राजमहल

राजमहल वह नहीं, जहाँ पर प्रतिक्षण हो रंग-रलियाँ।
जहाँ वासना की बजती हो, नयी- नयी पैजनियाँ ।।

बालाओ के अरुण अधर का होता हो नित चुम्बन।
नई-नवेली कलियों का ही होता हो अभिनंदन।।

सठे न मदिरा और पियक्कड़, थके नटी का नर्तन।
और मेनका नृत्य करें, करके नि:वस्त्र अपना तन।।

नहीं-नहीं वह जहाँ, नित्य ही खेला जाए पाशा।
साँझ- सबेरे जहाँ षोडशी का ही लगे तमाशा।।

उड़े जहाँ नित ही गुलछर्रे, रोज जहाँ हो होली।
नई यौवना का ही फारी जाए क्षण-क्षण चोली।।

करे गुलाब सलिल से नित ही तन का मज्जन रानी।
मधुर सेज पर ही पहुंचे, पीने तक का पानी ।।

शशि मुखियों की जहाँ आरती, होता हो नित बंदन।
यावक लगता हो चरणों में और कपोल पर चंदन।।

केशर, कुंकुम और अबीर की लगती हो नित लड़ियाँ।
मशली जाती हो किशोरियों की कोमल पंखुड़ियाँ।।

लौटे खाली हाथ भिखारी, करे मौज सामंती।
फरक न पाए शरद् , शिशिर नित बहे वायु वासंती।।

रहे असूर्यम्पस्या बन कर महलों में ही रानी।
पर, औरों की सुन्दरियों का रहे न रक्षित पानी।।

देख अनीति जहाँ की सिसके कवियों की भी कविता।
मुँह छिपाकर चले व्योम में लज्जित होकर सविता।।

राजमहल की परिभाषा तो ऐसी है जो पढ़कर।
नतमस्तक हो जाती दुनियाँ सहसा जहाँ पहुँचकर।।

जहाँ दया, करुणा, ममता की बहती सदा त्रिवेणी।
न्याय दृष्टि में जहाँ न रहती व्यक्ति- विभाजन श्रेणी।।

राजमहल वह देता तन का मेद कतर, सुन वेदन।
सहन नहीं वह कर सकता है, धरती का उत्पीड़न।।

दे देता है वचन पूर्ति के लिए विहँस कर लोचन।
तन की हड्डी देकर बनता जगती में दु:खमोचन।।

प्राण जाय पर वचन पूर्ण हो, सुत को विपिन पढ़ाता।
चरण पादुका पूज बंधु प्रतिनिधि हो राज चलाता।।

राज्य-स्नेह, सुख की तिलांजलि कर देता है मन सेे।
भेज देता है विपिन में रानी को आकर कानन से।।

याचक के आगे रानी को सुख से रख देता है।
और विश्व में त्याग वीर का नाम अरज लेता है।।

बिक जाता काशी में जाकर,सुुुत रानी को लेकर।
जाता है जब इस धरनी से अमर कहानी देकर।।

‘बुद्धं शरणम्’ कह कर देता अपना मुकुुुुट विसर्जन।
चल देता है स्वयं ठहरने, जहाँ घोर वन- निर्जन।।

त्याग धर्म है जिस किरीट का उसको कैसे भूलेें।
हस्ती-धर्म-सा अपने तन पर ही छींटें हम धूलेें।।

चल देता कौपिन पहनकर छोड़ महल के सुुुख को।
बुद्ध और तीर्थंकर बनकर हरते हैैं जग- दु:ख को।

सतयुग से आ रही प्रथा यह, फिर हम भूल रहे हैं।
विकृत मन क्यों हुए हमारे, खा हम धूल रहे हैं।।

तीन डेग के लिए, भुुुुवन तीनों की जाए धरती।
फिर भी रहती हँसी ओठ पर ममता आ न फटकती।।

भले सदा के लिए रहे पाताल पुुरी में जाकर।
किन्तु वचन से नहीं मुकरना अपना धर्म बनाकर।।

