राम : भारतीय मानस की सर्वोत्तम कल्पना

‘राम’ शब्द जहन में आते ही मन- मस्तिष्क में सादगी से भरी हुई, धनुष धारण किए हुए श्याम वर्ण के एक दिव्य पुरुष की छवि उभर आती है। मन शुचिता से लबालब हो जाता है। हृदय भाव- विभोर हो जाता है! और शब्द चूने लगते हैं! साथ ही मन में कई अनुत्तरित प्रश्न भी उमड़ने लगते हैं कि आखिरकार ‘राम’ कौन थे?… क्या थे?… राम कहाँ उत्पन्न हुए?…. राम कब हुए?….राम मिथ है या यथार्थ?….राम पौराणिक हैं या ऐतिहासिक……? कुछ लोग तो यह भी कहने लगे हैं कि राम सर्वथा काल्पनिक हैं। इस नाम कि कोई व्यक्ति कभी हुआ ही नहीं। ऐसे में मामला और उलझ जाता है। चूँकि यह कथन राम के अस्तित्व को ही खारिज कर देता है!

राम और रामकथा की प्रमाणिकता को सिद्ध करते हुए दिनकर जी ने कहा है- “राम -कथा के जिन पात्रों के नाम वेद में मिलते हैं, वे निश्चित रूप से ,रामकथा के पात्र हैं या नहीं, इस विषय में संदेह रखते हुए भी यह मानने में कोई बड़ी बाधा नहीं दिखती कि रामकथा ऐतिहासिक घटना पर आधारित है। अयोध्या, चित्रकूट, पंचवटी, रामेश्वरम् अनंत काल से रामकथा से संपृक्त माने जाते रहे हैं। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि दशरथी राम, सचमुच जनमें थे और उनके चरित्र पर ही आदिकवि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ नामक महाकाव्य का सृजन किया?”(1) निस्संदेह राम एक ऐतिहासिक नायक हैं। इनकी ऐतिहासिकता को प्रमाणित करती हुई प्रसिद्ध इतिहास लेखिका रोमिला थापर कहती है- “कोसल के राजा के उत्तराधिकारी राम ने विदेह की राजकुमारी सीता से विवाह किया था। राम की सौतेली माता केकैयी अपने पुत्र को कोसल का राजा बनाना चाहती थी, और वे राम, सीता तथा लक्ष्मण को चौदह वर्षों के निर्वासित कराने में सफल हो गईं। इस निर्वासन में वे तीनों दक्षिण भारत के वनों में पहुँचे और वहाँ कुटिया बनाकर संन्यासी के रूप में रहने लगे। किन्तु लंका का राजा रावण सीता का अपहरण कर ले गया। राम ने वानरों के नेता हनुमान की सहायता से एक सेना का संगठन किया। रावण के विरुद्ध एक भयानक युद्ध हुआ, जिसमें रावण और उसकी सेना मारी गई। सीता को अग्नि-परीक्षा देकर अपनी पवित्रता सिद्ध करनी पड़ी, उसके बाद राम से उसका पुनर्मिलन हुआ। चौदह वर्ष पूरे हो गये थे। राम, लक्ष्मण और सीता कोसल लौटे। राम का राज्याभिषेक हुआ और ‘रामराज्य’ की स्थापना हुई।”(2)

ऐतिहासिक चरित्र होने के कारण राम का समय निर्धारित किया गया। इतिहासकारों का मानना है कि राम का दक्षिण पार कर लंका पर विजय प्राप्त करने का वर्णन स्पष्ट रूप से दक्षिण में आर्यों के प्रवेश का संकेत करता है। चूँकि दक्षिण की ओर आर्यों के बढ़ने का समय साधारणत: सन् 800 ई.पूर्व माना जाता है। इसीलिए मूल रामायण की रचना इसके करीब पचास या सौ साल बाद हुई होगी। हालाँकि वाल्मीकि के जीवनकाल और रामायण के रचनाकाल के संबंध में पर्याप्त मतभेद है। ‘डाॅ. एच. याकोबी का मत है कि वाल्मीकि का समय भगवान बुद्ध से पहले का है और इसे वे ई.पू. 8 वीं सदी से पहले रखना चाहते हैं। डब्ल्यू स्केगेल इसको ई.पू. 11 वीं सदी तक ले जाते हैं। इसके विपरीत ए. बैबर तथा जी. टी. व्हीलर इसको ईसा के पश्चात के बताते हैं।'(3)

