पराधीन भारत में स्वाधीन भारत के स्वप्नद्रष्टा कथाकार प्रेमचंद मूल रूप से सत्याग्रह- युग के लेखक हैं। उनका रचनात्मक मन भारत के राष्ट्रीय मुक्ति-आंदोलन की चेतना से निर्मित है। उनके संपूर्ण रचनात्मक अवदानों के आधार पर उन्हें राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का अपूर्व- अद्वितीय कथाकार कहा जा सकता है। अपने समय के समाज और राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप करने वाले प्रेमचंद एक पूरी सदी के बाद भी ‘आउटडेटेड’ नहीं हुए हैं। उनका साहित्य अपने समय का सामाजिक- राजनीतिक दस्तावेज है। इसीलिए प्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा ने उनके बारे में कहा है कि “जब कभी उत्तर भारत का इतिहास खो जाए तो प्रेमचंद का साहित्य पढ़कर नया इतिहास लिखा जा सकता है। उनकी रचनाओं का सामाजिक, राजनीतिक एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ही उन्हें कालजयी कथाकार बनाता है। राष्ट्रीय चेतना, देश- प्रेम, देश-भक्ति तथा स्वराज की भावना में वे अपने युग- यथार्थ को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ते हैं। प्रेमचंद का उपन्यास ‘रंगभूमि’ इसी विराट-स्वप्न का साक्षात्कार है। साधारण मानव सूरदास को उन्होंने अपराजेय योद्धा बना दिया। उनमें संकल्प के शक्ति-वाण छूट रहे हैं। सच्चे अर्थों में ‘रंगभूमि’ के सूरदास जैसा नायक हिन्दी संसार में दुर्लभ है। बीसवीं शताब्दी का तीसरा दशक जिस सांस्कृतिक नवजागरण का उद्घोष करता है, उसमें राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और सुभाष सुभाषचंद्र, जवाहरलाल नेहरू और अंबेडकर की सृजनशीलता सक्रिय थी। गुलामी के खिलाफ राष्ट्रवासियों में मुक्तिकामी चेतना का प्रसार प्रेमचंद- साहित्य का प्रधान स्वर है। उनका लेखन मूल रूप से 1905 ई० के बंग-भंग आंदोलन से लेकर 1936 ई. तक भारतीय जनता की हर धड़कन को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। हिन्दी में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद, बांग्ला भाषा में शरतचन्द्र, बंकिमचंद चटर्जी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, उर्दू भाषा में मौलाना हाली, मराठी में केशवसुत, तमिल में सेनापति, उड़िया में फकीर मोहन सुब्रह्मण्यम भारती, गुजराती में उमाशंकर जोशी आदि सभी को मिलाकर पढ़ने पर भी कथा-सम्राट प्रेमचंद अकेले दिखाई पड़ते हैं। प्रेमचंद साहित्य में स्वाधीनता आंदोलन की पूरी एक लय सुनने को मिलती है। सन् 1907 ई. से लगातार तीस साल (1936 ई.) तक के कालखंड का अखंड भारतीय दस्तावेज है- प्रेमचंद साहित्य।
अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक- संघ के प्रथम अधिवेशन में भाषण देने वाले प्रेमचंद के अध्यक्ष पद में पूरा भारत अपराजेय संकल्प के साथ बोल रहा है। स्वाधीनता-आंदोलन के दौरान महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाषचंद्र बोस अधिक सक्रिय रहे। तद्युगीन साहित्यकारों ने इन नेताओं के विचारों को ही स्वर प्रदान किया। एक तरह से अधिकांश साहित्यकार इन नेताओं के पिछलग्गू बन गये थे, तथापि प्रेमचंद जैसे सच्चे साहित्यकार ने पिछलग्गू बनना स्वीकार न किया। उन्होंने कहा कि “साहित्य राजनीति का पिछलग्गू नहीं है। वह राजनीति के आगे- आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।” प्रेमचंद