मोहनदास नैमिशराय की कहानी ‘कर्ज’ : दलित प्रतिरोध की मुखर अभिव्यक्ति

दलित- साहित्य लेखन- परंपरा में बहुमुखी प्रतिभासंपन्न कथाकार मोहनदास नैमिशराय वह नाम है, जिसके बिना दलित- साहित्य अधूरा है। सही अर्थों में दलित- साहित्य का मूलभूत इतिहास मोहनदास नैमिशराय से ही आरंभ होता है। मोहनदास नैमिशराय ने अपनी बहुत प्रतिभा से साहित्य की अनेक विधाओं को समृद्ध किया है। वे एक साथ कवि, कथाकार और आलोचक के रूप में चर्चित हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं- ‘अपने-अपने पिंजरे’ (आत्मकथा); ‘मुक्तिपर्व’, ‘वीरांगना झलकारी बाई’, ‘आज बाज़ार बंद है’, ‘क्या मुझे खरीदोगे?’ (उपन्यास); ‘आवाजें’, ‘हमारा जवाब’ (कहानी- संग्रह) ‘सफदर का बयान’, ‘आग और आंदोलन’ (कविता संग्रह); ‘अदालतनामा’ (नाटक); ‘दलित पत्रकारिता : सामाजिक और राजनीतिक चिंतन’ (मीडिया एवं पत्रकारिता विमर्श); ‘बाबा साहेब डाॅ. अंबेडकर : जीवन परिचय’ (जीवनीपरक आलोचनात्मक पुस्तक) आदि। यद्यपि मोहनदास नैमिशराय ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से साहित्य की अनेक विधाओं को समृद्ध बनाया, तथापि उन्हें सर्वाधिक ख्याति कथा-लेखन में मिली है। नैमिशराय के समस्त कृतियों में दलित- प्रतिरोध दृष्टिगत होता है। कथा साहित्य में यह और भी उग्र रूप में परिलक्षित होता है।

‘कर्ज’ मोहनदास नैमिशराय की प्रसिद्ध कहानी है। यह कहानी दलित चेतना को उभारने में सक्षम है। यह कहानी दलित लेखन की सवर्णवादी मानसिकता का पूर्णत: निषेध करती है। कर्ज लेखक की पहली कहानी है, जिसमें दलित जीवन के सामाजिक और आर्थिक सरोकार पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है। कहानी का रचनात्मक उद्देश्य दलित-जीवन के सामाजिक अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान के इर्द-गिर्द घूमता है।
कहानी में उन्होंने स्पष्ट किया है कि किस प्रकार एक दलित परिवार अंधविश्वास युक्त सामाजिक मर्यादाओं को ढोता हुआ कंगाल और फटेहाल हो जाता है। सूदखोरों के कर्ज अदा करने में ही उसका संपूर्ण जीवन खप जाता है। किस प्रकार सूद-दर- सूद भरते हुए वह कर्ज में ही मर जाता है। इसका यथार्थवादी चित्रण इस कहानी में मिलता है। यद्यपि ऐसे विषयों पर प्रेमचंद ने भी कहानियाँ लिखी थीं, तथापि उनकी कहानियाँ वर्ग- चेतना के खाँचे से बाहर नहीं निकल पाती हैं। इसके विपरीत कर्ज कहानी में वर्ग- चेतना के साथ ही वर्ण- चेतना की मुखर अभिव्यक्ति हुई है। यह उचित भी था, चूँकि दलितों को दोनों स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है।

‘कर्ज’ कहानी का नायक अशोक है, जो अपने माता- पिता के द्वारा लिये गये महाजन के आर्थिक कर्ज तो नहीं उतार पाता है, किन्तु अपनी माँ – बहन समेत दलित समाज की सैकड़ों बहू- बेटियों का कर्ज जरूर उतार देता है, जिनकी इज्जत एक एक कर महाजन ने ली थी। दलित- चेतना की धार यहाँ अत्यंत तीक्ष्ण है और प्रतिरोध के स्वर बेहद मुखर।

कहानी आरंभ होती है कथानायक अशोक की माँ रामप्यारी की हृदयविदारक चीख से! सामने उसके पिता रामदीन की लाश पड़ी है। पिता के असामयिक निधन ने माँ रामप्यारी और बहन को हिलाकर रख दिया है। रामदीन मुश्किल से चालीस- पैंतालीस के रहे होंगे। नीरव रात्रि में माँ और बहन छाती पीट-पीटकर रो रही थी। उनकी चीख सुनकर गाँव भर के लोग जुट गये। सभी माँ को दिलाशा दे रहे थे। पिता की मृत्यु का समाचार पाकर अशोक भी शहर से लौट आया है। उसे कुछ दिन पहले ही पिता के बीमार होने की खबर मिली थी, परंतु पिताजी इतना जल्दी चले जाएंगे। ऐसी उम्मीद उसे नहीं थी। आते ही वह भी पिता की लाश से लिपटकर दहाड़ मारकर रो पड़ा।

