राम की शक्ति पूजा : आत्मिक जागरण की कविता

           हिन्दी साहित्य में अत्यंत चर्चित ‘राम की शक्ति पूजा’ (1936) निराला द्वारा रचित एक लम्बी कविता है, जो उनके काव्य संकलन ‘अनामिका’ में संकलित है। 312 पंक्तियों की इस कविता की कथा जितना पौराणिक है, उतना ही ऐतिहासिक और समसामायिक भी। यह कविता निराला ही नहीं, संपूर्ण छायावाद की सृजनात्मकता का उत्कर्ष है। कवि ने धर्म और अधर्म के शाश्वत संघर्ष का मार्मिक चित्रण किया है। इसमें राम ‘धर्म’ के प्रतीक हैं और रावण ‘अधर्म’ का। इस कविता में अधर्म का चित्रण एक प्रचंड शक्ति के रूप में हुआ है, जिसके समक्ष राम जैसे धीर- गंभीर नायक का भी साहस कुंठित हो जाता है। यह कविता एक ओर कवि के वैयक्तिक जीवन के भयानक संघर्ष से संबद्ध हो जाती है, तो दूसरी ओर तद्युगीन यथार्थ की विकरालता को व्यंजित करती है।

निराला ने यहाँ पौराणिक कथानक के माध्यम से जीवन में व्याप्त सत्-असत् के संघर्ष को व्यक्त किया है। आज भी हमारे समाज में ऐसे ‘रावण’ विद्यमान हैं जो दूसरे की पत्नी का अपहरण करने के बाद अट्टहास करते हैं और ‘राम’ (सामान्य व्यक्ति का प्रतीक) का उपहास करते हुए कहते हैं कि तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, क्योंकि ‘शक्ति’ को मैंने अपने वशीभूत कर लिया है। ऐसे दुष्टों के पास धनबल, शारीरिक बल, अस्त्रबल हर प्रकार का बल (शक्ति) है, किन्तु उनकी यह शक्ति तामसी है, जिसका प्रतिरोध करने के लिए ‘राम’ को भी शक्ति (दुर्गा) की पूजा कर ‘शक्ति संचय’ करना पड़ता है। युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ हर व्यक्ति को करनी पड़ती है। वर्तमान युग में यह ‘संगठन शक्ति’ हो सकती है। शक्ति का यह स्वरूप ‘सात्विक’ होता है ‘तामसिक’ नहीं। इसके बल पर उस तामसी शक्ति सम्पन्न रावण को पराजित किया जा सकता है। ‘राम की शक्ति पूजा’ में निराला का यही मौलिक संदेश है।

‘राम की शक्ति पूजा’ के प्रसंग हैं- राम की पराजय, राम की चिंता, अंतर्द्वंद्व, हनुमान का ऊर्ध्वगमन, विभीषण की मंत्रणा, जाम्बवान् की सलाह, राम का आराधन- संकल्प, पद्महरण प्रसंग, देवी- स्तुति और वर- प्राप्ति। कवि ने इन बिखरे हुए सूत्रों के भीतर से जबरदस्त अन्विति को खोजा है और कविता को महाकाव्यात्मक औदात्य प्रदान किया है।

‘राम की शक्ति पूजा’ का उल्लेख सर्वप्रथम ‘देवी भागवत’ में प्राप्त होता है। इसका दूसरा संदर्भ कीर्तिवास ओझा के ‘बाग्ला रामायण’ में भी मिलता है। यहाँ भगवान श्रीराम, आततायी शक्ति से संपन्न रावण पर विजय प्राप्त करने हेतु शक्ति की उपासना करते हैं। बंगला भाषा में ही माईकेल मधुसूदन दत्त की कृति ‘मेघनाद वध’ रचा गया, जिसमें मेघनाद से पराजित होने के उपरांत लक्ष्मण को शक्ति पूजा करते हुए दिखलाया गया है। बंगला साहित्य में शक्ति पूजा का संदर्भ इसलिए भी अधिक मिलता है, क्योंकि बंगाल में शक्ति की उपासना की ख्यात परंपरा है। निराला की कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ पर उपर्युक्त ग्रंथों की छाया अवश्य है, परंतु निराला ने मौलिकता से कोई समझौता नहीं किया है। जब वे कविता में ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’ जैसे पदबंध का प्रयोग करते हैं, तो वे न केवल शक्ति की मौलिक कल्पना पर ही बल देते हैं, बल्कि इस बहाने अपनी कविता की मौलिकता की भी घोषणा करते हैं। इलियट के शब्दों में कहें तो महाप्राण निराला ने ‘ट्रैडिशन’ के साथ ‘इंडिविजुअल टैलेंट’ का जबरदस्त प्रयोग किया है। कवि को बखूबी पता है कि शक्ति को सदैव मौलिक रूप में ही परिकल्पित किया जा सकता है। अतएव, कवि ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ कुछ इस तरह करते हैं-