के साहित्य में राजनीतिक संघर्षों को इसी नजरिये से देखने पर हम पाते हैं कि प्रेमचंद के पात्रों में अद्भुत जीवटता है। इनके पात्रों में जीवन के तमाम संकटों से टकराने का अद्वितीय साहस है। उनमें राष्ट्रीय मुक्ति- संघर्ष के अनेक आयाम हैं, जो हमें जिंदगी का नया पाठ पढ़ाते हैं। भारतीय – स्वाधीनता संग्राम की जीवंत अभिव्यक्ति का माध्यम है प्रेमचंद- साहित्य। प्रेमचंद की प्रथम कहानी ‘दुनिया सबसे अनमोल रतन’ में भारतीय स्वाधीनता की मुखर अभिव्यक्ति मिलती है। यह अलग बात है कि उनकी यह कहानी ऊपर से कोरी भावुकता प्रतीत होती है, तथापि उनमें स्वाधीनता की चेतना कूट-कूट कर भरी है। यहाँ प्रेमी में प्रेमिका को पाने की उत्कट कामना है। प्रेमिका कहती है कि उसका प्रेम वही पाएगा, जो उसे दुनिया का सबसे अनमोल रत्न लाकर देगा। प्रेमी में उसके प्यार को पाने की चाहत है। वह प्रेमिका को क्रमशः तीन चीजें लाकर देता है- ‘फाँसी के तख्ते पर चढ़े हुए आदमी के आँसू’, ‘पति के प्रेम में जलकर भस्म हो जानेवाली पत्नी की पवित्र राख’ और ‘राजपूती वीर सैनिक के रक्त का अंतिम एक बूँद’ । यही तीन अनमोल रतन है। इसमें तीसरे रत्न के माध्यम से प्रेमचंद ने देश-प्रेम, देशभक्ति और स्वाधीन चेतना को अभिव्यक्त किया है। आलोचकों का मानना है कि फ्रांस की राज्य-कांति (1789 ई.) तथा रूस की राज्य क्रांति (1917 ई.) का प्रभाव वैश्विक साहित्य पर पड़ा। भारतीय नेताओं और मुक्ति- संग्राम पर भी इसका व्यापक प्रभाव पड़ा। इसी प्रभाव के परिणामस्वरूप हमारे देश में स्वाधीनता-आंदोलन में किसान- वर्ग सक्रिय हुए। स्वयं गांधीजी किसान चेतना, किसान-आंदोलन के हिमायती बनकर प्रकट हुए। प्रेमचंद ‘सेवासदन’ में नवजागरण की इसी चेतना के कारण वेश्या- जीवन और समाज-सुधार का मंत्रजाप करते हुए उपस्थित हुए। विदित हो, भारत के स्वाधीनता संग्राम में दासता से मुक्ति की लड़ाई केवल राजनीतिक लड़ाई नहीं थी। उसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आयाम में बेहद महत्त्वपूर्ण थे। अतएव, केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं, मनुष्य को आर्थिक, नैतिक, मानसिक और वैचारिक मुक्ति भी चाहिए। वैचारिक स्वाधीनता के अभाव में राजनीतिक स्वाधीनता और चिंतन का कोई महत्व नहीं है। यह सब सोच- समझकर प्रेमचंद ने स्वाधीनता और मुक्ति की बृहत्तर अर्थ- संदर्भों में व्याख्या की। किसान-शोषण केवल ही नहीं, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी रखता है। प्रेमचंद का उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ भारतीय समाज में किसान शोषण की ऐसी महागाथा है, जो आज भी हमारी आँखें खोलने में सक्षम है। यदि इस उपन्यास पर गंभीरतापूर्वक विचार करें, तो देखने को मिलता है कि 1924- 25 के आसपास कथानायक सूरदास अपनी जमीन को बचाने के लिए जानसेवक से कैसे- कैसे संघर्ष करता है। जाति से चमार, आँखों से अंधा, शरीर से दुर्बल अकेला सूरदास, अपराजेय योद्धा की भाँति जीवन के अंत तक लड़ता रहता है। जान सेवक साथ जमींदार है, अर्थात् समूचा आभिजात्यवादी धनतंत्र है। पर सूरदास अकेला है। सूरदास गाँव के किसानों को संगठित करने की निरंतर कोशिश करता है, परंतु यह संभव नहीं हो पाता है। प्रेमचंद का सूरदास स्वाधीनता- आंदोलन के दौर में लड़ाई लड़ रहा है। यहाँ प्रेमचंद ऐसे जीवट, निर्भीक और लड़ाकू नायक के साथ चिंतन की न बुझनेवाली मशाल लिए चल रहे हैं। स्वराज तथा स्वाधीनता आंदोलन की अभिव्यक्ति प्रेमचंद ने “गबन’ नामक उपन्यास में भी किया है। यह उपन्यास वस्तुतः मध्यम वर्ग की विडम्बना का संकेत हैं। यहाँ केवल नारी के आभूषण प्रेम का तमाशा नहीं है। इसमें मध्यमवर्ग का आत्म- प्रदर्शन और खोखलापन भी व्यंजित हुआ है। जालपा को आखिरकार रमानाथ क्या दे सकता है…..? वह भगोड़ा बनकर देशद्रोही का तमगा पाता है। घर से भागकर शहर पहुँचता है। संयोगवश देवीदीन खटीक से उसकी भेंट हो जाती है। सन् 1930 ई. का देवीदीन खटीक स्वराजियों पर व्यंग्य करता कि इनका राज आने पर ये लोग नये गुल खिलाएंगे। 1930 के बाद प्रेमचंद ने देश-प्रेम, स्वराज, स्वाधीनता, अहिंसा, सत्य तथा किसान- जमींदार संघर्ष का नया भाष्य देना शुरु किया। ‘कर्मभूमि’ को इसी मनोभूमिका का विस्फोट कहा जा सकता है। प्रेमचंद के साहित्य का मूल उद्देश्य है- पूँजीवादी, सामंतवादी तथा आभिजात्यवादी मानसिकता का विरोध और स्वराज की स्थापना।
प्रेमचंदयुगीन सभी लेखकों की समस्या पराधीनता से मुक्ति की समस्या रही है। चाहे मैथिलीशरण गुप्त हों, रामनरेश त्रिपाठी हों, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हों, माखनलाल चतुर्वेदी हों या सुभद्राकुमारी चौहान। राष्ट्रीय सांस्कृतिक नवजागरण के लिए सभी कवि- लेखक प्रतिबद्ध थे। निराला और माखनलाल चतुर्वेदी, दोनों के सामने राष्ट्रीय मुक्ति का प्रश्न प्रेमचंद के तरह ही ज्वलंत था, परंतु प्रेमचंद की बात इनसे कुछ अलग थी। औरों से बढ़कर प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि’ जैसे महाकाव्यात्मक उपन्यास का सृजन किया, जिसमें उन्होंने नायक चमार जाति के अंधा- भिखारी सूरदास को बनाया। प्रेमचंद ने धीरोदात्त नायक के तमाम प्रतिमानों ध्वस्त कर आम आदमी को नायकत्व प्रदान किया। निश्चय ही नायकत्व के परिवर्तन की चेतना उनमें फ्रांस और रूस की क्रांति से आया। आलोचक रंगभूमि उपन्यास को ‘गोदान’ से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। रंगभूमि का नायक तथाकथित अछूत (चमार) है, परंतु इस उपन्यास की मूल समस्या अछूत समस्या नहीं है। यहाँ सूरदास एक किसान के रूप में उपस्थित होता है। उसके पास जमीन है। वह कदापि नहीं चाहता कि यहाँ की जमीन पर कोई विदेशी पूँजीपति कारखाना स्थापित कर जनता को तबाह कर दे। सन् 1925 ई. में रंगभूमि का प्रकाशन होता है। उस समय देश में असहयोग आंदोलन और सत्याग्रह युग अपने उत्कर्ष पर था। रंगभूमि में मंदिर के भीतर पंडा – पुरोहित भी हैं और दलित- पीड़ित भी । अतएव, दलित- सवर्ण संघर्ष दिखाना प्रेमचंद का ध्येय नहीं था। प्रेमचंद ने बच्चों के लिए ‘दो बैलों की कथा’ या ‘कुत्ते की कहानी’ आदि लिखा। वहाँ भी उन्होंने बच्चों के मन में स्वाधीनता का बीज बोया है। कुल मिलाकर कहें तो कथा- सम्राट प्रेमचंद एक युगद्रष्टा साहित्यकार थे। सदियों से पराधीन भारत की निरीह जनता में स्वाधीनता की चेतना भरने वाले प्रेमचंद कभी भी आउटडेटेड (अप्रासंगिक) नहीं हो सकते। उनके साहित्य में भारतीय स्वाधीनता को अक्षुण्ण बनाए रखने के बीज निहित हैं।
सम्प्रति : सहायक प्राध्यापक सह अध्यक्ष, हिन्दी – विभाग, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी, बिहार संपर्क : 6201464897 ईमेल : umesh.kumar.sharma59@gmail.com