मैं समझता हूँ कि ‘रामायण’ तथा ‘महाभारत’ की भाषा लौकिक संस्कृत है। भाषा-शास्त्रियों के मुताबिक लौकिक संस्कृत का समय ई. पू. 800 से ई.पू. 500 तक है। निश्चय ही रामायण तथा महाभारत की रचना इसी बीच हुई होगी। रामायण की रचना महाभारत से पहले हुई, इसके पीछे तर्क है कि रामायण की कथा महाभारत में ‘रामाख्यान’ के रूप में वर्णित है। स्वयं श्रीकृष्ण गीता का उपदेश देते हुए अर्जुन से कहते हैं- ‘शस्त्र धारण करने वालों में मैं राम हूँ।’ (राम: शस्त्रभृतामहम्) जबकि रामायण में महाभारत के किसी भी संदर्भ की चर्चा नहीं मिलती है। दूसरी बात यह है कि रामायण में जो उदारवादी मनुष्य हैं, महाभारत में उसमें बहुत गिरावट आयी है। जो लोग रामायण या वाल्मीकि को बुद्ध के बाद मानते हैं, उन्हें विचार करना चाहिए कि अगर बुद्ध वाल्मीकि से पहले हुए होते तो रामायण में उनकी चर्चा अवश्य की जाती। जिस तरह बौद्ध ग्रंथ- ‘दशरथजातक’, दशरथकथानकम्’ तथा जैन- ग्रंथ- ‘पउमचरिउ’, ‘महापुराण’ आदि में राम का विस्मृत उल्लेख मिलता है।

राम भारतीयता के पर्याय हैं। राम एक ऐसे नायक हैं, जिसने भारतीय समाज को विभिन्न स्तरों पर जोड़ने का कार्य किया है। राम, विषमता के विरुद्ध समता तथा टकराव के विरुद्ध सामंजस्य के प्रतीक हैं। राम ने न केवल सर्वोत्तम आदर्श हमारे सामने रखा, बल्कि विश्रृंखल भारत को जोड़ने का भी महनीय प्रयास किया। राम उत्तर ,मध्य तथा दक्षिण भारत को जोड़ने की सफल कोशिश की। वे स्वयं उत्तर भारत में पैदा हुए। फिर उन्होंने बनवास के दौरान मध्य भारत के किष्किन्धा में पहुँच कर वन्य प्राणियों से मित्रता की तथा रावण -वध के क्रम में दक्षिण भारत के विभीषण से दोस्ती की। ये तमाम संबंध आर्य-अनार्य तथा सुर- असुर के संबंधों की भी व्यंजना है। केवट, जटायु और शबरी के प्रति राम का श्रद्धाभाव, उनके दलित-सवर्ण सामंजस्य का पर्याय है। इस संदर्भ में दिनकर जी का मत है- “भारत में संस्कृति- समन्वय की जो प्रक्रिया चल रही थी, रामायण में उसकी अभिव्यक्ति मिलती है। रामायण की रचना तीन कथाओं को लेकर पूर्ण हुई। पहली कथा तो अयोध्या के राजमहल की है, जो पूर्वी भारत में प्रचलित रही होगी; दूसरी रावण की जो दक्षिण में प्रचलित रही होगी; और तीसरी कथा किष्किंधा के वानरों की, जो वन्य जातियों में प्रचलित रही होगी। आदिकवि ने तीनों कथा को जोड़कर रामायण की रचना की।'(4) किन्तु उससे भी अधिक संभावना इस बात की है कि राम, वास्तव में ऐतिहासिक पुरुष थे। और सच में उन्होंने किसी वानर जाति की सहायता से लंका पर विजय प्राप्त की थी। रामायण में जो तीन प्रचलित कथाएँ हैं, उनके तीन अलग-अलग नायक भी हैं- राम, रावण और हनुमान। ये तीनों चरित्र तीन पृथक्- पृथक संस्कृतियों के प्रतीक हैं, जिनका अद्भुत समन्वय वाल्मीकि ने दिखाया है।

राम भारतीय मनीषा के एक ऐसे आदर्श नायक है, जिनका सर्वाधिक प्रभाव भारतीय समाज पर पड़ा है। वे एक आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श भाई, आदर्श पति तथा आदर्श राजा के रूप में सर्वविदित हैं। राम को लेकर ही गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामराज्य’ की परिकल्पना की है। तुलसी का यही रामराज्य गांधी को अतिप्रिय था। राम असत्य के खिलाफ जीवन भर लड़ाई लड़ते रहे। इसलिए वे अंधकार के विरुद्ध प्रकाश, अधर्म के विरुद्ध धर्म के प्रतीक हैं। राम में देवत्व का स्वरूप चाहे जितना भी प्रशंसनीय रहा हो, उसका मानव रूप निश्चित रूप से अनुकरणीय है। वे मनुष्य होने की तमाम मर्यादा से निष्पन्न पुरुष श्रेष्ठ है। तुलसीदास ने उसे मर्यादा पुरुषोत्तम कहकर उनका समुचित मूल्यांकन किया है। राम को कुछ लोग सामान्य मनुष्य मानते हैं तो कुछ लोग भगवान विष्णु के अवतार। रामायण में राम का वर्णन एक संघर्षशील मनुष्य के रूप में किया गया है। वहाँ एक ही जगह राम के बारे में नारद जी कहते हैं कि रूप, रंग, गुण, बल और वीर्य में राम विष्णु के समान हैं।

