मैला आँचल : वस्तु और शिल्प

‘मैला आँचल’ हिन्दी के चर्चित कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु रचित आंचलिक उपन्यास है, जिसका प्रकाशन सन् 1954 ई, में हुआ। ‘मैला आँचल’ में बिहार के पूर्णिया जिले के मेरीगंज गाँव को कथा के केन्द्र में रखा गया है। यह गाँव तैराहट स्टेशन से सात कोस पूरब स्थित है। गाँव के पूरब में कमला नदी की धारा सतत प्रवाहित हो रही है। बरसात के अतिरिक्त अन्य दिनों में यह धारा प्राय: सूख जाती है और रेत के गड्‌ढों में जगह-जगह जल-कुण्ड बन जाते हैं। गाँव के सांस्कृतिक जीवन के साथ नदी का गहरा अंतर्संबंध है। ‘मेरीगंज’ नाम नील की खेती करने वाले अंग्मारेज ऑफिसर मार्टिन साहब की ‘मेम’ (पत्नी) ‘मिस मेरी’ के नाम पर पड़ा है। मार्टिन साहब ने मेरीगंज में कोठी बनवाने के साथ ही अपने प्रभाव से रौतहट स्टेशन से मेरीगंज तक डिस्ट्रिक बोर्ड की सड़क बनवा दिया था और गाँव में पोस्ट आफिस खुलवा दिया था। उनकी मेम कलकत्ते में रहती थी। मेरीगंज आने के एक हफ्ते बाद ही उसे मलेरिया हुआ। मार्टिन साहब सिविल सर्जन को लाने के लिए पूर्णिया भागे। सिविल सर्जन के साथ उनके लौटने के पहले ही ‘मेरी’ ज्वर में तड़पकर मर गई। मार्टिन साहब ने मेरीगंज में एक छोटी-सी डिस्पेंसरी (स्वास्थ्य केन्द्र) खुलवाने की कोशिश की। उनके अथक प्रयत्न के बावजूद डिस्पेंसरी नहीं खुली। इसी समय जर्मन वैज्ञानिकों ने नील बनाने की वैज्ञानिक विधि का खोज ली। मार्टिन का कोई सपना पूरा नहीं हुआ। आखिरकार वह पागल होकर मर गया।

‘मैला आँचल’ हिन्दी का संभवत: प्रथम आंचलिक उपन्यास है। इस उपन्यास में अंचल विशेष के प्राय: सभी गुण निहित हैं। इस उपन्यास में मेरीगंज के बहाने उस स्थान विशेष की संस्कृति, भाषा- बोली, रीति-रिवाज, रहन-सहन, लोकजीवन, धार्मिक विश्वास, सामाजिक राजनीतिक संघर्ष आदि का यथातथ्य चित्रण किया गया है। यही कारण है कि इस उपन्यास का नायक कोई व्यक्ति न होकर भारत का एक पिछड़ा गांव ‘मेरीगंज’ ही है। इसके बारे में लेखक ने कहा है- “मेरीगंज एक बड़ गांव है, बारहों बर्न के लोग रहते हैं। गाँव के पूरब एक धारा है, जिसे कमला नदी कहते हैं।बरसात में कमला भर जाती है………राजपूतों और कायस्थों में पुश्तैनी मनमुटाव और झगड़ होते आए हैं। ब्राह्मणों की संख्या कम है, इसलिए वे हमेशा तीसरी शक्ति का कर्तव्य पूरा करते रहे हैं।………..दस आदमी पढ़े लिखे हैं- पढ़े लिखे का मतलब हुआ अपना दस्तखत करने से लेकर तहसीलदारी करने तक की पढ़ाई।” यह गाँव तंत्रिमा, यदुवंशी, गहलौत,कुर्मी, धनुकधारी, कुशवाहा, क्षत्रिय, अमात, ब्राह्मण तथा रैदास आदि टोलियों में विभाजित है। संथाल टोली को गाँव से अलग समझा जाता है। गाँव में मुख्यतः तीन दल हैं- राजपूत, कायस्थ और यादव। राजपूतों के नायक राम किरपाल सिंह, कायस्थों के विश्वनाथ प्रसाद और यादवों के रामखेलावन यादव हैं। ब्राह्मण तीसरी शक्ति का काम करते हैं। राजपूत और कायस्थ सम्पन्न हैं। दोनों मिलकर पूरे गाँव का शोषण करते हैं।

