लावारिश

पूस का महीना और कँपकपाती अंधेरी रात,जिसमें कुहरे के विशालकाय पर्वत को दो फाँक करते हुए, सर्द पछुआ हवा से टकराते हुए ‘कमलागंगा एक्सप्रेस’ समस्तीपुर जंक्शन पर धड़धड़ा का रुक गया। गाड़ी के रुकते ही दर्जनों काले कोटधारी उसमें यम की भाँति प्रवेश कर गये। यात्रियों में हड़कंप मच गया। कुछ इधर-उधर भागे तो कुछ लोग अपने गुप्तांगों को कुरयाते हुए लघुशंका के निमित्त शौचालय का दरबाजा खटखटाने लगे। लेकिन कुशाग्र बुद्धि के यात्री उसमें पहले से ही दीर्घशंका- निवृत्ति हेतु आसन ग्रहण कर चुके थे।          रात के करीब ग्यारह बज रहे थे, इसलिए कुछ यात्रीगण इस भाँति चादर तानकर सो गए थे, मानो उनके प्राण-पखेरू उड़ गए हों। इस बीच अगर कोई बेखौफ़ सीना ताने खड़ा था तो वह था चंदेसर। यद्यपि ठंड का सामना वह नहीं कर पा रहा था। उसका जर्जर स्वेटर उसकी रक्षा करने में असमर्थ था। मफलर, जिससे वह कान सहित माथे तक को लपेट लिया था।उसके ताने-बाने का बहुत पहले ही संबंध विच्छेद हो गया था, जिसके कारण हवा सट-सट उनके कान में प्रवेश कर रहा था। नाक की टूसी ओस पी-पीकर बर्फ़ हो गया था। दाँत से खट-खट की आवाज़ आ रही थी।            “टिकट! टिकट!” चिल्लाते हुए यम वहाँ पहुँच गये।             “साहब! हम पासवान जी की रैली से वापस आ रहे हैं।” चंदेसर ने हड़बड़ाते हुए उत्तर दिया।            “तो ! तो क्या! टिकस दिखाओ।” यम ने अपना रूख़ कड़ा किया।            “साहब! कम कलाकार आदमी हैं। पासवान जी से मिलने गये थे, रैली में। वही रेल मंत्री हैं अभी तो…..।”          “तो क्या हुआ? तुम पासवान जी के दामाद लगते हो! टिकस दिखाओ, नहीं तो तीन सौ रूपये फाइन भरो।” यम रौद्र रूप में आ गये।          “ई कोय बात नहीं हुआ! हम रैली से वापस आ रहे हैं तो टिकस क्यों कटवाएँ! फाइन क्यों भरे? नहीं- नहीं आप ही बताइए।”           “बकवास मत करो। न त’ अंदर कर देंगे।”           “मेरे पास टिकस नहीं है। पैसे भी नहीं हैं। कहाँ ले चलियेगा जेल? त’ ले चलिये न’।” चंदेसर ने जल्दी ही हथियार डाल दिया।           फिर देर किस बात की! मिनट में दो पुलिस आयी और वह हाजत के अंदर।           चंदेसर जिन्दगी में पहली बार हाजत आया था। यहाँ उनके साथ और भी लोग थे, पर चंदेसर अकेला था भीड़ में। उसका मन बहुत रोने का कर रहा था! पता नहीं, सुबह किसका मुँह देखकर उठा कि दिनभर दाना-पानी न मिला। सुबह-सुबह बासी भात, नमक,प्याज और अचार उसके सामने आया ही था कि गिरधारी आकर चिल्लाने लगा- “चलो चलो, जल्दी चलो चंदेसर भाय। गाड़ी खुल जाएगी। जतरा पहर बासी भात ख़ाना ठीक नहीं है! वहाँ रैली के बाद सबके खाने-पीने का पूरा इंतजाम है। पूरी..तरकारी…. जिलेबी…..सलाद……।”              