प्रेमचंद की दार्शनिकता

आधुनिक भारतीय साहित्याकाश में प्रेमचंद एक देदीप्यमान नक्षत्र हैं, जिसके आलोक में भारत के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास का निर्माण किया जा सकता है। प्रेमचंद भारत के पर्याय हैं। वे हाशिए का जीवन जी रहे करोड़ों भारतीय की आवाज हैं। रामविलास शर्मा ने उनके बारे में ठीक ही कहा है-‘अगर भारत का इतिहास कहीं खो जाए या नष्ट हो जाए, तो प्रेमचंद का साहित्य पढ़कर देश का नया इतिहास लिखा जा सकता है।’ भारतीय समाज कितना भी बदल जाए, प्रेमचंद की प्रासंगिकता बरकरार रहेगी। जिस समय भारतीय समाज पूरी तरह बदल जाएगा, उस समय प्रेमचंद का साहित्य भारतीय समाज का इतिहास हो जाएगा। लोग प्रेमचंद की रचनाओं को पढ़कर तदयुगीन भारतीय समाज को समझ सकेंगे।           प्रेमचंद वंचित वर्ग के पुरोधा रचनाकार हैं। उन्होंने रचनात्मक स्तर पर साहित्य के परंपरित सौन्दर्यशास्त्र की तमाम कसौटियों को ध्वस्त कर डाला है। विश्व में हो रहें परिवर्तनों के प्रति उनकी जागरूता सर्वविदित है। सन् 1789 ई. में फ्रांस में राज्य क्रांति हुई थी। जिसके परिणामस्वरूप वहाँ आभिजात्य वर्ग सत्ता से च्युत कर दिये गये। आम आदमी, जिन्हें बुर्जुआ वर्ग कहा गया, सत्ता के केन्द्र में स्थापित हो गये। इसके बाद साहित्य में भी नायकत्व के परिवर्तन का दौर आया। सर्वप्रथम विलियम वर्ड्सवर्थ ने ‘लिरिकल बैलेड्स’ में इसे रेखांकित किया। देखते -देखते वैश्विक स्तर पर शेली, कीट्स, कालरिज, लियो टॉलस्टॉय ,मैक्सिम गोर्की, चेखव आदि ने आम आदमी को नायकत्व प्रदान किया। किसान, मजदूर और कामगार नायक होने लगे। भारतीय साहित्य में यही काम प्रेमचंद और शरतचंद्र जैसे कतिपय लेखकों -कवियों ने किया। स्पष्ट है कि फ्रांस की राज्य क्रांति का प्रभाव कहीं न कहीं इन रचनाकारों पर पड़ा था। बाद में रूस की राज्य क्रांति ने भी साहित्यकारों को प्रभावित किया। तभी तो प्रेमचंद जैसे लेखक ने होरी और घीसू-माधव जैसे पात्रों का निर्माण कर पाए।            धनपतराय को प्रेमचंद बनाने में उनकी समकालीन परिस्थियों तथा विरासत में मिली विप्पन्नता की महत्वपूर्ण भूमिका है। प्रेमचंद का जीवनानुभव अत्यंत समृद्ध है। वे सदैव समतामूलक सामाजिक व्यवस्था के लिए संघर्ष करते रहें। प्रेमचंद के विचारों पर अनेक घटनाओं- परिघटनाओं, विचारों, दर्शनों का व्यापक प्रभाव पड़ा है। वे जितने गांधीवाद से प्रभावित थे, उतने ही अंबेडकरवाद और मार्क्सवाद से।        

प्रेमचंद का सृजनकाल सन् 1916 से 1936 ई. है। यह भारतीय इतिहास का वही काल है, जब उत्तर- नवजागरण कालीन समाज सुधार तथा स्वाधीनता- आंदोलन एक साथ चल रहे थे। इसी क्रम में ब्रह्म समाज, आर्य समाज, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग, कांग्रेस, गाँधी, अंबेडकर आदि के आंदोलन उत्कर्ष पर थे। मार्क्सवाद के साथ ही किसान- मजदूर आंदोलनों की शुरुआत भी इसी समय हुआ। इसी दौरान दलित- समस्या के समाधान को लेकर अम्बेडकर तथा गाँधी लगभग साथ चल रहे थे। अम्बेडकर की ‘दलित- क्रांति’ में जहाँ ‘दलित -मुक्ति’ अपनी समग्रता में शामिल थे, वहीं गाँधीजी और कांग्रेस का दलित-आंदोलन केवल अस्पृश्यता- निवारण तक ही सीमित था। उत्तर भारत में स्वामी अछूतानंद सदृश दलित-सुधारक सक्रिय थे  तो दक्षिण में डॉ. अंबेडकर और पेरियार।           