पहन लंगोटी तप करता है, जो नगराज शिखर पर।
सुर पुर से गंगा उतारकर, रख देता धरती पर।।

धरनी का दु:ख देख लपककर जो हल मूठ पकड़ता।
और जानकी- सी नारी को जन-समक्ष है रखता।।

तनधारी होकर विदेह की पदवी वह ही पाता।
कमल- पत्र -सा जो जग में रहने का पाठ पढ़ाता।।

नाम मित्र का सुनतेे ही दौड़़ा जो विह्वल होकर।
कहीं पादुका, वेणु कहीं, रह जाए कहीं पीताम्बर।।

अंक मालिका करके सादर ला निवास के भीतर ।
और नयन के जल से ही धोता पद कर में लेकर।।

त्याग दिया पकवान कहीं तो साग संत घर खाया।
जितना देने पर भी उसको स्वल्प समझ सरमाया।।

जो जूठे पत्तों को भी फेंका निज हाथ उठाकर।
भक्त का रूदन सुन दौड़ा है निज अस्तित्व भुलाकर।।

अब भी तो वह कथा शेष है, चलकर हम तो सुन लेें।
और हिमांचल में दिल-मन का ताना-वाना बुुुुन लेें।।

शेष जहाँ हिन्दू की गरिमा लो निहार जगती में।
नारायण के लोक में देखो पशुपति की धरती में।।

स्वयं काट दुुु:ख राज्य अरजता कहता सबका धन है।
वही चलाए शासन जिसको चाह रहा जन-जन है।।

स्वयं तमस्सुुक लिख लेता, ऋण ब्याज सहित लौटाता।
देता है उपदेश दिव्य सोये को उठा जगाता।।

चार वर्ण छत्त्तीस जाति की यह साझा फुुलबारी।
इसकी सेवा में लग जाएं सबकी यह महतारी।।

जन्म- भूमि जननी की महिमा सदा स्वर्ग से बढ़कर।
राष्ट्रमंत्र के रूप इसी को किया प्रतिष्ठित भूू- पर।।

प्रजा सबल होगी तब होगा राजमहल बलशाली।
दो पत्थर के बीच तरुक को तभी मिलेेेेगी लाली।।

प्रजातंत्र का अनुरागी बन मुुुुकुट न धारण करता।
प्रण से डिगता नहीं मरण को ही श्रेष्ठ समझता।।

सिंहासन को त्याग प्रजा के लिए कष्ट जो झेले।
प्राणों की ममता को भूलें और आग से खेलें।।

दे देती है जहाँ रानियाँ कर्णफूल सोने का ।
भले ही हो प्रत्यक्ष विपत्तिया या दुुुरदिन रोने का।।

जो जोते भू रहे उसी के कब्जा में वह धरती ।
बैठ मेड़ पर मौज करें जो रह जाए उसकी परती।।

मरूँ भले मैं, किन्तु हमारा देश रहे यह जीवित।
राजमहल ही भरता हममें यह अनुराग असीमित।।

जन इच्छा क्या बढे़ न घर में किसी तरह का विग्रह ।
वीर कुलोद्भव नृप ही तो कर बाजा जनमत संग्रह।।

पूस-माघ में भी शिखरों पर पाल टांग कर रहता।
घर-घर में जा दीन-दुखी की आत्म- वेदना सुनता।।

भूख रोग से पीड़ित जनता का जो भार उठाता।
और वेद के सद् वचनों को जीवन लक्ष्य बनाता।।

राजमहल की रही युगों से सुुुन्दर अमर कहानी।
अगणित नृप बन गये जहाँ पर स्वयं भिक्षु-बलिदानी।।

धन्य हुई कितने भूपों से सचमुच में यह धरती।
हरे मेंहदी के पत्तों में छिपी लालिमा रहती।।

देती ऊँगली लगा समर में रथ की ही धूरी में।
जग को देती बता छिपा है कितना बल चूेरी में।।