चंदेसर के मुँह में पानी आ गया। गरमागरम पूरी, तरकारी और जलेबी का रस घोंटते हुए वह थाली को धकेल दिया और पत्नी से कहा- “ले जाओ थाली। बासी-तबासी जतरा पहर……….. कहीं गाड़ी छूट गयी तो सब गुर गोबर हो जाएगा।”            चंदेसर ने अपना बनाया हुआ पेटिंग लपेटकर रस्सी से बांधा और तूणीर की भाँति कंघे से लटका लिया और गिरधारी के पीछे-पीछे चलने लगा।           “गिरधारी भाय तुमने नेता जी से बात कर ली है मेरे बारे में।” चंदेसर ने प्रश्न किया।            “हाँ भाई! तुम परेशान क्यों हो। समझो कि तुम्हारे अच्छे दिन आ गये।” गिरधारी का उत्तर।            “विश्वास नहीं होता है भाय कि इतने बड़े आदमी एक अदना कलाकार से मिलेगा।”            “अरे! अपने आप को अदना कहते हो। तुम्हें पता नहीं है कि तुम कितने बड़े कलाकार हो। रेलवे में पेंटर की नौकरी मिल जाएगी तो पूछोगे नहीं हम सब को।”           “ऐसा नहीं है गिरधारी भाय! तुम मेरे अपने हो दुःख-सुख में साथ देते हो। हम इतना बेईमान नहीं हो सकते। हमको पहले जगह पकड़ने दो तो न’ साल जाते-जाते तुमको भी खींच लेंगे।” चंदेसर ने अपनी उदारता व्यक्त की।           आज उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। वह नेताजी की उदारता और महानता पर मुग्ध हवा में उड़ रहा था। फिर उसने कहा-“गिरधारी भाय जात ही जात के काम आता है। आज तक इतने नेता हुए, पर किसी ने फूटी नज़र से न देखा हमें। महान् हैं पासवान जी!”          “तुम नहीं जानते हो भाई जात वाले जो भी उनकी शरण में गये, सबका कल्याण हो गया।” गिरधारी ने उसके विश्वास पर मोहर लगा दिया।          दोनों बात करते हुए तीन कोस रास्ते नाप गये। सामने में पंडौल बस पड़ाव। यहाँ से बस का इंतजाम था। लोगों की भीड़ लगी थी। सरकारी बसें निकल गयी थीं। प्राइवेट बचे थे। दोनों ने जाकर अपनी सीट लीं। गाड़ी खुलने में अभी देरी थी।            पर क्या करे! चंदेसर के पास पंख होती तो उड़ कर नेताजी के चरणों में जा गिरते। आज हीरा सच्चे जौहरी के पास जा रहा था। आज आत्मा का मिलन परमात्मा से होने जा रहा था। अबतक सारे लोग उसे गदहा समझते हैं। जिसे कला की परख नहीं है। उसकी नजर में उसका कोई मोल नहीं है।            चंदेसर की आँखें लपेटे हुए पेंटिंग के भीतर समा गयीं, जो उसके जीवन की निधि थी। पेटिंग के दो भाग। बायीं ओर सजी-सँवरी धरती….हरे-भरे पेड़, कल-कल बहती हुई नदियाँ, आनंदपूर्वक विहार करते हुए छोटे-बड़े वन्यजीव, कलरव करती हुई चिड़ियों का झुंड, फूलों पर मँडराते भँवरे, प्रकृति को गोद में बसा हुआ गाँव और प्रसन्न मानव समुदाय चित्रित किया गया था, तो दायी ओर कटे हुए पेड़, बंजर भूमि, कूड़े-करकट से भरी हुई नदियाँ, मरणासन्न वन्यजीव, गिद्धों…सियारों और कुत्तों से घिरे मृत पशु और नर-कंकाल, आलीशान मकान, चमचमाती हुई सड़कें, पर ऑक्सीजन के लिए छटपटाते हुए मनुष्य, धुएँ और धुंध से घिरा हुआ परिवेश तथा सिर थाम कर बैठे हुए जन- समुदाय। देश और दुनिया के अतीत, वर्तमान और भविष्य का यथार्थ चित्रण एक ही फलक पर……अद्भुत कलाकृति। चंदेसर उसमें डूबता ही जा रहा था कि बस कंडक्टर ने किराया माँगा।              “हम लोग पटना जा रहे हैं रैली में।” चंदेसर ने छाती फुलाते हुए कहा।              “रैली वाले के लिये बीच में बैंच लगी है, चलिये उठिये सीट पर से। हमें पैसेंजर को बैठाने दीजिए।”             कंडक्टर की बात सुनकर चंदेसर गिरधारी की ओर देखने लगा। वह चुपचाप बैठा था, लेकिन अब चुप रहने से काम चलने वाला नहीं था। कंडक्टर उनके माथे पर बैठा था।             “अरे भाई कहा न कि हमलोग रैली में जा रहे हैं। कलाकार आदमी से पासवान जी से मिलने जा रहे हैं।” चंदेसर ने अपना पक्ष रखा। “पैसेंजर और जगह बैठाओं न!”             “लेकिन यह गाड़ी पासवान जी के बाप की नहीं है।” कंडक्टर अपनी औकात पर आ गया।             “कमाल है भाई! तमीज  नाम की कोई चीज़ नहीं है तुम्हारे पास। नेताजी के बारे मे अपशब्द…।” गिरधारी ने जवाब दिया।             दो टके के कंडक्टर से मुँह लगाना उसे उचित न लगा। चुपचाप आकर बैंच पर बैठ गए। बैंच की चौड़ाई बीते भर भी नहीं था। इसके निर्माता बड़े ही किफायती थे। शुरू में तो लगा कि वे ऊँट के कूबर पर बैठे हैं, पर बाद में स्थिति सामान्य हो गयी। वहाँ स्थिति सामान्य रह जाती, पर कुछ ही देर बाद कंडक्टर ने एक लाइन और बैंच लगा दिया। ऊपर से कोचमकोच! गिरधारी बैंच के दोनों और पैर करके थोड़ी आफियत महसूस कर रहे थे। तभी कंडक्टर ने डपटा-“टाँग सीधा कीजिए। बाप का माल समझते हैं! मुफ्त में जा रहे हैं और छिरिया के बैठे हैं।”            इंतज़ार की खतम हुई। जब गाड़ी में एक चूहा के घुसने के लायक जगह न बची, तो कंडक्टर ने दरबाजा पीटकर गाड़ी को बढ़ाने का संकेत किया। कुछ ही देर में गाड़ी हवा से बात करने लगी। रह-रहकर छत से नारे की आवाज़ आ रही थी-          “रामविलास पासवान ज़िन्दाबाद।           जिन्दाबाद – जिन्दाबाद…………।”           चंदेसर ने अपने शरीर को पूरी तरह से ढीला छोड़ दिया। अब वह समूह के साथ ही ब्रेक लगने पर आगे झुकता और फिर सामूहिक-प्रयास से ही सीधा होता।            दो घंटे बाद बस मुजफ्फरपुर के एक लाइन होटल पर रूकी। पैसेंजर उतर कर चाय-पानी करने लगे। चंदेसर लघुशंका निवारण के लिए उठना चाहा तो उठ ही नहीं पाया। चूत्तर का बैंच के साथ अंत:संबंध स्थापित हो गया था। फिर उसने इधर- उधर देखकर जोर लगाया। नीचे से चर्र की आवाज़ आयी। उसने चूत्तर को हसोत कर देखा। उसका पैंट काँटी में फँस कर करीब दो इंच फट गया! वह भी बहुत गलत जगह पर! बस में उपस्थित कुछ लोग उनकी ओर देखने लगे। चंदेसर ने होशियारी से पैंट के अंदर दबे सर्ट को बाहर निकाला और स्वेटर को तानकर अपनी आबरू नीलाम होने से बचा लिया।             