राम का जीवन भारतीय मानस में संघर्ष की चेतना जगाने वाला है। राम अयोध्या के प्रशस्त सम्राट दशरथ के घर राजकुमार के रूप में उत्पन्न हुए, लेकिन उन्हें भी सामान्य बालकों की भाँति गुरु वशिष्ठ तथा विश्वामित्र के आश्रम में रहकर ज्ञान- साधना करनी पड़ी। जिस वक्त माता-पिता के सानिध्य में रहकर बाल जीवन का आनंद लिया जा सकता था, उसी समय उन्हें ताड़का, सुबाहु और मारीच जैसे दुर्दांत राक्षसों का समना करना पड़ा। राम विवाह करके दाम्पत्य जीवन में प्रवेश किये ही थे कि चौदह वर्षों का कठोर वनवास मिला। वहाँ फिर सीता हरण की घटना घटी और रावण जैसे भयानक दानवों से पाला पड़ा। और तो और जब चौदह वर्षों का वनवास भोगकर घर लौटे और उनका ससम्मान राज्याभिषेक हुआ, लेकिन उसके कुछ ही दिन बाद उन्हें पत्नी सीता से अलग होना पड़ा। राम जो कुछ भी पाते हैं, वह अपने संघर्ष के कारण। राम यूँ ही राम नहीं बन गये। इसके केंद्र में उनका अपार धैर्य है। उनकी सादगी है। उनकी स्थित-प्रज्ञता है। जितनी घटनाएँ राम के साथ घटीं, उनमें से कोई एक घटना भी किसी सामान्य मनुष्य के जीवन में घट जाए, तो वह मिट जाएगा। परंतु राम परिस्थतियों से ठोकर खाकर और मजबूत होते गये। राम की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे कभी विचलित नहीं होते…..जब उन्हें राज्याभिषेक की शुभ सूचना मिली, तब भी वे सामान्य बने रहे और जब वनवास का आदेश मिला, तब भी वे सामान्य ही बने रहे। यही चीज उन्हें मनुष्य से ऊपर उठाकर ईश्वरीय बनाता है। सबकुछ मिलने पर भी उनमें कोई अहंकार नहीं है और न ही सबकुछ खोकर वे क्रोधी, वाचाल या अव्यवहारिक होते हैं।

राम जितने पूजनीय और सम्माननीय हैं, उतने ही विवादास्पद भी। राम पर कुछ लोगों ने लांछन भी लगाने की चेष्टा की है। यथा – राम ने छिपकर बाली का वध किया! राम ने शंबूक की हत्या की! राम ने माता सीता को निर्वासित किया…..आदि-आदि! इन लांछनों की क्रमिक समीक्षा अनिवार्य है, ताकि राम के प्रति जो अपवाद फैला है, उसकी पड़ताल की जा सके। सबसे पहली बात यह है कि ‘राम ने छिपकर बाली का वध किया!’ इस संदर्भ मे यह विचारणीय है कि राम ने बाली का वध इसलिए किया, क्योंकि बाली ने अपने छोटे भाई की भार्या तारा का अपहरण किया था, जो घोर अपराध था। मानस में तुलसीदास ने स्पष्ट कर दिया है कि पराई स्त्री का शील-हरण करने वाला पुरुष घोर अपराधी है। ऐसे पुरुषों की हत्या करना पाप नहीं, पुण्य है!

जहाँ तक शंबूक की हत्या तथा सीता -निर्वासित के प्रसंग हैं। इस संदर्भ में स्पष्ट कहा जा सकता है कि ‘रामायण’ के उपरोक्त दोनों प्रसंग प्रक्षिप्त हैं। हम सहज ही समझ सकते हैं कि जो राम, केवट का सम्मान कर सकता है, जो राम जटायु को अपनी गोद में लेकर पिता -सा सम्मान दे सकता है, जो राम शबरी के भक्तिभाव में निमग्न होकर जूठा बैर खा सकता है! वह क्या शंबूक जैसे ॠषि की हत्या कर सकता है……? वह भी इस अपराध के कारण कि उसने वेदों का पाठ किया है, मंत्रों का उच्चारण किया है। राम का व्यक्तित्व अत्यंत विराट है। उनसे ऐसे निकृष्ट कर्मों की कल्पना अनुचित और असंगत है।