प्रेमचंद ने अपने संपूर्ण साहित्य को भारतीय जनजीवन का गीत बनाकर उसे सामाजिक सरोकारों से सीधा जोड़ दिया है। उन्होंने भारत की आत्मा किसान मजदूरों की त्रासद पीड़ा को अपने साहित्य का आधार बनाया। कथा- साहित्य में पहली बार यथार्थ को स्वीकार्य बनाया। प्रेमचंद के दर्जनों उपन्यास और सैकड़ों कहानियों में शायद ही कहीं आभिजात्य वर्ग का कोई नायक मिल जाए। सवर्णों में बहुत हुआ तो कहीं -कहीं ‘कायस्थ’ को नायक बनाया, जिन्हें ब्राह्मणों ने लगभग ‘शूद्र’ ही माना है। ब्राह्मण तो उनके कथा-साहित्य के खास खलनायक हैं। प्रेमचंद को अगर सबसे अधिक किसी से चिढ़ थी, तो वे थे ब्राह्मण,  ब्राह्मणी- व्यवस्था तथा हिन्दुत्व का पाखंड।           

प्रेमचंद आरंभ में आर्य समाज से प्रभावित दिख दिखाई  पड़ते हैं, फिर गाँधीवाद तथा अंबेडकरवाद से और अंत में मार्क्सवाद से। किसान आंदोलन का भी उन पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा है, लेकिन हर दौर में उनकी सृजनात्मक चेतना के केन्द्र में दलित,शोषित, पीड़ित जनता, किसान-मजदूर तथा स्त्रियाँ हैं।            

दलित समस्या देश की ऐसी अहम समस्या थी, जिसे डाॅ. अंबेडकर के साथ-साथ अंग्रेज सरकार भी सुलझाने की चेष्टा कर रहे थे। यह आधुनिक भारत की ऐसी सामाजिक सच्चाई थी, जिससे कोई भी विचारक, बुद्धिजीवी और संवेदनशील मनुष्य मुँह नहीं मोड़ सकता था। इसलिए अक्सर सभी समाज-सुधारक, राजनीतिक दल और नेताओं ने इसे अपने -अपने तरीके से सुलझाने की कोशिश अवश्य की है। कोई ‘शुद्धीकरण’ द्वारा दलितों को मुख्यधारा में मिलाना चाहता था ,तो कोई सार्वजनिक स्थलों यथा- मंदिर, मठ आदि में उनको प्रवेश का अधिकार देकर। कोई जाति तोड़कर, तो कोई प्रेम और सहानुभूतिपूर्वक उन्हें अपनाकर। यह सब केवल हिन्दू- समाज के भीतर ही चल रहा था। उधर दूसरे धर्मावलंबी भी दलितों को अपने समाज में मिलाने के लिए व्यग्र दिख रहे थे।         

इस भागदौड़ में अंबेडकर के आंदोलन को हिन्दू -समाज और अधिकांश राजनेता अलगाववादी दृष्टि से देख रहे थे। गाँधी और कांग्रेस की दृष्टि भी लगभग यही थी। लाला लाजपत राय जैसे उदारवादी हिन्दू नेता को भी कहना पड़ा था- ‘नौकरशाही की सहानुभूति के पात्र के रूप में अछूत एक नयी खोज है……. भारतीयों की स्वराज- कामना के खिलाफ एक हथियार के रूप में अछूत कितना बहुमूल्य है?’ (प्रेमचंद : दलित-विमर्श के संदर्भ में, ‘दलित साहित्य वार्षिकी-2005, पृ. -30)       

इस प्रकार अंबेडकर और उनके दलित-आंदोलन के प्रति संदेह-दृष्टि प्राय: तत्कालीन राजनीति और समाज की मुख्यधारा का चरित्र और धर्म-सा बन गया था। ऊपर से देखने पर एक लेखक और विचारक के रूप में प्रेमचंद भी इसी मुख्यधारा के  साथ दिखाई पड़ते हैं। किन्तु गहराई से देखने पर उनकी मजबूरियाँ भी साफ नजर आती हैं। इसके लिए उन्हे पूरे संदर्भ  में देखने की आवश्यकता है।          

यदि प्रेमचंद जैसे गैर- दलित लेखक दलित -समस्या पर लिख रहे हों, तो उनके दलित -बोध को किस प्रकार खारिज किया जा सकता है? देश की हजारों-लाखों जनता के साथ दलित- समस्या पर यदि प्रेमचंद भी गाँधी के साथ दिखाई पड़ते हैं, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है? जहाँ अंबेडकर के ‘पृथक निर्वाचन’ के प्रस्ताव का गाँधी के साथ- साथ सारे वामपंथी- दक्षिणपंथी और स्वयं दलित नेता भी विरोध कर रहे हों, उन्हें दलित अलगाववादी और साम्प्रदायिक मान रहे हों, वहाँ अकेले प्रेमचंद किस सीमा तक विरोध कर सकते थे? सत्य तो यह है कि समय के साथ हर व्यक्ति का विचार बनता- बिगड़ता रहता है। आरंभ में प्रेमचंद भी गाँधीवाद के शिकार थे। अतएव, उन्होंने अपने साहित्य में गाँधी का जोरदार समर्थन किया, किन्तु अंबेडकर का सीधा विरोध नहीं किया।          

सर्वविदित है कि कथा -सम्राट प्रेमचंद यदि किसी एक व्यक्ति या विचार से सर्वाधिक प्रभावित है, तो वह है गाँधी और गाँधीवाद। इसलिए उनके अधिकांश उपन्यास और कहानियों में गाँधीवादी हृदय- परिवर्तन और सुधारवादी आदर्श चित्रित हैं। तथापि प्रेमचंद केवल गाँधीवादी कथाकार नहीं हैं। उनके अंतर्मन में कहीं -न -कहीं अंबेडकर भी झाँक रहा है। अन्यथा वे अंबेडकर के हरेक आंदोलन पर कहानी नहीं रचते। उनकी ऐसी कहानियों में ‘मंदिर’ (1927 ई.) ,’मंत्र’ (1928 ई.), ‘ठाकुर का कुआँ’ (1932 ई.), ‘दूध का दाम’ (1934 ई.)  आदि चर्चित हैं। इन कहानियों पर अंबेडकर के ‘महाड़’ और ‘कालाराम मंदिर’ आदि आंदोलनों का प्रत्यक्ष प्रभाव देखा जा सकता है।           

महत्वपूर्ण सवाल यह नहीं है कि प्रेमचंद गाँधी से अधिक प्रभावित थे या अंबेडकर से! सवाल यह है कि प्रेमचंद ने क्या लिखा? उनकी रचनाओं का संदेश समाज में किस रूप में प्रचारित-प्रसारित हुआ है? इसका एकदम स्पष्ट उत्तर है कि प्रेमचंद अपनी ऐसी कहानियों के लिए दलितों के पक्षधर बताए गये और उनकी ऐसी कतिपय कहानियों का ब्राह्मण समाज तथा अन्य सवर्णों द्वारा कड़ा विरोध किया गया। संपूर्ण हिन्दी संसार इस विरोध से बखूबी परिचित है।          

वास्तव में ‘कफन’ को छोड़कर यदि प्रेमचंद ने दलितों का नकारात्मक चित्रण किया भी है, तो वहाँ समाज का नंगा यथार्थ बोलता है। माना कि उनकी वर्ण- चेतना वर्ग -चेतना में समाविष्ट है और कहानियों का आधार सामाजिक से अधिक आर्थिक है, फिर भी ‘सदगति’ और ‘ठाकुर का कुआँ’ जैसी कहानियों को क्या कहेंगे, जिसकी पंक्ति -पंक्ति में समाज और संस्कृति बोलती है। वस्तुत: प्रेमचंद ने शोषण के लिए सीधे रूप में अंग्रेजों की शोषण नीति को उत्तरदायी बताया है। उनकी दृष्टि में अंग्रेजकालीन भारत में गुलामी और शोषण के तीन चक्र हैं- अंग्रेजी सत्ता, जमींदारी व्यवस्था बनाम सामंतवाद तथा ब्राह्मणी व्यवस्था। आम आदमी इन्हीं तीनों चक्रों में पिसने को अभिशप्त है। कोई राजा बनकर लूट रहा है, कोई सामंत बनकर तो कोई पुरोहित बनकर। प्रेमचंद ने शोषण का सबसे बड़ा चक्र ब्राह्मणवादी व्यवस्था को माना है, जिसका नाभिनाल संबंध भारतीय धर्म और संस्कृति से है। प्रेमचंद की रचनाएँ इसी धार्मिक और ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर निरंतर प्रहार करती नजर आती हैं। प्रेमचंद की रचनाओं में कहीं -कहीं दलित चेतना की उग्र अभिव्यक्ति हुई है। यथा – ‘गोदान’ उपन्यास में ब्राह्मण के मुँह में चमारों के द्वारा जीवित हड्डी ठूँसना! यहाँ निश्चय ही वे गाँधी की अपेक्षा अंबेडकर के नजदीक दृष्टिगत होते हैं।            

