सत्तनाम!…..सत्तनाम! की रट लगाते हुए वह एक हाथ में कमंडल और दूसरे में सुमरनी लिए तेज कदमों से चला जा रहा था। जवाहर दास के भजन का आलाप उसे चुम्बक की भाँति खींच रहा था- कौने ठगवा नगरिया के लूटल हो…..कौने ठगवा! देर हो गयी! माया- मोह के बंधनों को काटना कितना मुश्किल है। वह घर -गृहस्थी से मुक्त होता तो वह भी संत प्रदुमन दास के साथ रमता जोगी बहता पानी………
धरमदास ढोलक पर गिरगिरी दे रहा था।अब धरमदास जैसा ढोलकिया कोई नहीं हो सकता! रतन दास का कान काट लिया धरम ने। बाप हार गया बेटे से! जबसे धरमदास बाप का ढोलक गले में टांग लिया…..माया मोह से उसी दिन नाता तोड़ लिया उसने। जवाहर दास जैसा गवैया और धरमदास जैसा ढोलकिया। प्रदुमन दास सच कहते हैं- दोनों पुरूब जनम की जोड़ी है। वह चलते-चलते ताल से ताल मिलाने लगा- कौने ठगवा……. पगडंडियों के दोनों और धान की अधपकी बालियाँ भी मंद बयार के संग ताल से ताल मिला रही थीं। तभी संत प्रदुमन दास का प्रवचन शुरु हो गया- ‘संतो! यह संसार माया नगरी है…..जीव अज्ञानवश इस माया जाल में…….!’
सतगुरू हो….! देरी हो गयी! उसके पैर में बिजली दौड़ने लगी। मायाजाल से मुक्ति कौन दिला सकता है! यह जीव परम अज्ञानी है…….उसका मन आत्मग्लानि से भर उठा! उसने मन ही मन सतगुरु का स्मरण किया। वही इस जीव को भवसागर से पार लगा सकते हैं। गुरू गोविंद दोऊ खड़े……..! “आइए…आइए चैतू दास!” चानो यादब ने उसकी आगवानी की। “साहेब बंदगी! कहाँ थे इतनी देर से…?”
“साहेब बंदगी! क्या करें चानो दास जी माया-मोह के बंधन से मुक्ति मिले तब न?” चैतू दास ने सफाई दी। वह कैसे बताए कि उसकी बकरी ने अभी-अभी चार बच्चे को जन्म दिया है। तीन खस्सी और एक पाठी। रसियारी वाली की तबीयत ठीक नहीं है। जिसके कारण उसे ही सबकुछ करना पड़ा।
“आइए पहले चरण पखारते हैं।” चानो यादव ने उसके सामने खराऊ बढ़ाते हुए कहा। चैतू दास भाव विभोर!…. चैता मुसहर से चैतू दास! सब सतगुरु की कृपा है! कौन पूछता था उसे इस गाँव में! डोका-काँकोर बीछकर और मछली मारकर गुजारा करता था। जो हाथ उसे साल भर पहले खेत में अंता लगाने पर पीटा था, आज वही हाथ उसके चरण पर लोट रहा है। जिसने बेटी-रोटी एक कर दिया था, वह बंदगी बजा रहा है! सतगुरु कृपा। वह भाव-विभोर होकर जवाहर दास के सुर में सुर मिलाने लगा। पायो जो मैंने राम रतन धन पायो………। तभी नेबालाल झाल लेकर आगे बढ़ गये, पर असली ढोलकिया है धरमदास। वह अपने ताल से डिगा नहीं। नेबा अपने को नामी भजनिया समझता है। नया भजनिया…..टीक में झैल!
चानो यादव ने उसके चरण को धोकर तौलिए से पोछा और फिर बंदगी करते हुए गुरुजी की आसनी के आगे दरी पर बैठने का आग्रह किया। यहाँ सैकड़ों संतों का दर्शन पाकर वह अभिभूत था। बड़े भाग मानुष तन पावा…बड़े भाग्य से संत मिलते हैं। पुरूब जनम का पुण्य!
चानो दास ने इलाके भर के संतों को उतार दिया……धन्य हैं चानो दास! धन्य सतगुरु! यहाँ बाभन से लेकर चमार तक सब एक ही दरी पर……जाति-पाँति पूछे नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई……..
