नागार्जुन (यात्री जी) की मैथिली कविताओं में आधुनिकता

भारत के करोड़ों दलित, शोषित ,पीड़ित, वंचित वर्ग ही नहीं, राज और समाज के लिए प्रतिबद्ध नागार्जुन जन्म से कवि, प्रकृति से घुमक्कड़ और विचार से शुद्ध मार्क्सवादी हैं। साहित्य की आभिजात्य तथा लोक-परंपरा के बीचोंबीच अपना मार्ग बनाते हुए कबीर की भाँति फक्कड़ तथा शासन और सत्ता से बेखौफ टकराने वाले नागार्जुन स्वाधीन भारत के सबसे क्रांतिकारी कवि हैं। इनके बारे में डाॅ. बच्चन सिंह ने लिखा है- “महात्मा गाँधी के अहिंसा- सिद्धांत और हृदय परिवर्तन में उन्हें कोई आस्था न थी…. किन्तु जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति- आंदोलन में उन्होंने सक्रिय योगदान दिया।…..सन् 1962 में चीनी आक्रमण के समय कम्युनिस्टों की नीतियों से सहमत न  होकर वे उनसे अलग हो गए, किन्तु किसानों- मजदूरों की पक्षधरता को कभी आँच न आने दी।”(1) सदैव सत्ता के खिलाफ बोलने और लिखने वाले जनकवि नागार्जुन आम जनता की आवाज हैं। क्या गद्य, क्या पद्य, क्या संस्कृत, क्या बंगला, क्या मैथिली, वे सर्वत्र समादृत हैं।           

हिन्दी में नागार्जुन तथा मैथिली में वैद्यनाथ मिश्र यात्री के नाम में प्रसिद्ध कवि का जन्म 30 जून,1911 ई. में उनके ननिहाल ग्राम- सतलखा, पोस्ट मधुबनी, बिहार में हुआ।(2) हालाँकि उनका पैत्रिक गाँव मधुबनी जिले का तरौनी गाँव है। बचपन में उन्हें ढक्कन कहकर पुकारा जाता था। उनका मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र था। बाद में घुमक्कड़ी प्रवृति के कारण उनके नाम में ‘यात्री’ शब्द सहज ही जुड़ गया। प्रख्यात मार्क्सवादी लेखक राहुल सांकृत्यायन के सानिध्य और बौद्ध दर्शन से प्रभावित होने के कारण उन्होंने अपना नाम ‘नागार्जुन’ रखा तथा इसी नाम से हिन्दी साहित्य में जीवनपर्यन्त गद्य और पद्य का सृजन करते रहे।         

नागार्जुन के काव्य में अब तक की संपूर्ण भारतीय काव्य-परंपरा जीवंत रूप में दिखाई पड़ती है। इनका कवि व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों के रचना- संसार के अवगाहन, बौद्ध तथा मार्क्सवाद जैसे बहुजनोन्मुख दर्शन के व्यावहारिक अनुगमन तथा सबसे बढ़कर अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिंताओं एवं संघर्षों से  प्रत्यक्ष जुड़ाव, लोक-हृदय की परख से निर्मित है। इनका ‘यात्रीपन’ भारतीय मानस एवं विषय को समग्र और सच्चे रूप में समझने का साधन रहा है।               

नागार्जुन आधुनिकता बोध से संपन्न स्वाधीन भारत के सबसे लोकप्रिय कवि माने जाते हैं। इसलिए आजादी के बाद जो मोहभंग की स्थिति उत्पन्न हुई थी, उसकी मुखर अभिव्यक्ति नागार्जुन की हिन्दी और मैथिली कविता में मिलती है। स्वाभाविक रूप से यात्रीजी की कविताओं में भारत की समग्र समस्याओं का दिग्दर्शन होता है। उनकी कविता का फलक अत्यंत विराट है, जिसमें राष्ट्र का समग्र चिंतन दृष्टिगोचर होता है। रूढ़ सामाजिक -सांस्कृतिक परंपरा और अंधविश्वास के व्यामोह में निमग्न तथा भीषण सामाजिक- राजनीतिक शोषण से त्रस्त आम जनता के दुःख-दर्द को शब्दबद्ध करती हैं उनकी कविताएँ। उनकी कविताएँ संपन्नता के मीनार से उतरकर विपन्न भारतीय जनता की टूटी मड़ैया तक जाती हैं। उनके द्वारा रचित ‘स्वप्न’ नामक कविता की पंक्ति देखिए-           