जहाँ रानियां मृदुल करों में लेेेकर खड्ग निकलती।
कंगन के बदले हाथोंं में आ तलवार चिपकती।।

विजय-लालसा की प्यासी बन, रण में आगे बढ़ती।
जीत नहीं पाई तो मरती ,हारी किन्तु न कहती।।

जन्म लिया है कौन यहाँ वेदाग चल है जग से ?
कौन पुरुष जो डिगा नहीं है, इस धरती पर मग से।।

राजनीति की परिभाषा में शंंबूक- वध था अनुचित।
दिया अंगूठा एकलव्य ने क्या वह भी था समुुुुचित।।

राजनीति में हम जो चाहें वही करे यदि राजा।
समझ पाएगी तब क्या दुनियां क्या भाँजी क्या खाजा।।

कहने में सिद्धांत सरल है, करना किन्तु कठिन है।
रूप सत्य का नहीं बदलता चाहे निशि या दिन हैै।।

अपनी ही बातों को दुनिया सचमुच ठीक समझती।
नहीं दूसरों की कुछ सुनती, तब तो लीक बिगड़ती।

प्रजातंत्र वह नहीं जहाँ पर डाकू निर्भय घूमे।
जो भी औरों की इज्जत से दे गलबाही झूूमे।।

जो मन में आवे उसको ही विधि सम्मत वह जाने।
अपनी दुर्जनता को भी शास्त्रीय वचन -सा माने।

नियम छोड़ अधिकार के बल पर पावेे उच्छृंखलता।
तो सुख से क्या सकती है शिष्ट देश की जनता ?।

प्रजातंत्र और विधि के आगे हो समान सब जनता।
औरों का हक रहे सुरक्षित बरते सब संयमता ।।

बचो- बचाओ इस दुनियां को होना है यह नारा।
जियो और जीने दो सबको हो सिद्धांत हमारा।।

मैं ही बचूँ , लगाऊँ- खाऊँ औरों को क्या देना ?
नीति नहीं यह है अनीति फिर क्या देना क्या लेना ?

शासन रूप बदलता रहता न्याय अटल रहता है।
न्याय के लिए जीवन बलि हो, यही नीति कहता है।।

जहाँ जीवनी तत्व प्राप्त हो वही लताएँ बढ़ती।
स्नेह बाँटता जो उसके प्रति श्रद्धा आप उमड़ती।।

उसमें पूजा-भाव पनपता पूज्य जिसे अपनाता ।
अपना आशीर्वचन सुनाकर उसको धन्य बनाता।।

जिसका है ‘सब जन हिताय’ का लक्ष्य सदा जीवन में।
रह सकता है वह अपूज्य बन नहीं कभी भुुुवन में।।

शक्तिहीन सत्ता को ही तो युुुुग से शास्त्र दबोचा।
लूटपाट के साथ खगों को बाजों नेे है नोचा ।।

राजमहल नि:शक्त जहाँ पर वहाँ टूूटती कड़ियाँ।
छोटी मछली को खा जाती है जैसे बड़ी मछलियाँ।।

विजय- प्राप्त को लोग अगर निज परिचय धर्म समझते।
तो विजयी बन धर्मराज क्यों स्वर्ग खोजने चलते।।

गलते क्यों फिर पार्थ हिमालय केे उतुंग शिखरों पर ?
और शेष पांडव क्योंं मरते गल-पच कर पत्थरों पर ?।

विजय प्राप्त से ही न किसी की बढ़ती जग में महिमा।
सबसे ऊँची वसुंधरा में है विवेक की गरिमा।।

जहाँ राज्य करता विवेक है शुुुुद्ध विचार पनपता।
वहीं- वहीं पर राजमहल की जय-जय अब भी करता।।

मूल रचनाकार- सूर्यनारायण लाल दास
( साहित्यरत्न )

संंकलन- डाॅ. शोभा कुमारी (पौत्री )
सम्पादक – उमेश कुमार शर्मा
( युवा रचनाकार)
संपर्क-08877462692

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