बस फिर हवा से बात करने लगी। छत से जिन्दाबाद के नारे लगने लगे।             घंटे भर बाद बस अचानक खड़खड़ाने लगी। उसने बाहर झाँका। गाड़ी गांधी हेतु पर चढ़ गयी थी। दोनों ओर हरियाली से आच्छादित धरती। वन चह, सीसम तथा केले का बागान और आँगन- सी लीपी हुई धरती। ठीक वैसा ही जैसा उसने अपनी पेटिंग में दिखाया था। दूर से दिखती पवित्र गंगा नदी, उसमें तैरती हुई मछुआरे की छोटी-छोटी डोंगियाँ। मिट्टी से खेलते बच्चे। उस पर लगी हुई बड़ी-बड़ी पनियां जहाजें। कलाकार का मन रम गया! उसने मन ही मन गंगा माई का नमन किया। अब उसके जीवन की सारी पीड़ा, सारा विषाद माता हरण करने वाली थीं। बार-बार उनका सिर भक्तिभाव से झुक रहा था।             ठीक बारह बजे वे गांधी मैदान पहुँच गये। लोगों की अपार भीड़ लगी थी। इतना बड़ा मैदान……इतने लोग…चंदेसर की आँखें फट गयीं। नेताजी सचमुच कलयुग के देवता हैं।             दोनों भीड़ में समा गये। चंदेसर को जब याद पड़ता, वह अपनी कमीज और स्वेटर को तान कर स्वयं को बेआबरू होने बचा लेता। उसका मन नेताजी के प्रति भक्तिभाव में गोते लगा ही रहा था कि आसमान में देवता का पुष्पक विमान दिख गया। हृदय श्रद्धा- भाव से लबालब…….।            नेताजी मंच पर आसीन हुए। साथ में और भी कई देवतागण । भक्तों ने नारे लगाये।           संचालक महोदय ने क्रमवार देवताओं का परिचय कराया। भाषण शुरू हुआ। देश की बदहाली से लेकर खुशहाली तक की चर्चा हुई! सड़क से लेकर संसद तक का ब्यौरा प्रस्तुत किया गया। भारत के अतीत से लेकर भविष्य तक पर विचार किये गये!           श्रोताओं ने तालियों की गड़गड़ाहट से पूरे वातावरण को भक्तिमय बना दिया! गिरधारी और चंदेसर खिसकते-खिसकते मंच के आगे तक आ गये। अब वे सुरक्षा-सीमा को पार करने ही वाले थे कि दो पुलिस वाले आकर दोनों को दो-दो डंडे लगाए। दोनों पीठ हसोतते हुए भीड़ में गुम हो गये।            चंदेसर अब तक गिरधारी को बडग आदमी समझता था। वह सोचता था कि भाई का पासवान जी से खूब जान-पहचान है। लेकिन अपने उद्धारक को इस तरह मार खाते देखकर उसकी हिम्मत पस्त हो गयी! वह अंदर से टूट गया! उनके सजे-सजाए सपने रेतसे बने महलों की भाँति भड़भड़ा गया। पीठ पर टंगा हुआ तूणीर उसे बोझ लगने लगा।             देवता पुष्पक विमान में सवार होकर सुरधाम लौट गये। जीवात्मा का परमात्मा से मिलन न हो सका! बूँद समुद्र से मिल न सका!            चंदेसर का मन भूख से कुलबुलाने लगा। जब तक वह स्वप्न -जगत् में खोया था, न भूख लगी न प्यास! परन्तु अब जमीन का आदमी जमीन पर था!             