‘देखो, बंधुवर, सामने स्थित जो वह भूधर
शोभित शत- हरित-गुल्म- तृण से श्यामल सुन्दर,
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरंद- बिन्दु ;
गरजता चरण-प्रांत पर सिंह वह, नहीं सिन्धु,
दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि- शेखर ;’

प्रकृति की विराटता में इस तरह का बिम्ब उभारकर निराला ने शक्ति की मौलिक कल्पना की है। सही अर्थों में सदियों से गुलाम भारतीय जनमानस के लिए इससे बड़ा संदेश और क्या हो सकता था! यह कविता अपने युगबोध को भी समर्थ रूप में चित्रित करती है। विषाद के क्षणों में राम के मन में कुमारी सीता की अच्युत छवि का उभरना, भारत के गौरवमयी अतीत की छवि है। साथ ही सीता के लिए राम की व्याकुलता वस्तुत: स्वाधीनता के लिए भारत की आम जनता की व्याकुलता है, जिसके लिए वह निरंतर संघर्षरत है।

कविता की शुरुआत राम-रावण के युद्ध से होती है। राम- रावण के अनिर्णीत समर (युद्ध) का इतना जीवंत चित्रण अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। आदिकवि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ में इस युद्ध के बारे में लिखा है- ‘रामरावणर्योयुद्धं रामरावणयोरिव’ कहकर इसे युद्ध के उत्कर्ष को दिखाने की चेष्टा की है, परंतु ‘राम की शक्ति पूजा’ में ‘रवि हुआ अस्त’ मात्र कहकर कवि ने जो प्रभाव उत्पन्न किया है, वह अत्यंत सराहनीय है। फिर वे इस अनिर्णीत युद्ध का अठारह पंक्तियों में जो अनेक बिम्बों से युद्ध का एक सम्यक और गतिशील बिंब रचा है, वह अद्भुत है। कवि ने युद्ध को घनीभूत बनाने के लिए वाक्य को भी सामासिकता से सघन कर दिया है। युद्ध को जीवंत रूप में चित्रित करने के लिए कवि ने संस्कृत के पद- मैत्री, नाद-योजना तथा अनुप्रास-विधान पर विशेष बल दिया है। युद्ध में गति की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती है। तीव्र शर- क्षेप, वेग- युक्त शेल-प्रक्षेपण, प्रतिपल परिवर्तित व्यूह, क्रुद्ध कपि हूह तथा हनुमान का अग्नि उद्गीरण में अद्भुत गत्यात्मकता और वातावरण निर्माण का सामर्थ्य है। कवि ने दो पंक्तियों में ही दोनों दलों की स्थिति को कवि व्यक्त कर देता है –

– ‘राक्षस-पद-तल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार- बार आकाश विकल!
वानर-वाहिनी खिन्न, लख निज- पति- चरण- चिह्न।’

यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि युद्ध में प्रबल पराक्रम दिखाने के बाद भी ‘राम’ रावण पर विजय प्राप्त नहीं कर पाते। उनके बाण लक्ष्य भ्रष्ट हो रहे हैं, वानर सेना के वीर हतदर्प हैं, रावण की सहायता ‘शक्ति’ कर रही है। अतः वह किसी से भी परास्त नहीं हो पा रहा है। यहाँ शक्ति द्वारा ‘रावण की पक्षधरता’ पूंजीवादी ताकतों की नियति को प्रतीकित करता है। राम सत्य के मार्ग पर चलने वाली संघर्षशील, हतभाग्य आम जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। राम निराश हैं, उन्हें लगता है कि अब रावण पर विजय प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं है। जब उनसे उनकी निराशा के बारे में पूछा जाता है तो वे दुःखी होकर कहते हैं कि अब तो देवशक्तियां भी अन्यायी रावण का साथ दे रही हैं, अतः अब उस पर विजय पाना असम्भव है। राम के मन की घनीभूत पीड़ा को आह के रूप में निराला ने दो ही पंक्ति में मर्ज कर दिया है -‘अन्याय जिधर है, उधर शक्ति’। यह आह! केवल राम की आह नहीं है, बल्कि पूंजीवादी शक्तियों के समझ पराभूत आमजन की भी घनीभूत आह है।

‘राम की शक्ति पूजा’ का दूसरा पड़ाव पुन: तीन शब्दों से आरंभ होता है। यह एक अलग वातावरण है-‘प्रशमित’ अर्थात् पूर्णत: शांत। इसके यह सहज आभास होता है कि इसके पहले का वातावरण ‘प्रलयाब्धि -क्षुब्ध’ था। आरंभ में छोटे -छोटे वाक्यों के सहारे शमित वातावरण को बांधा गया है। फिर राम का ही दूसरा चित्र देखिए- ‘श्लथ धनु-गुण है, कटिबंध स्रस्त -तूणीर- धरण।’ जटा- मुकुट विप्रयस्त है, पृष्ठ, बाहु, वक्ष पर बिखरा हुआ है- ‘उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार/ चमकती दूर ताराएँ कहीं पार।’ निराला की कविताओं में अंधकार और प्रकाश का द्वन्द्व- युद्ध सतत चलता रहता है।