-“तोर मन दौड़त छह कोठाक दिस             

पैघ-पैघ धनीक दिस दरबार दिस             

गरीबक दिस ककर जाइत छै नजरि             

के तकै अछि हमर नोरक धार दिस             

अन ने छै, कैचा ने छै, कौड़ी ने छै             

गरीबक नेना कोना पढ़तैक रे            

उठह कवि तों दहक ललकारा कने         

गिरि-शिखरपर पथिक दल चढ़तेक रे।” (3)          

शोषक वर्ग के खिलाफ शंखनाद करती हुई यात्री जी की कविताएँ, जहाँ एक ओर राज-प्रासाद के गुंबदों को धराशायी करती हैं, वहीं दूसरी ओर श्रमिक वर्ग में शोषण के विरुद्ध जागृति भी उत्पन्न करती हैं। ‘चित्रा’ नामक काव्य संकलन तथा उसके बाद की तमाम कविताओं में कवि का विद्रोही स्वर और मुखर हो गया है। परिस्थितिवश कवि अपने घर- परिवार तथा गाँव को त्याग देने में भी संकोच नहीं करते हैं। उनके द्वारा रचित कविता ‘अंतिम प्रणाम’ की पंक्तियाँ देखिए :          

-“कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप            

हम टा सन्तति, से हुनक पाप            

ई सोचि हौन्हु जनु मनस्ताप           

अनको विसरक थिक हमर नाम           

माँ मिथिले ई अन्तिम प्रणाम (4)                

मिथिला को किया गया अंतिम प्रणाम भले ही अंतिम सिद्ध न हुआ हो, किन्तु इस बहाने कवि ने मैथिल समाज की रूढ़िवादी मानसिकता पर जरूर कुठाराघात किया है। पिता तथा अपने मैथिल ग्राम्य परिवेश के प्रति कवि की खींझ निश्चय ही उनकी प्रगतिवादी विचारों से प्रेरित है। यह अलग सवाल है कि मार्क्सवाद तथा बौद्ध दर्शन के अतिरेक से बाद में उनका मोहभंग हो जाता है और पुन: वे सनातनी आस्तिकता की ओर लौट आते हैं। विद्वानों के मतानुसार,’उनकी कविता का मूल स्वर ‘डेविएशन’ है। इसी सूत्र के सहारे हम उनकी मूल्यवत्ता और कलात्मकता तक पहुँच सकते हैं। पछाड़ दिया है मेरे आस्तिक ने’ ऐसी ही कविता है। बचपन का लौटना, पंकिल कछार में भारी खुरों के निशान, नीलकंठ की उड़ान, सूर्योदय का प्रकाश बिंब आदि देखकर कवि कह उठता है- “ऊँ नमो भगवते भास्कराय।”(5)          

यात्रीजी का आधुनिकता बोध केवल उनकी प्रगतिवाद कविता में ही नहीं मिलती है, बल्कि कवि ने अभिव्यक्ति के नवीन कौशल भी इसे रेखांकित करता है। देखिए कैसे वे चिंता में निमग्न मानव के भीतर नव चेतना का संचार करते हैं :           

-“किछु होअओ, भावीक चिन्ता नहि करी             

एखन तँ झरकल नयनकें जुड़ा ली तत्काल             

दिव्य ओ अभिराम करै अछि आकृष्ट रहि

रहि ठाढिपर लटकल सिनुरिया आम।”(6)               

मैथिली कविता में यात्री जी ने अपने राष्ट्र- प्रेम को भी सर्वथा नये रूप में प्रस्तुत किया है, जिसे उन्होंने ‘जय भारती जननी’ नामक कविता में प्रदर्शित किया है-                  

-“जय जय जय जय भारत जननी!            

शत सहस संस्कृति संगमनी!            

जय जय जय जय भारत जननी!            

शतश्रुति, शतगंधा, शतरूपा !           