तीसरा प्रसंग है – सीता-निर्वासन का। विचारणीय है कि क्या राम ने उसी सीता का परित्याग किया, जिसके लिए वह समुद्र में पुल बांधा….जिसके लिए वह सैनिकों का संगठन किया…..जिसके लिए वह रावण समेत तमाम असुर कुलों का सर्वनाश किया। इस प्रसंग में यह भी दृष्टव्य है कि जिस राम ने पत्थर बनी माता अहिल्या का कायान्तरण किया, वह राम अपनी धर्मपत्नी का परित्याग क्या किसी धोबी के कहने पर कर सकता है। मैंने अहिल्या के लिए ‘कायान्तरण’ शब्द का प्रयोग इसलिए किया, क्योंकि वास्तव में अहिल्याबाई पत्थर न बनी होगी, बल्कि लोकलाज के कारण अथवा पति से परित्यक्त और समाज से बहिष्कृत होने के कारण पत्थर जैसी हो गई होगी! राम ने समाज से च्युत एक अबला स्त्री का सामाजिकरण किया। उसे खोया हुआ सम्मान दिलाया। ऐसे उदारमना राम से सीता-निर्वासन जैसा घृणित कार्य कैसे संभव है! इस तरह की तमाम धारणाएँ निराधार हैं।

उपरोक्त संदर्भ में कहना न होगा कि रामायण के ये प्रसंग प्रक्षिप्त हैं। यह कैसे राम कथा में मिला दिया गया, इसके बारे में रामकथा पर मौलिक शोध करने वाले फादर कामिल बुल्के का कहना है कि, ”वेद में राम कथा विषयक पात्रों के सारे उल्लेख स्फुट और स्वतंत्र हैं। रामकथा -संबंधी आख्यान-काव्यों की वास्तविक रचना वैदिक काल के बाद, इक्ष्वाकुवंश के राजाओं के सूतों ने आरंभ की। इस रामायण में अयोध्याकाण्ड से युद्धकांड तक की ही कथावस्तु का वर्णन था। कुशी -लव उसका गान करके और उसकी अभिनेता का अभिनय दिखाकर अपनी जीविकोपार्जन करते थे।”(6) इस प्रकार आदि रामायण की कथा विकसित होने लगी। कथा का कलेवर बढ़ने लगा। ज्यों-ज्यों राम कथा का यह मूल रूप लोकप्रिय होता गया, त्यों-त्यों जनता को यह जिज्ञासा होने लगी कि राम कैसे जनमे? सीता कैसे जनमीं? रावण कौन था?…. आदि-आदि। जनता की इन्हीं जिज्ञासाओं की शांति के लिए ‘बालकांड’ और ‘उत्तरकांड’ रचे गये। इस तरह राम की कथा रामायण (राम- अयन अर्थात् राम का पर्यटन) न रहकर, पूर्ण रामचरित के रूप में विकसित हुई। ‘राम जैसे-जैसे लोकप्रिय होते गये, वैसे-वैसे उनमें अलौकिकता भी आती गई। अतएव, राम मानव से परमेश्वर में तब्दील हो गये। राम की विराटता को शब्दों में बांधते हुए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने उचित ही लिखा है-

‘राम तुम्हारा जीवन ही काव्य है।

कोई कवि बन जाय,सहज संभाव्य है।।'(7)

कुल मिलाकर संपूर्ण भारतीय समाज ‘राममय’ है। राम अगर ‘मिथ’ ही है! अगर राम कल्पना ही है! तो भी, किसी ने कितना सुंदर मिथ रचा है। किसी ने कितनी सुंदर कल्पना की है! सच में अगर कोई मनुष्य या कोई भी समाज राम को अपने भीतर पचा ले, उनके तमाम आदर्शों को अपने जीवन में उतार ले। राम के रामत्व को आत्मसात कर ले, तो वह व्यक्ति या समाज कितना उदात्त, श्रेष्ठ और अनुकरणीय हो जाएगा।

संदर्भ- ग्रंथ- सूची :

(1) संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर , लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण -1956 ई., पृष्ठ- 77

(2) भारत का इतिहास- रोमिला थापर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण -1975 ई., पृष्ठ- 27

(3) दलित साहित्य का समाजशास्त्र- हरिनारायण ठाकुर, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2009 ई., पृष्ठ- 173

(4) संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर , पृष्ठ -76

(5) हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली- डाॅ. अमरनाथ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2012 ई., पृष्ठ- 299

(6) संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ- 78

(7) साकेत- मैथिलीशरण गुप्त, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण- 1932 ई. , पृष्ठ- प्रथम। ******************इति**************

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