सफेद धोती, सफेद कुरता पहने और सफेद गमछे का पाग धारण किए हुए आसन पर विराजमान संत प्रदुमन दास कबीर के साक्षात अवतार लग रहे थे। उनके आगे दर्जनों अगरबत्तियाँ जल रही थीं। आसन के आसपास भक्तों की जमघट लगी थीं। क्या स्त्री… क्या पुरुष….क्या बूढ़े…क्या जवान……! सतिया दासिन पंखा झेल रही थी। समाज के लोग लाख लांछन लगाए सतिया पर, लेकिन वह गुरु सेवा में कोई कोताही नहीं करती। माधो दास की लाश मिली थी तालाब में! वह कैसे मरा कोई नहीं जानता। अभी तो उसकी शादी के दो साल भी नहीं हुए थे। भरी जवानी में विधवा हो गयी थी सतिया। जीवन का सारा रस- रंग छीन लिया विधाता ने! तभी से उसने गुरु सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया। लोग कभी जवाहर दास, कभी धरमदास तो कभी सतगुरू से तो कभी किसी और के साथ उसका संबंध जोड़ते हैं। बोलने वाले के मुँह पर कौन ताला लगा सकता है?
गुरुजी के दो सेवक आसन के निकट आदेशपालन में तत्पर थे। बंदगी के लिए आने वाले हर व्यक्ति कुछ न कुछ चढ़ावा चढ़ाते जा रहे थे। रूपया पैसा…. धोती….. गमछा…. । मौका पाकर चैतू दास गुरु प्रदुमन दास के चरण पर लोट गये- “धन्य हैं सतगुरु…. धन्य….आपने माया के बंधन से इस जीव को मुक्त कर दिया। अपने शरण में ले लिया। बलिहारी गुरू आपनौ!
उस दिन को कोई कैसे भूल सकता है, जब सतगुरु कृपा कर जवाहर दास के दास माया- मोह के बंधन में पड़े जीवों का उद्धार करने मुसहर टोली में पधारे थे। साल भर में न जाने कितने जीवों को सतगुरु ने चेताया। कितने को अपने शरण में लिया। वह भादों का महीना था। चैतू सदा कंधे पर पटई लादे सबेरे -सबेरे कोसी नदी से मछली मारकर बेचते हुए घर लौट रहा था। पटई से एक ओर पतीली में कुछ बची हुई मछलियाँ खुदबुदा रही थीं, तो दूसरी ओर मकई का पथिया टंगा था, जिसमें दस किलो से अधिक मकई थे। उसके हाथ में सहत और पीठ पर बांस का अंता- टोपी।
सामने खड़े हो गये प्रदुमन दास -“जीव मारि जीव करहि अहारा! चौसठ जनम होहि गीध अवतारा।।”
“साई केय सब जीव है कीरि कुंजर दोय।” जवाहर दास ने गुरुजी के साथ अपना ज्ञान बघारा।
ठिठक गया चैतू सदा उस दिन। पूरे मुसहरी के महिला-पुरूष, बाल- बच्चे सब गुरुजी से भेख (कंठी) ले रहे थे। सब चेत रहे थे। सब के सब चौरासी लाख योनि से मुक्त हो रहे थे। माया के बंधनों को काट रहे थे! पर चैतू सदा के सामने रोजी-रोटी का सवाल था। वह भी भेख ले ले तो फिर खाए क्या? अभी सावन- भादों में वह रोज-रोज दस-बारह किलो छोटी-बड़ी मछलियाँ मार लेता है और उसे मकई का बराबर भी बेचता है तो रोज दस किलो से अधिक मकई घर आता है। पूरे साल अघा कर खाता है दोनों जने। घर में और है ही कौन! एक वह और एक रसियारी वाली। सखा-संतान तो उसके भाग में था नहीं। कमला माई को खस्सी कबूला था उसने। अबतक मन्नत पूरी न हुई। हर साल भगत के देह पर कमला माई सवार होती है और वचन देती है- ‘देर है बच्चा, पर अंधेर नहीं…. देखना सूखी डाली में फल-फूल लगेगा।’ हर बार आस्था का फूल अपने आँचल से बांधती है रसियारी वाली। और सूखी डाल सूखती चली गयी। अब उनका विश्वास उठ गया कमला माई से।
उसने फैसला किया कि भेख नहीं लेंगे। माछ मारकर गुजर करेंगे। नरक में जाएंगे… तो जाएंगे। अब धरम-करम किसलिए, किसके लिए……? प्रदुमन दास और जवाहर दास का उपदेश निष्काम हो गया। बेरंग लौट गये प्रदुमन दास। लेकिन उसकी वाणी छेदता रहा चैतू को -जीव मार जीव करहि अहारा……. ! वह पूरी रात बिस्तर पर करवट लेता रहा। रसियारी वाली न जाने कब से खर्राटे ले रही थी। वह उठकर बैठ गया और हाथ बढ़ाकर पतीली का ढक्कन उघारा। असंख्य जीव प्राण रक्षा के लिए व्याकुल थे। साई के सब जीव हैं…….!
