आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल की समय सीमा 1375 वि. से 1700 वि. (1318-1643 ई.) तक मानी है। भक्ति का सर्वप्रथम प्रयोग ‘श्वेताश्वतर उपनिषद्’ में मिलता है। दक्षिण भारत में आलवार भक्तों की परम्परा सातवीं शती से चली आ रही थी। ‘आलवार’ भक्त वैष्णवों का तमिल नाम है। शैवों को वहाँ ‘नायनमार’ कहा जाता है। आलवार वैसे भक्त थे, जो अपनी आत्मिक प्रेरणा सें भक्ति में लीन हुए। बंगाल में इस तरह के भक्त ‘बाऊल’ (अर्थात ईश्वर की भक्ति में बावला) कहलाए। आलवारों ने आध्यात्मिक विचार वेद, उपनिषद् एवं गीता से ग्रहण किए। लेकिन ये लोग अपने विचारों को इन ग्रंथों की शास्त्रीयता से मुक्त रखते हुए लोक धारा के रूप में विकसित किया। आलवारों की संख्या बारह मानी जाती है, जिसमें आण्डाल नामक एक महिला भक्त भी थी। आण्डाल को दक्षिण भारत की मीरा कहा जाता है। आलवारों के पदों का संकलन ‘दिव्य प्रबन्धम्’ नाम से किया गया है, जिसमें कुल चार हज़ार पद संकलित हैं।
भक्ति आन्दोलन एक तरह का देशव्यापी सांस्कृतिक आंदोलन था, जो तद्युगीन सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों से अवश्य प्रभावित हुआ। भक्ति आन्दोलन की उत्पत्ति के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों में मतभेद है। जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार, भारत में भक्ति आन्दोलन ईसाईयत की देन है। जब भारत में जोर-शोर से ईसाईयत का प्रचार-प्रसार आरंभ हुआ, तब हिन्दू धर्म को अपना अस्तित्व खतरे में दिखाई देने लगा। इसकी प्रतिक्रिया में भक्ति आन्दोलन की शुरुआत हो गई। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भक्ति आन्दोलन के सूत्रपात के लिए तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों को उत्तरदायी मानते हैं। उनके अनुसार, “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। अपने पौरूप से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था।”
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे महज भारतीय परंपरा का स्वत:स्फूर्त विकास मानते हैं। वे आचार्य शुक्ल के मतों को खारिज करते हुए कहते हैं कि “अगर भारत में मुसलमान नहीं भी आया होता, तो भक्ति आन्दोलन का बारह आना स्वरूप वैसा ही होता, जैसा है।” यह सत्य ही है कि अगर मुसलमानों के आक्रमण से ही भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात होना था, तो इसे उत्तर भारत में होना चाहिए, चूँकि मुसलमानों का आक्रमण सर्वप्रथम उत्तर भारत में हुआ था। जबकि ‘भक्ति’ का सूत्रपात मूलतः दक्षिण भारत में हुआ। इस सम्बन्ध में कहा गया है- ‘भक्ति द्रविड़ी ऊपजी लाए रामानन्द।’ आचार्य शुक्ल के शब्दों में भक्ति का जो स्रोत दक्षिण भारत से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर आ रहा था, उसे तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के कारण उत्तर भारत की जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने का पूरा स्थान मिला।
भक्ति आन्दोलन की पृष्ठभूमि में उन आचार्यों का भी विशिष्ट योगदान है, जिन्होंने विभिन्न सिद्धान्तों (वादों) का प्रतिपादन किया। इनमें प्रमुख हैं- मध्वाचार्य (13वीं शती), जयदेव (13वीं शती), रामानन्द (15वीं शती), बल्लभाचार्य (16वीं शती) और नामदेव (13-14वीं शती) आदि।
मध्याचार्य ने गुजरात में द्वैतवादी वैष्णव सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया तो जयदेव ने पूर्वी भारत में कृष्ण प्रेम के गीत गाए, जिनका अनुसरण बाद में विद्यापति ने अपनी पदावली में किया। रामानन्द प्रसिद्ध वैष्णव रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में आते हैं, जिन्होंने रामानन्दी सम्प्रदाय चलाया और विष्णु के अवतार राम की उपासना पर बल दिया। कबीर इन्हीं रामानन्द के शिष्य थे, यद्यपि वे निर्गुणोपासक सन्त कवि हैं।
बल्लभाचार्य ने शुद्धद्वैतवाद एवं पुष्टिमार्ग पर बल देते हुए आचार्य विष्णु स्वामी की परम्परा का अनुसरण किया तथा कृष्ण भक्ति के प्रचार-प्रसार में विशेष योगदान दिया। इनके पुत्र गोस्वामी विठ्ठलनाथ ने अष्टछाप की स्थापना की, जिसमें उन्होंने आठ कृष्णभक्त हिन्दी कवियों को दीक्षित किया।
नामदेव महाराष्ट्र के प्रसिद्ध भक्त थे, जिन्होंने भक्तिमार्ग पर विशेष बल दिया। कबीर ने यद्यपि नाथ पन्थ की अनेक बातें लीं, किन्तु उनके भक्तिमार्ग में प्रेमतत्त्व का जो समावेश है, वह उन्होंने सूफियों से ग्रहण किया। कबीर ने निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना पर बल दिया और प्रेम, अहिंसा, सदाचार, नैतिकता और मानवता को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में आत्म-गौरव का भाव जगाया और उन्हें भक्ति के उच्च सोपान की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित किया।
वैष्णव धर्म मूलतः भक्ति प्रधान है। शैव धर्म में पाशुपत, लिंगायत सम्प्रदाय हैं, जिनमें शिव पूजा का विधान है। शिव को योग साधना का प्रवर्तक एवं आदि गुरू कहा जाता है। वस्तुतः वैष्णव, शाक्त एवं शैव धर्म का भक्ति आन्दोलन में पूरा योगदान है। वैष्णव धर्म ने भागवत सम्प्रदाय के रूप में नेतृत्व किया और इसके माध्यम से भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात हुआ।
भक्ति आन्दोलन के प्रचार-प्रसार में उसकी पृष्ठभूमि का विशेष योगदान है। इस सम्बन्ध में यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि भक्ति का मूल स्रोत दक्षिण भारत है तथा ‘भक्तिकाल’ तक आते-आते उत्तर भारत की राजनीतिक परिस्थितियाँ मुस्लिम आक्रमणों के कारण इस प्रकार की हो गई थीं कि भक्ति के स्रोत को उत्तर भारत में फैलने का पूरा-पूरा अवसर मिला। प्रसिद्ध वैष्णव आचार्यों ने भी इसके प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
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