दार्शनिक दृष्टि से प्रेमचंद पर गाँधी, अंबेडकर तथा कार्ल मार्क्स का समान रूप से प्रभाव पड़ा है। बानगी के तौर पर ‘गोदान’ को केन्द्र में रखकर इसे स्पष्ट किया जा सकता है। गोदान के महत्वपूर्ण पात्र डाॅ मेहता तथा मालती पर गाँधीवाद का स्पष्ट प्रभाव है। चूँकि दोनों का जीवन राज और समाज के नाम समर्पित है। दर्शनशास्त्र का यूनिवर्सिटी प्रोफेसर होने के बावजूद भी वह सादा जीवन व्यतीत करता है और अपने वेतन का सर्वाधिक अंश गरीब और प्रतिभासंपन्न छात्र-छात्राओं की पढ़ाई पर खर्च करते हैं। वे जीवनपर्यंत विवाह भी नहीं करते, न ही ऐयाशी के साथ जीवन जीने में उनकी कोई रूचि है। ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ ही उनका जीवन दर्शन है। दूसरी ओर मालती है जो इंग्लैंड से डाॅक्टरी पढ़कर आयी है। मेहता के प्रभाव में आते ही वह अपना संपूर्ण जीवन जन-सेवा में समर्पित कर देती है। वह भी विवाह से परहेज करती है। सच में वह ‘बाहर से तितली और भीतर से मधुमक्खी’ सिद्ध होती है।             

गोदान में अंबेडकरवाद का प्रभाव तीन संदर्भों में परिलक्षित होता है। प्रथम, जहाँ गोबर और झुनिया का प्रथम प्रेम संवाद होता है, जिसमें झुनिया उस प्रसंग का उल्लेख करती है, जब एक धर्मनिष्ठ पंडित उसके शारीरिक शोषण की नाकाम कोशिश करते हैं और प्रतिवाद में वह कहती है- ‘तुम्हारे पोथी- पतरा में यही सब लिखा है कि दूसरे की बहू-बेटियों की इज्जत लूटो………तुम्हारे ये चंदन -तिलक, जनेऊ क्या स्त्रियों को फँसाने का जाल है……?’ दसरा प्रसंग है सिलिया चमाईन के गर्भवती हो जाने पर चमारों का कुपित होकर मातादीन के मुँह में हड्डी कोंचना। हम समझते हैं कि एक स्वर्ण  रचनाकार के रूप में प्रेमचंद ने जो हिम्मत यहाँ दिखाया है, वह दलित रचनाकारों की रचनाओं में भी लगभग दुर्लभ है। तीसरा प्रसंग वहाँ का है, जब दातादीन के खेतों में काम करती हुई धनिया सुस्ताने लगती है और कुपित होकर दातादीन कहता है,’अगर तुम लोगों का यही हाल रहा तो एक दिन भीख मांगोगे।’ धनिया इसके प्रतिवाद में कहती है-‘भीख मांगों तुम, जो भिखमंगे की जात हो। मैं तो ठहरी मजदूर, कहीं भी मजदूरी करूँगी और चार पैसे पाउंगी……।’              

प्रेमचंद पर मार्क्सवाद का भी प्रभाव कम नहीं था। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में वर्ण- विमर्श से ज्यादा वर्ग -विमर्श है। गोदान में होरी कहता है-‘जिसके पावों तले अपनी गरदन दबी हो, उसे सहलाने में ही लाभ है….!’ होरी के इस कथन में शोषित- वर्ग की घनीभूत पीड़ा अभिव्यक्त हुई है, जो मार्क्सवाद का प्रभाव है। गोदान में शोषक वर्ग का प्रतीक है- जमींदार रायसाहब और उद्योगपति खन्ना आदि….। खन्ना से डाॅ. मेहता कहता है- ‘आपके मजदूर बिलों में रहते हैं। वह जिस तरह के कपड़े पहनते हैं, उससे आप जूता पोछना भी पसंद नहीं करेंगे….वे जैसा खाना खाते हैं, वैसा आप अपने कुत्ते को भी खिलाना पसंद नहीं करेंगे।’ मेहता के इस कथन में मार्क्सवाद की जबरदस्त अभिव्यक्ति हुई है।             बहरहाल, प्रेमचंद अपने समय की ऊपज और जरूरत थे। उस समय के वैचारिक आंदोलन का प्रभाव उनके साहित्य पर पड़ना स्वाभाविक ही था। वे अत्यंत सजग रचनाकार थे। वे उस समय केवल वर्तमान ही नहीं, भारत का भविष्य भी रच रहे थे। यही कारण है कि आज भी उनके साहित्य का महत्व कम नहीं हुआ है। मुझे विश्वास है कि जिस दिन प्रेमचंद का साहित्य समाज और राष्ट्र के लिए असंगत या अप्रासंगिक हो जाएगा…. जिस दिन सबकुछ बदल जाएगा, उस दिन से प्रेमचंद की रचनाओं को लोग इतिहास के रूप में पढ़ेंगे।                                             

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