उसी समय मैदान में भगदड़ मची। लोग यत्र-तत्र भागने लगे और दर्जनों जगह गोल-गोल हो गये। गिरधारी ने पीठ हसोतते हुए कहा-“पूरी-तरकारी बँट रही है।”             दोनों सरपट भागते हुए एक ही गोलम्बर में प्रवेश कर गये। भीतर पूरी-तरकारी की लूट मची थी।             गरमागरम पूरी और तरकारी की गंध से दोनों के नथुने फूले हुए थे। वे नाक से ही उस स्वाद को पीते जा रहे थे। लोग अब पूरी झपटने लगे थे। चंदेसर क्यों पीछे रहता। वह भी चार पूरियाँ झपटकर अपने पल्ले में ले लिया। अब तरकारी की बारी थी, जिसे झपटना संभव न था। तब तक उसने एक पूरी में दाँत मारकर भीतर की अकुलाहट को शांत करना चाहा, लेकिन मन और भी कुलबुलाने लगा। भूख ने उसके धैर्य को परास्त कर दिया।               चंदेसर सबको धकेलते हुए सब्जी वाले के पास पहुँच गया। उसे किसी भयानक जंग को जीतने जैसी खुशी हुई। सब्जी वाले सबके दोने में एक-एक करछुल सब्जी डाल रहे थे। अभाग से उसे दोना नहीं मिल पाया। उसने पूरियों को फैलाते हुए हथेली सबसे आगे सबसे ऊपर बढ़ा दिया। मानो वह ईश्वर का दिया हुआ परसाद लेने को बेताब हो। एक क्षण के लिए लगा कि वह भिखमंगा हो गया यहाँ! दो कौर के लिए! सारी कलाकारी घुसर गयी! लेकिन यह अपनी अपनी जमीर पर विचार करने का वक्त नहीं था। उसे फैली हुई पूरी पर तरकारी चाहिए, फकत एक करोछ तरकारी!              अभी उसे ईश्वर का वह परसाद मिलने ही वाला था कि किसी ने पीछे से धकेल दिया। गरमागरम तरकारी पूरी पर नहीं उनकी दोनों कलाईयों पर पड़ी। पूरियाँ वहीं गिर गयीं। चंदेसर दोनों हाथ झाड़ते हुए बाहर बाहर आना चाहा, लेकिन भीड़ ने उसे जमीन पकड़ा दिया! जब तक वह उठता सौ लोग गुजर गये उसे कुचलते हुए। पीठ पर टंगा हुआ पेटिंग खुलकर बिखर गया। तरकारी की बाल्टी उसी पर उलट गयी। चंदेसर ने तुरंत उसे उठाकर पोछ दिया।              अब उसके पेटिंग के बीच का अंतर समाप्त हो गया। पेड़ के हरे पत्ते पीले हो गये! नदियों का पानी गँदला हो गया! पशुओं और पक्षियों के रंग मटमैले हो गये! फूलों पर मंडराते हुए भँमरे तरकारी के रस खो गये! मर गया उसके भीतर का कलाकार! खत्म हो गयी जीवन की साधना! मिट गयी उसकी पहचान! फूट कर रो पड़ा चंदेसर……..!             लेकिन गाँव में हल्ला हुआ कि चंदेसर को नौकरी मिल गयी! पासवान जी ने उसे डायरेक्ट टरेनिंग में भेज दिया!             अगली सुबह और यात्रियों के साथ अदालत में चंदेसर की पेशगी हुई। सभी जुर्माने की राशि भरकर अपने-अपने परिजन को छुड़ाकर ले गये, पर चंदेसर के घर से कौन आता? पैसे कहाँ से आते? अगली सुनवाई में उसे लावारिश घोषित कर अदालत ने रिहा कर दिया।                 चंदेसर महीने भर बाद भटकते हुए अपने घर पहुँचा तो पत्नी उससे लिपटकर रो पड़ी!डॉ. उमेश कुमार शर्मा  युवा रचनाकार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *