर मोर्चा संभाल लिया। झलकारी बाई ने दतिया द्वार और भंडारा द्वार से उन्नाव तक सैनिकों का नेतृत्व किया। उनके पति पूरन कोरी लड़ते-लड़ते मारे गये। यह जानकर वह घायल शेरनी की तरह दुगुनी ताकत से अंग्रेजी सेना पर टूट पड़ीं। अनेक अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया। काफी देर बाद अंग्रेजों को पता चला कि वह लक्ष्मीबाई नहीं, झलकारी बाई थी।” (10) आखिरकार वह बंदी बना ली गई। अंग्रेजी सेनानायक झलकारी बाई की अद्भुत वीरता को देखकर अभीभूत हो गये। प्रसन्न होकर उन्होंने अपने सैनिकों को उसे छोड़ देने का आदेश दिया।
झलकारी वापस बस्ती में आई तो किसी को विश्वास नहीं हुआ कि अंग्रेजों के बीच छावनी से वह जिन्दा वापस भी लौट सकती है। अधिकांश लोगों को खुशी हुई, पर स्वयं झलकारी के भीतर द्वन्द था। उसे जीवित बचकर आने की खुशी न थी। दुख था तो केवल यही कि जिस झाँसी की रक्षा करने के लिए वह महिलाओं की सेना की कमांडर बनी, कपड़े बुनना छोड़ उसने झाँसी की देशभक्त जनता को हथियार चलाना सिखाया। अंतत: वह अंग्रेजों के प्रभुत्व में चली गई थी। इस घटना ने उसे भीतर तक झकझोर दिया। तब भी हार नहीं मानी वह। उसने फिर से बिखरे हुए लोग- लुगाइन की सेना बनाई झाँसी को अंग्रेजी सेना से आज़ाद कराना उसका उद्देश्य था।
सबसे त्रासद सच यह है कि रानी लक्ष्मीबाई तो इतिहास के पन्नों में अमर हो गई। लोग उसकी वीरता की कहानी कहते-सुनते न थकते हैं, न ही अघाते हैं। लेकिन वीरांगना झलकारी बाई को इतिहास विस्तृत कर दिया! झलकारी बाई पर जीवनीपरक उपन्यास लिखने वाले मोहनदास नैमिशराय कहते हैं- “न धर्म रक्षा और न जाति रक्षा, झलकारी ने चूड़ियाँ पहनना छोड़ देश-रक्षा के लिए बन्दूक हाथ में ले ली थी। उसे न महल चाहिए थे, न कीमती जेवर और न रेशमी कपड़े और न दुशाले। वह न तो रानी थी और न ही पटरानी। वह किसी सामंत की बेटी भी नहीं थी तथा किसी जागीरदार की पत्नी भी नहीं। वह तो एक साधारण परिवार में पैदा हुई और पूरन को ब्याही गई थी। पिता भी आम परिवार से थे और पति भी, लेकिन देश और समाज के प्रति अटूट प्रेम और बलिदान से उन्होंने इतिहास में खास स्थान बनाई थी।” (11) लेकिन आभिजात्य विशेष के चश्माधारी इतिहासकारों, साहित्यकारों और पत्रकारों में से किसी ने भी दलित समाज की उस वीरांगना की खबर नहीं ली। और आज जब हम आजादी के पचहत्तरवें सालगिरह पर ‘अमृत महोत्सव’ में गोते लगा रहे हैं, तब जरूरत है कि हम स्वाधीनता-संग्राम के तमाम गुमनाम सेनानियों -योद्धाओं का स्मरण करें, उसका इतिहास लिखें, जिन्हें अबतक के इतिहास में या तो अंकित नहीं किया गया या हाशिए पर रखा गया है।
संदर्भ- ग्रथ- सूची :
(1) दलित साहित्य का समाजशास्त्र : हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पहला संस्करण- 2009, पृष्ठ- 312
(2) अज्ञेय रचनावली : संपादक- कृष्णदत्त पालीवाल, भाग-3, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 1997, पृष्ठ- 203
(3) दलित साहित्य का समाजशास्त्र : हरिनारायण ठाकुर, पृष्ठ- 321
(4) मर्दों से आगे थीं मर्दानी महिलाएँ : चारु गुप्ता, हिन्दुस्तान, 9 जनवरी,2007
(5) दलित साहित्य का समाजशास्त्र : हरिनारायण ठाकुर, पृष्ठ- 324
(6) वीरांगना झलकारी बाई : मोहनदास नैमिशराय, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण-2005, पृष्ठ- 24
(7) वीरांगना झलकारी बाई : मोहनदास नैमिशराय, पृष्ठ- 31
(8) वीरांगना झलकारी बाई : मोहनदास नैमिशराय, पृष्ठ- 56
(9) वीरांगना झलकारी बाई : मोहनदास नैमिशराय, पृष्ठ-56
(10) मर्दों से आगे थीं मर्दानी महिलाएँ : चारु गुप्ता, हिन्दुस्तान, 9 जनवरी, 2007
(11) वीरांगना झलकारी बाई : मोहनदास नैमिशराय, पृष्ठ- 6
सम्प्रति : सहायक प्राध्यापक सह अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी, बिहार संपर्क : 6201464897 ईमेल : umesh.kumar.sharma59@gmail.com