कविता का तीसरा पड़ाव- ‘है अमानिशा’ से आरंभ होता है। अमानिशा की भयावहता को कई बिम्बों में रेखांकित किया गया है-‘आकाश अंधकार उगल रहा है, पवन संचार बंद है, पीछे विशाल सागर गरज रहा है, पहाड़ समाधिस्थ है, केवल मशाल जल रही है।’ पुन: वही अंधकार और प्रकाश का शाश्वत संघर्ष। ‘केवल जलती मशाल’ एक वृत निर्मित कर रही है। यह सब भीतर-बाहर दोनों स्तरों पर घटित हो रहा है। ऐसे ही ‘क्षण अंधकार घन’ में कुमारी सीता की छवि विद्युत की भाँति कौंध गई। सौन्दर्य का चिर- परिचित विस्तार। इस विद्युतमयी छवि ने राम के मन में विश्व विजय की भावना भर दी।

राम का मूल ध्येय है- ‘प्रिया जानकी का उद्धार।’ परंतु वे इसमें अक्षम हो रहे हैं। इस कारण उनकी आँखों में आंसू आ जाते हैं, जिसे देखकर हनुमान व्याकुल हो जाता है। इसका हनुमान पर जो प्रभाव पड़ता है, उसे निराला ने एक बिंब के माध्यम से प्रभावकारी रूप में व्यक्त किया है -‘धँस गया धरा में कपि गह युग पद मसक दंड।’ यहाँ हनुमान की ऐसी दशा इसलिए होती है कि वह प्रभु की उम्मीद पर खरे नहीं उतर सके। उनके रहते प्रभु इस दशा को प्राप्त होंगे, ऐसा उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था।

समस्त सभा समाधान की खोज में लगे थे, तभी जामवंत विश्वस्त स्वर में राम से कहा-‘आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर।’ इस सदुपदेश से ‘खिल गई सभा।’ कविता में राम शक्ति पूजा की तैयारी करते हैं। यहाँ शक्ति पूजन के लिए का षट्चक्र -भेदन की प्रक्रिया का सहारा लिया गया है, जो कवि द्वारा प्रत्यारोपित प्रतीत होता है। योगियों का कुंडलिनी -जागरण यहाँ पर क्यों समाविष्ट किया गया? तमाम तार्किकता और मनोवैज्ञानिकता के गहन द्वन्द्वात्मक स्तर पर चलने वाला काव्य योगमार्ग की और क्यों मुड़ जाता है? निश्चय ही इतने जीवंत काव्य की प्रभावोत्पादकता यहाँ कुंद हो गयी है। संभवत: हठयोग के स्थान पर अष्टांग योग का सहारा लिया जाता तो बेहतर होता।

साधना की सिद्धि साधक की गहन परीक्षा से होती है।परीक्षा परीक्षा होती है, जहाँ अपना कुछ नहीं चलता। देवी ने सिद्धावस्था से पूर्व राम की परीक्षा ली, वह हंसते हुए पूजा का अंतिम कमल चुरा ले गई। यह सिद्धि की अंतिम अवस्था थी, जहाँ राम पुन: विचलित होकर कहते हैं –

‘धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध’

यहाँ राम अपने देवत्व से मुक्त होकर आमजन के स्तर पर आ जाते हैं। आखिरकार वह अपनी एक आंख समर्पित कर अनुष्ठान को पूरा करने हेतु उद्धत होते हैं, तभी देवी हँसते हुए प्रकट हो गई और उन्हें विजयश्री का वरदान देकर उनके शरीर में समा गई। कविता का अंत सुखांतक है-

‘होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!
कह महाशक्ति राम के वदन में हुईं लीन।’

महाशक्ति का राम के वदन में लीन होना, वस्तुत: मनुष्य के आत्मशक्ति के विकास की व्यंजना है। शक्ति अपने से बाहर कहीं नहीं है, वह अपने भीतर ही है, केवल उसे जागृत और विकसित करने की आवश्यकता है। सही अर्थों में मनुष्य अपनी बिखरी हुई शक्ति का संयोजन कर ले तो वह कभी पराजित नहीं होगा। कबीरदास जी इसी का संकेत करते हए कहते हैं-‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ वास्तव में मानव मन कल्पवृक्ष की भाँति इच्छित फल प्रदान करने में समर्थ है। बस मनुष्य की पहुँच उसके मन तक हो जाए।

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लेखक, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक और अध्यक्ष हैं।

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