मेरीगंज हर स्तर पर पिछड़ा हुआ गांव है। 1946 ई० तक की स्थिति यह है कि पूरे गाँव में कुल दस व्यक्ति थोड़ा-बहुत लिखना-पढ़ना जानते हैं। युवकों में पढ़ने वालों की संख्या कुल पन्द्रह है। पूरा गाँव घोर गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास और बीमारी का शिकार है। पिछड़ापन इस सीमा तक है कि गाँव में मलेरिया सेण्टर बनाने के लिए आई हुई डिस्ट्रिक बोर्ड की टीम को मिलिट्री समझकर गाँव के लोग भागने लगते हैं। और यादव टोला के लोग कांग्रेसी कार्यकर्ता बालदेव को बाँधकर ओवरसियर साहब के सामने इसलिए ले जाते हैं कि फरारी-सुराजी को पकड़वाने पर सरकार बहादुर की ओर से इनाम मिलेगा। ऐसे घोर पिछड़े गाँव में डॉ० प्रशांत मलेरिया सेण्टर के डाक्टर होकर आते हैं।

डॉ० प्रशान्त अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न और संवेदनशील डाक्टर हैं। राजनीति में उनकी कोई रुचि नहीं है। गाँव में रहते हुए उन्हें ग्रामीणों से लगाव हो जाता है। वे आए थे मलेरिया और कालाजार के सम्बन्ध में रिसर्च करने, किन्तु धीरे-धीरे गाँव की मिट्टी उन्हें सम्मोहित कर लेती है। गाँव के नदी-तालाब, पेड़-पौधे, जीवन-जानवर, कीड़े-मकोड़े सभी में उन्हें जादू-सा आकर्षण दिखाई पड़ता है। गाँव की गरीबी और बेबसी देखकर उनकी आत्मा तड़प उठती है। वे सबकुछ भूलकर गाँव वालों को सबसे पहले इंसान बनाने का संकल्प लेते हैं। वे अपने इस निर्णय की सूचना अपनी डॉ० मित्र ‘ममता’ को दे देते हैं। ममता एक तरह से उपन्यास का चश्मदीद गवाह है।

गाँव में डॉ० प्रशांत के मन को एक और प्राणी बाँध लेता है और वह है तहसीलदार विश्वनाथ की पुत्री- ‘कमला’। कमला रह-रह कर बेहोश हो जाती है। डॉ० प्रशांत उसका इलाज शुरू करते हैं और धीरे-धीरे नारीत्व के सहज-पवित्र आकर्षण में बँधकर उसके प्राणनाथ बन जाते हैं। यह उनके जीवन का नितान्त निजी कोना है। इससे उनके समर्पित जीवन की कार्य-पद्धति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। शक्ति और प्रेरणा अवश्य मिलती है।

देश के स्वतंत्र होने के कुछ पहले तक इस गाँव में किसी राजनीतिक पार्टी का व्यापक प्रभाव नहीं पड़ा था। कांग्रेस के बड़े नेताओं के मिथकीय व्यक्तित्व की हल्की छाया इनके मन-मस्तिष्क पर अवश्य पड़ी थी। राजपूत टोला पर हिन्दू राज्य स्थापित करने का स्वप्न दिखाने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संचालक जी का थोड़ा-बहुत प्रभाव पड़ने लगा था। यादव टोली के कालीचरन सोशलिस्ट पार्टी का अधकचरा सन्देश गरीबों तक पहुँचाने लगे थे। उनकी ये बातें ‘जमीन जोतने वालों की’। तथा ‘पूँजीवाद का नाश हो’- जनता को प्रभावित करने लगी थीं। डॉ० प्रशान्त राजनीति में नहीं थे, लेकिन गरीबों के प्रति उनका हार्दिक लगाव था। उन्होंने संथालों को समझाया था कि वे ही जमीन के असली मालिक हैं। कानून है कि जिसने तीन साल तक जमीन जोता-बोया है, जमीन उसी की होगी।