वह झोपड़ी से बाहर निकला। आसमान की ओर झाँका। भुरुकवा तारा टिमटिमा रहा था। यही मुहूर्त था, जब वह रोज मछली मारने निकलता था। वह आज भी इसी वक्त घर से निकला ,लेकिन आज उसके हाथ में केवल पतीली थी, जिसमें अनगिनत जीव मुक्ति के लिए व्याकुल थे। कुछ जीव मरकर पानी की सतह पर तैर रहे थे। वह उसे हाथ में लेकर रो पड़ा। एक बाल्मीकि था, जो कौंच वध से आहत होकर व्याध को श्राप दिया था। पर वह किसे श्राप दे, वह तो स्वयं व्याध…..!
कोसी नदी के किनारे पहुँच कर पतीली को नदी में उलट दिया उसने। जीव को मुक्ति मिली और साथ में चैतू सदा को भी माया के बंधनों से। संत प्रदुमन दास ने अपने चरण में लेकर चैता मुसहर का उद्धार कर दिया। अब वह संत चैतू दास हो गया था। रात के ग्यारह बज रहे थे।भजन के बाद भोजन के लिए सभी कतारबद्ध होकर बैठ गये। पत्तलों में सुवासित कचौड़ियाँ, सब्जी, सलाद, खीर, चटनी, रायता….पापड़ और न जाने कितने व्यंजन। लेकिन चैतू दास का मन रो रहा था। रसियारी वाली……तीन दिनों से घर एकसंझा भोजन बन रहा था और आज तो घर में एक दाने न थे। न ही जेब में फूटी कौड़ी……गुरु जी की बंदगी भी खाली हाथ…….। वह कई दिनों से काम की तलाश में था। इस महीने गाँव में कौन-सा काम मिलता। खेत में सब जगह धन और पटसन की फसलें लगी थीं। अभी न रोपनी का समय था न कटनी का। हरवाही से लेकर चरवाही तक सब ठप! बरसात के सीजन में घर-घरहट का काम भी नहीं मिलता! अभी एक ही काम जोरों पर था- मछली का कारोबार! मगर चैतू दास के लिए…
कल जगत सदा ने सपरिवार गुरु के चरणों में अपना भेख समर्पित किया और आज कल्लू सदा ने। इसी तरह महीनों से भेख की वापसी का शिलसिला जारी था। भक्तों को जब खाने के लाले पड़े तो धरम-करम सब भूल गये। भूखे भजन न होई…….! फसल की रोपनी, कटनी और माछ मारकर बेचने के सिवा मुसहरों के लिए और कौन-सा काम था इस गाँव में। अब तो फसल कटनी पर भी ग्रहण लग गया। गांव में जबसे कटाई मशीन क्या आ गयी। मजदूर को कौन पूछता है? सैकड़ों परिवार भुखमरी का शिकार हो गया। अब जुताई….बुआई से लेकर कटाई तक में मशीन से। कुछ काम मिल जाए तो नसीब समझो! पत्तलों पर सबकुछ पड़ गया था। चानों दास हाथ जोड़े खड़ा था। यह भंडारा उसने कोई सौख से नहीं किया था। न ही उनकी कोई मन्नतें पूरी हुई थीं। उसने अपने अपने पोखर की मछली को एक कारोबारी के हाथों ग्यारह सौ में बेचा था। जीव हिंसा…..! किसी ने गुरुद्वारे में जाकर उसकी चुगली कर दी थी। प्रदुमन दास ने उस पर पाँच सौ मुरतें का भंडारा ढोक दिया था। आज उसी पाप से मुक्ति के लिए वह प्राश्चित कर रहा था।
गुरु जी ध्यानमग्न थे। वे मन ही मन परम ब्रह्म का स्मरण कर रहे थे। सतिया दासिन अब भी पंखा झेल रही थी। सामने दर्जनों अगरबत्तियाँ जल रही थीं। सबकी आँखें गुरुदेव पर टिकी थीं। तभी कतार के दूसरे छोर से हल्ला हुआ…… चैतू सदा बकरी पालता है…..घोर पाप!