अशोक अपने पिता की मृत्यु के कारण और परिस्थितियों से बखूबी परिचित था। गरीबी, भूख, जवान बेटी कमला की शादी और कभी न सधने वाले महाजन के कर्ज की चिंता ही उसके पिता की मृत्यु के कारण थे, तथापि अभी इस विषय पर विचार करने के समय नहीं था।अब उसके सामने दुखों का पहाड़ था। उन्होंने शीघ्र पिता का दाह- संस्कार किया। छोटी – सी आमदनी थी उसकी, जिसमें वह चाहकर भी अपनी माँ और बहन को शहर में रख नहीं सकता था। और फिर यहाँ उन्हें छोड़कर भी जाए तो किसके सहारे? अशोक इसी सोच में डूबा था और उधर गाँव वालों को मृत्यु- भोज की चिंता सता रही थी। प्रेमचंद ने ठीक ही कहा है कि भारतीय संस्कृति मृत्यु सेवी संस्कृति है, यहाँ जीवन को बचाने से अधिक मृत्यु को सजाने की चिंता रहती है। इस संस्कृति में बीमारों के इलाज के पैसे नहीं मिल सकते, लेकिन उसके कफन का इंतजाम तरंत हो जाता है और श्राद्ध के लिए कोई भी कर्ज दे देता है। चूँकि लोगों को लोक से अधिक परलोक की चिंता रहती है।

शहर में रहने के कारण अशोक क्रिया- कर्मों की वास्तविकता को समझ चुका था। इसलिए उसे यह सब व्यर्थ प्रतीत हो रहा था। उन्होंने पिता का श्राद्ध -कर्म करने तथा मृत्यु भोज करने से साफ मना कर दिया। समाज में इसका व्यापक विरोध हो रहा था। लोग तरह-तरह के व्यंग्य कर रहे थे। ताने मार रहे थे, परंतु अपनी प्रतिकूल आर्थिक स्थिति के कारण वह सर्वथा शांत था। गाँव के सूदखोर सहानुभूति जताने के बहाने आते, लेकिन जाते- जाते यह कहना नहीं भूलते कि -“बेटा अशोक, यदि पैसे की जरूरत हो तो बेहिचक कह देना….. और हाँ, तेरे पिता तो पहले ही से कर्ज लिये थे, जो अभी तक शेष हैं….!” अशोक मन मसोस कर रह जाता। यह महाजन नहीं कसाई है। उसे आज भी याद है कि पिताजी को खेती के लिए सौ रूपये की जरूरत थी। सरकार से खेती के लिए जमीन का एक छोटा- सा टुकड़ा मिला था। बहुत खुशामद के बाद महाजन ने सौ रूपये दिये थे। फिर तो उसी पैसे के बदले पिताजी से चार साल बेगार करवाया। पिता के साथ अशोक भी महाजन के खेतों में काम करता था, परंतु कर्ज था कि सधने का नाम न लेता था। महाजन कहता- ‘अभी तो ब्याज भी न सधे हैं।’ आखिरकार अशोक सब छोड़कर शहर चला गया, लेकिन उसके पिता महाजन के खेतों में दिन- रात खटते रहे। परिणामत: वे बीमार पड़े और शीघ्र चल बसे।

देखते ही देखते आठ-दस दिन बीत गये। अब गाँव वाले को लगने लगा कि अशोक अपने पिता का श्राद्ध कर्म और मृत्यु भोज नहीं करेगा। महाजन को तो इसकी सबसे अधिक चिंता थी। उसे सामाजिक रीति-रिवाज से अधिक अपने पैसों की फिकर थी। इसीलिए सबने मिलकर एक पंचायत रखी और अशोक को बुलाया गया। वहाँ का नजारा उसे अजीब लगा। गाँव के सवर्ण लोग कुर्सियों पर बैठे थे, परंतु दलित वहीं जमीन पर। अशोक वहाँ पहुँच कर एक स्टूल पर बैठ गया। यह देखकर सवर्णों को रोंगटे खड़े हो गये। वहाँ भी सबके सामने अशोक ने श्राद्ध कर्म करने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि आपलोग बताएँ कि कर्ज लेकर यह सब करना ठीक है क्या? मेरे घर में खाने का इंतजाम न हो और मैं पूरे गाँव को न्योता दूँ?” इस पर महाजन ने कहा कि तू अपने की तेरहवीं करता है या नहीं, मुझे इससे कोई मतलब नहीं, तेरे बाप ने मुझसे कर्ज लिया था, उसका क्या होगा?”

इस पर अशोक ने बेबाकी से कहा कि उस कर्ज के बदले ही मेरे पिता जी ने चार सालों तक बेगारी किया…फिर भी आपका कुछ बचा है तो मैं शहर से आने पर बार करूंगा। लेकिन महाजन उसे पूरे गाँव के सामने कर्ज कबूलवाना चाहता था। अशोक के मना करने पर महाजन के कारिंदों ने उसकी पिटाई कर दी। ऊपरी मन से महाजन ने उसे बचाने का नाटक किया। किन्तु जाते- जाते उसने सुना, महाजन कह रहा था-“बच गया साला…!”

अशोक अगले ही दिन शहर चला गया। लेकिन उसे माँ और बहन की बहुत चिंता हो रही थी। हुआ भी वही जो उसे आशंका थी। महाजन ने अपने कारिंदों के सहारे पहले उसकी माँ और बहन को फुसलाने की कोशिश की, परंतु झाँसे में नहीं आने पर उनका बलात्कार कर उनकी हत्या कर डाली। रात में वे खेत में पानी पटाने गयी थीं। सुबह लोगों ने उन दोनों की खून से लथपथ लाशें देखीं। अशोक खबर पाकर शहर से लौट आया। उसके सुन्न आँखों से सब कुछ देखा। उसका सबकुछ लुट चुका था, लेकिन आज उनकी आँखों में आँसू नहीं थे, उनसे अंगारे बरस रहे थे। उसने चुपचाप माँ- बहन का क्रिया- कर्म किया और फिर आधी रात को एक लंबा छूरा लेकर महाजन की हवेली की ओर चल पड़ा। पिछले दरवाजे से वह हवेली में पहुँचा। महाजन का कमरा उसे देखा- सुना था। बचपन से ही वह यहाँ आता- जाता था। गर्मी के दिन थे। महाजन का कमरा बाहर से सटा था। उसमें कुंडी नहीं लगी थी। वह कमरे के अंदर घुसा और दीवार में टंगी महाजन की बंदूक उठा ली। आहट सुनकर महाजन जग चुका था, लेकिन अशोक ने बंदूक तान ली। महाजन गिड़गिड़ाने लगा।

अशोक ने उससे कसूर कबूल करवाया और कहा-“महाजन! इस गाँव की दलित अबलाओं का मुझपर बहुत दिनों से कर्ज था। तुमने एक- एक कर सबकी इज्जत ली है। आज समय आ गया है कि मैं उनका कर्ज चुकाऊँ!” यह कहने के साथ ही उसने दो गोलियों में महाजन का काम तमाम कर दिधॅया। आवाज सुनकर कारिंदा आया तो उसे भी गोलियों से भून डाला। इस प्रकार दोनों अपराधियों को ढ़ेर कर वह अंधेरे में विलीन हो गया। उसने अपने माता- पिता ही नहीं गाँव भर के दलितों का कर्ज उतार दिया। अगले दिन लोगों ने देखा कि जहाँ कल माँ और बेटी की चिता जली थी, उसी के पास महाजन और कारिंदा उज्जड़ सिंह की चिता धधक रही है।

इस प्रतिरोध के साथ यह कहानी समाप्त होती है। इसमें दलित समस्या बड़ी से मुखरता से साथ उभरी है। दलित चेतना का इतना आक्रामक और अभिव्यक्ति इससे पहले देखने को नहीं मिली थी। इस कहानी के माध्यम सें दलितों की सामाजिक विसंगतियों और दलित शोषण के खिलाफ प्रतिरोध और प्रतिशोध लेने की प्रेरणा दी गई है।

कहानी कला की दृष्टि से यह कहानी बहुत कलात्मक भले ही न हो, परंतु प्रभाव की दृष्टि से यह कहानी अत्यंत महत्वपूर्ण है। वास्तव में यह कला, कला के लिए नहीं, वरन् जीवन के लिए है। कहानी की भाषा प्रतिरोध की अभिव्यक्ति में सर्वथा सक्षम है।

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लेखक – श्री राधाकृष्ण गोनकका महाविद्यालय, सीतामढ़ी, बिहार मे हिन्दी के सहायक प्राध्यापक और अध्यअईशहै

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