गाँव में सबसे अधिक दलित और शोषित संथाल (आदिवासी) ही थे। गाँव से कटे होने के कारण उनमें परायापन कुछ अधिक ही था। यह जानकर कि जमीन जोतने-बोने वालों की हो गई है, वे तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद के चालीस बीधा वाले बीहन के खेत में हल्ला बोलकर बीहन लूट लेते हैं। तहसीलदार साहब के गुंडे और गाँव के लोग उनपर आक्रमण कर देते हैं। संथालों में चार और गुंडों में दस मारे जाते हैं। मुकदमा चलता है। बालदेव और कालीचरन तहसीलदार के गवाह बन जाते हैं। सीधे- सादे संथाल स्वीकार कर लेते हैं कि बीहन का खेत तहसीलदार का ही था। उन्हें आजीवन कारावास की सजा होती है। इसी समय देश आजाद हो जाता है। स्वतंत्रता बँटवारे के मूल्य पर मिलती है। हिन्दुओं और मुसलमानों के दिलों में हमेशा के लिए दरार पड़ जाती है। पूरा देश साम्प्रदायिक दंगे की आग में जलने लगता है। मेरीगंज में मुकदमे की जीत और आजादी का उत्सव एक साथ मनाया जाता है। उत्सव के बीच ‘यह आजादी झूठी है’ की आवाज भी एक कोने से सुनाई पड़ती है। गाँव के लोग ‘मारो साले को’ कहते आवाज की ओर टूट पड़ते हैं।

सचमुच आजादी झूठी साबित हुई है। यह तो केवल सत्ता का हस्तांतरण हुआ है। गोरे अंग्रेज का स्थान काले अंग्रेज ने ले लिया है। आम आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आया है! उपन्यास में गाँधीजी का प्रतिरूप बावनदास-निराश है। वह देखता है कि सभी पुराने जमींदार कांग्रेसी हो गए हैं। सभी नेता राजधानी में रहना चाहते हैं। सभी के मन में सत्ता का लोभ प्रबल होता जा रहा है। कांग्रेस के कार्यकर्ता ब्लैक मार्केटिंग में सहयोग कर रहे हैं। पूरा देश अविश्वास, घृणा, स्वार्थ और हिंसा की लपेट में है। जातिवाद की भावना प्रबल होती जा रही है। उसे लगता है सभी पर्टियाँ एक जैसी हो गई हैं। देश के विभाजन ने हिन्दुओं-मुसलमानों के बीच ऐसी दरार पैदा कर दी है, जिसका भरना मुश्किल है।

आजाद भारत में आगे-पीछे कई घटनाएँ घटित होती हैं। फारविसगंज के नये नेता जिला कांग्रेस के सेक्रेटरी छोटन बाबू के इस रिपोर्ट पर कि डॉ० प्रशान्त कम्यूनिस्ट पार्टी का है, उसे नजरबन्द कर लिया जाता है। गाँव के कबीरमठ के पूर्व महंत सेवादास की दासी लक्ष्मी नये महंत रामदास के व्यवहार से ऊब कर मठ से अलग होकर बालदेवजी के साथ रहने लगती है। लक्ष्मी दासी का पूरा जीवन इस बात का प्रमाण है कि असहाय औरत को देवता के संरक्षण में भी सुख चैन नहीं मिल सकता। कामरेड वासुदेव, सुंदर लाल और सोशलिस्ट कालीचरन सभी को डकैती के केस में फँसाकर गिरफ्तार कर लिया जाता है। तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद को यह रहस्य ज्ञात हो जाता है कि उनकी बेटी कमली को डॉ० प्रशान्त का गर्भ है। बावनदास हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सीमा पर नागर नदी के किनारे चोर बाजारी का माल ले जाती हुई गाड़ियों को रोकता है और कुचलकर मार दिया जाता है।

ममता के प्रयत्न से डॉ० प्रशान्त रिहा होते हैं। इस बीच कमली डॉ० प्रशान्त के पुत्र नीलोत्पल को जन्म दे चुकी है। वे कमली को अपनी पत्नी स्वीकार कर लेते हैं और तहसीलदार उन्हें अपना जामाता मान लेते हैं। दौहित्र की प्राप्ति से प्रसन्न तहसीलदार साहब का हृदय परिवर्तित हो जाता है और वे पाँच बीघा प्रति परिवार के हिसाब से गाँव वालों को जमीन लौटा देते हैं। ममता अनुभव करती है कि महात्मा गाँधी की प्रेम और अहिंसा की साधना कभी निष्फल नहीं हो सकती। प्रशांत का पुत्र नीलोत्पल नयी मानवता का प्रतीक बनकर आया है। डॉ० प्रशान्त मेरीगंज के प्राणियों के मुरझाये ओठों पर मुस्कान लौटाने का संकल्प लेते हैं। ममता उनके जैसे कर्मयोगी के चरणों का स्पर्श करके अपने को धन्य मानती है। गाँधी का प्रतिरूप बावनदास चेथरिया पीर के रूप में फिर जी उठता है। घोर कुहासे के बीच प्रकाश की एक किरण चमक उठती है और उपन्यास समाप्त हो जाता है।

‘मैला आँचल’ के साथ हिन्दी उपन्यास-परम्परा में एक नये प्रकार के कथा-शिल्प का विकास होता है। कथा में किसी केन्द्रीय पात्र को महत्त्व न देकर रचनाकार पूरे कथांचल को महत्त्व दिया है। पूरा अंचल रचनात्मक व्यक्तित्व प्राप्त करता है। कोई भी भू-अंचल मात्र मनुष्यों से ही नहीं बनता। उसमें ऊसर -बंजर जमीन, हरे- भरे खेत, जंगल, बाग, नदी-नाले, ताल-पोखर, टीले, खण्डहर, पशु-पक्षी, सब होते हैं। गाँवों का इतिहास होता है। ग्रामीणों के जीवन में अनेक अंधविश्वास, मिथकीय कथाएं, पौराणिक देवी-देवता, ग्राम-देवता, पर्व, त्योहार, नृत्य-गीत, लोक कथाएं, अनुश्रुतियाँ आदि एक पूरा संसार होता है। गाँव का आदमी वर्तमान से ज्यादा अतीत में जीता है। पूरा प्राकृतिक परिवेश उसके लिए उतना ही प्रिय, अपनत्व भरा और सजीव होता है जितना उसके अपने पड़ोसी और मित्र। व्यक्ति को केन्द्र में रखकर लिखे गए उपन्यासों की तुलना में किसी भू-अंचल को केन्द्र में रखकर उपन्यास लिखना कठिन कार्य है। यह वही कर सकता है जिसने अंचल-विशेष की मानसिकता और जीवन-पद्धति के साथ अपने को एकमेक कर लिया हो। ‘मैला आँचल’ लिखकर फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने यह दुष्कर कार्य सम्पन्न किया है। ‘रेणु’ ने पूर्णिया जिले के मेरीगंज गाँव को केन्द्र में रखकर पूरे अंचल के जीवन को उसकी समस्त अच्छाइयों-बुराइयों के साथ संश्लिष्ट रूप में ठीक उसी प्रकार अंकित कर दिया है, जिस प्रकार कोई कुशल चित्रकार चित्रपट पर चित्र-रचना करता है। अंतर केवल यह है कि चित्र गतिहीन और स्थिर होता है, जबकि ‘रेणु’ का कथा-चित्र गत्यात्मक और जीवन्त है।

भाषा में पात्रानुकूलता का गुण भी विद्यमान है। राजनीतिक नेता अपने भाषणों में परिनिष्ठित हिन्दी का प्रयोग करते हैं और बीच-बीच में अंग्रेजी के शब्द भी बोलते हैं।

स्थानीय भाषा का प्रयोग करने से उपन्यास में आंचलिकता पूरी तरह उभर कर सामने आयी है। लोक भाषा का प्रयोग वातावरण का यथातथ्य चित्रण करने में तथा पात्रो के संवादों में किया गया है। प्रकृति-चित्रण और भौगोलिक विवरणों ने आंचलिकता को गहरा कर दिया है। पात्रों के चरित्रांकन में कहीं-कहीं रेणु जी ने आवश्यकता से अधिक आदर्शवाद दिखाया है। डॉ. प्रशान्त ऐसे ही आदर्शवाद के अतिरेक से गढ़े हुए पात्र हैं, अतः पाठकों को वे कहीं-कहीं अस्वाभाविक एवं अवि-श्वसनीय प्रतीत होते हैं। ग्रामीण उत्सवों का वर्णन भी अतिरेक से होने के कारण उपन्यास की कथा बोझिल हो गई है। यह ठीक है कि रेणुजी की अपनी ‘जीवन दृष्टि’ उपन्यास में सर्वत्र परिलक्षित होती है, तथापि गांव की सांस्कृतिक बुनावट को चित्रित – करने पर उनका ध्यान अधिक केन्द्रित रहा है परिणामतः कथा में व्याघात एवं औपन्यासिकता को आघात लगा है। निश्चय ही वस्तु और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से रेणुजी का ‘मैला आंचल’ एक सफल आंचलिक उपन्यास माना जा सकता है।

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