गुरुदेव का ध्यान टूटा। उसके त्रिनेत्र खुले! क्या यह सत्य है चैतू दास?
चैतू दास का वाक् हरण हो गया! पता नहीं किसने चुगली कर दी। उसने करीब तीन महीने पहले ही कर्ज लेकर एक गाभिन बकरी ली थी। सतगुरु के सामने वह झूठ कैसे बोल सकता है। उसने सिर हिलाकर महापाप स्वीकार कर लिया।
“बकरी कल सबेरे हटाया जाय और इस पाप से मुक्ति के लिए चैतू दास को ‘सौ मूरते’ का भंडारा करना होगा।” गुरुदेव का फरमान जारी हो गया।
सौ मूरते….! चैतू को चक्कर आ गया। घर में एक वक्त खाने का अनाज नहीं है। और सौ मूरते….
वह घर लौट आया….देह अब भी काँप रहा था! सौ मूरते भंडारा……उसकी नींद उड़ गयी। बकरी कैसी आफत लेकर आयी। मन कर रहा था कि अभी बकरी को हाँक दें, पर यह समाधान नहीं था…..महापाप……सौ मूरते भंडारा…..गुरु का आदेश।
छप्पर को भेदकर चाँद की रोशनी झोपड़े में प्रवेश कर रही थी, जिसमें उसे सबकुछ एकदम साफ दिख रहा था। बुझा हुआ बासी चूल्हा….उदास बर्तन…… कमंडल और सुमरनी….कोने में बंधी बकरी….. पथिये के नीचे कुनमुनाते उसके बच्चे…..मिट्टी की कोठी। कोठी का खुला मुँह! यही भादो का महीना है,जब वह कोठी मकई से लबालब रहता था….जिधर देखो लाल और सफेद मकई का अंबार। अनाज की खुशबू से घर महमह करता था। संभाल नहीं पाती थी रसियारी वाली। आज वही चार दाने को तरसती है! धिक्कार उठा चैतू सदा को उसका पौरूष। घुन लग गया है उसके देह में……दो जने के लिए दो वक्त की रोटी नहीं जुटा सकता है वह……..
सुबह सूरज की तेज रोशनी के साथ रसियारी वाली जगी तो उसकी आँखें फट गयीं। बिस्तर पर चैतू नहीं था…..घर की ओलती में टंगा हुआ अंता-टोपी नहीं था….पटई नहीं था….सहत नहीं था….मछहा पतीली भी गायब……टूटी हुई कंठी….और सुमरनी के दाने-दाने बिखरे पड़े थे! कमंडल कोने में फेंका पड़ा था!
वह चकित होकर बाहर आयी तो हल्ला हो रहा था कि रात में सतिया दासिन के साथ प्रदुमन दास रंगे हाथ पकड़े गए। जवाहर दास और धरमदास ने अपनी आँखों से देखा है। दोनों एक सूर में ढोल पीट रहे थे- हमें तो बहुत पहले से ही कुतिया पर शंका था। पता नहीं किस -किस मरद से मुँह चटवाती है……साली…. रंडी।” कुछ लोग समर्थन में सिर हिलाते हुए यह भी कह रहे थे कि जबानी से ही प्रदुमन दास सतिया से फँसा है। माधो दास को उसी ने मरवाया।
रसियारी वाली कुछ सोच नहीं पा रही थी। क्या से क्या हो गया? फिर उनकी आँखें और भी फट गयीं, जब उसे दूर से आता हुआ चैतू दिखा। कंधे पर लचकता हुआ पटई, जिसके दोनों ओर लाल और सफेद मकई मोती की भाँति चमक रहे थे। पीठ पर अंता और टोपी लदा था। हाथ में सहत, जिसमें करीब डेढ़-दो किलो की बुआरी गथा हुआ छटपटा रहा था ,पर वीरता के भाव से चैतू चेहरे दमक रहे थे।
चैतू सदा का नया अवतार में देखकर रसियारी वाली ने अपनी कंठी झटक दिया। कंठी के सारे दाने जमीन पर बिखर गये ! अब वे दोनों सारे बंधनों से मुक्त थे।