शत रस ओ शत परम, अनूपा !           

शत शत शत शत दल संचारिणी           

विंध्य हिमालय-शिखर-विहारिणी।”(7)           

बाबा नागार्जुन उर्फ़ यात्री जी की प्रगतिशीलता का एक उल्लेखनीय आयाम आधुनिकता बोध अथवा समसामयिक चिंतन से संबंधित है। नागार्जुन न केवल सामाजिक यथार्थ के कवि हैं, अपितु दिन-प्रतिदिन, क्षण- प्रतिक्षण की स्थितियों से भी प्रतिबद्ध रहे हैं। उनकी प्रतिबद्धता स्वस्थ जीवन-मूल्यों के प्रति है। तीव्रता के साथ आधुनिक तथा समसामयिक स्थितियों और घटनाओं को अपने काव्य में वाणी देते हैं। उनकी अनुभूतियों के कैनवास में सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय और दैनिक घटनावली स्वतः प्रतिबिम्बित हो गई है। नागार्जुन अपने सम‌य के न केवल सजग कवि हैं, अपितु अपने समय के चश्मदीद गवाह भी हैं। यही कारण है कि उनकी कविताओं में पुलिस – छात्र संघर्ष, जमींदार-किसान संघर्ष, देशव्यापी भ्रष्टाचार, नेताओं की अवसरवादिता सामान्य रूप से देखने को मिल जाती हैं।              कबीर की भाँति नागार्जुन का भाषा पर जबरदस्त अधिकार है। ‘उनके भाषिक मुहावरे ठेठ गाँव के हैं, जहाँ संस्कृत की सधी हुई पदावली मिलेगी, वहीं पर गंवई रंग भी चढ़ा हुआ है। एक ही कविता में वे सफलतापूर्वक कई प्रकार की पदावलियों, छंदों, लयों का प्रयोग करते हैं। छन्दोबद्ध कविताओं में मैदानी नदियों का संयमित प्रवाह है, तो मुक्त छन्दों में पहाड़ी नदियों की चंचलता। वे कभी भी शैली की खोज नहीं करते, शैली स्वयं उन्हें खोजती है। जगह-जगह गाँव की धरती का खुरदुरापन अपनी उर्वरता और ऊर्जा के साथ उपस्थित है। उन्होंने ठीक ही कहा है-

‘जन-जन में जो उर्जा भर दे,

मैं उद्‌गाता हूँ उस रवि का।'(8)             

समग्रत: नागार्जुन (यात्री) की कविताओं में तद्युगीन भारत के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक यथार्थ बिना किसी लाग- लपेट के अभिव्यक्त हुई हैं। वे सदैव समसामयिक विषय पर कविता लिखते है, तथापि जहाँ कवि भारत के ऐतिहासिक- पौराणिक संदर्भ को कविता का आधार बनाते हैं, वहाँ भी उनका आधुनिकता बोध सिर चढ़कर बोलता है। यही कारण है कि समय के साथ उनकी कविताएँ और नवीन तथा प्रासंगिक हो जाती हैं।

संदर्भ ग्रंथ- सूची :

1. हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास- डाॅ. बच्चन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1996 ई., पृष्ठ- 411- 12

2. उपन्यासकार नागार्जुन- बाबूराम गुप्त, शाम प्रकाशन, जयपुर, 1985 ई.,पृष्ठ- 1

3. पत्रहीन नग्न गाछ- वैद्यनाथ मिश्र यात्री, यात्री प्रकाशन,  पटना, इलाहाबाद, 1969 ई. ,पृष्ठ- 15

4. वही, पृष्ठ- 40

5. हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास- डाॅ. बच्चन सिंह, पृष्ठ- 413

6. पत्रहीन नग्न गाछ- वैद्यनाथ मिश्र यात्री, पृष्ठ- 45

7. वही, पृष्ठ- 918. हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास – डाॅ. बच्चन सिंह, पृष्ठ-414

सम्प्रति- सहायक प्राध्यापक सह अध्यक्ष,                   

हिन्दी – विभाग,           

श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय,                   

सीतामढ़ी, बिहार                  

संपर्क- 6201464897

ईमेल : umesh.kumar.sharma59@gmail.com

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