नदी के द्वीप : गहन अस्तित्वबोध की कविता

                   
                         
           सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हिन्दी साहित्य जगत में कुशल गद्यकार तथा प्रयोगवाद के प्रवर्तक कवि के रूप में समादृत हैं। कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा से संपन्न अज्ञेय ने अनेक कालजयी कृतियों का सृजन किया है। साहित्य की अविरल परंपरा में उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा एवं वैयक्तिक प्रज्ञा से विशिष्ट पहचान बनाई है। उनकी वैयक्तिक प्रज्ञा की ही अभिव्यक्ति है- ‘नदी के द्वीप’ शीर्षक कविता। विदित हो कि अज्ञेय जी ने इसी शीर्षक से अपना एक उपन्यास भी लिखा है। अगर उनकी इस कविता को उनके उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ की प्रस्तावना या पूर्वपीठिका कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह कविता सही अर्थों में समाज का दर्पण नहीं, वरन् व्यक्ति की आत्मा का दर्पण है। इस कविता पर अस्तित्ववादी जीवन -दर्शन की गहरा प्रभाव है। यह कविता अस्तित्ववाद की सैद्धान्तिकता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति है, जहाँ कवि ने समाज के बीच व्यक्ति की महत्ता और सार्थकता को स्थापित करना चाहा है। 
          इस कविता में अज्ञेय ने प्रतीकात्मक शैली में यह प्रतिपादित किया है कि व्यक्ति की स्थिति समाज में एक ‘द्वीप’ की भाँति है। अपनी व्यष्टि चेतना को सुरक्षित रखते हुए भी वह उस समष्टि का अंग है। यहाँ नदी समष्टि चेतना का प्रतीक है, तो द्वीप व्यष्टि चेतना का। यद्यपि द्वीप नदी के गर्भ से उत्पन्न होता है, परंतु वह नदी की धारा से पृथक अस्तित्व रखता है। ठीक उसी प्रकार जैसे मनुष्य समाज से उत्पन्न होता है, पर उस समाज में उसका व्यष्टिगत अस्तित्व होता है। यहाँ कवि मनुष्य की वैयक्तिकता पर सर्वाधिक बल दिया है। ‘वैयक्तिकता’ जैसे शब्द को निश्चय ही अज्ञेय ने छायावाद से ग्रहण किया होगा, परंतु छायावादी कवियों की वैयक्तिकता, जहाँ अतिशय भावुकता से आच्छादित है, वहीं अज्ञेय की वैयक्तिकता अस्तित्ववाद से तिरोहित और वैज्ञानिकता ये युक्त है। यही कारण है कि द्वीप, नदी की धारा बनने के बजाय, ‘नदी के द्वीप’ बने रहना बेहतर समझता है। चूँकि धारा बनने का अर्थ है समष्टि के लिए अपनी सत्ता को विस्मृत कर देना। किन्तु द्वीप बनने का अर्थ है व्यष्टि चेतना को अक्षुण्ण रखते हुए समष्टि का अंग बनना। कवि कहते हैं – 
          “हम नदी के द्वीप हैं।
           हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर 
           स्रोतस्विनी बह जाए।
           ×…..×…….×……×……
           माँ है वह, इसी से हम बने हैं।
           किन्तु हम हैं द्वीप।
           हम धारा नहीं हैं।” (1)

            यहाँ नदी समाज का प्रतीक है और धारा है सामाजिक परंपराएँ, जहाँ अक्सर व्यक्ति अस्तित्वहीन होकर रह जाता है! किसी व्यक्ति का अस्तित्वहीन हो जाना समाज के लिए कदापि श्रेयस्कर नहीं हो सकता। भाव यह है कि व्यक्ति समाज की इकाई है। समाज में रहते हुए भी उसकी निजता (व्यक्तिगत सत्ता) सुरक्षित रहती है। इसलिए वह अपनी व्यष्टि चेतना को बचाए रखना चाहता है। भाव यह है कि उसके व्यक्तित्व की सार्थकता द्वीप बने रहने में है, नदी में विलीन होकर अस्तित्वहीन होने में नहीं। पंक्तियाँ देखिये –
          “स्थिर समर्पण है हमारा
           हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
           किन्तु हम बहते नहीं है,
           क्योंकि बहना रेत होना है।
           हम बहेंगे तो रहेंगे नहीं।
           ×…..×……×…..×……
           रेत बनकर हम सलिल को तनिक गंदला ही करेंगे।
           अनुपयोगी ही बनाएंगे।” (2)

           किसी मानव का समाज का अभिन्न अंग होना अभिशाप नहीं है, वरन यह अवसर है अपनी अनंत संभावनाओं तक पहुँचने का। चूँकि समाज से अलग उसका कोई अस्तित्व नहीं है। प्रकारांतर से द्वीप कहता है कि हम नदी के द्वीप हैं तो यह अभिशाप नहीं है, अपितु यह हमारी नियति है। नदी से अलग हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। यह नदी हमारी जननी है और हम इसके पुत्र हैं। 
            यह द्वीप नदी की कोख से पैदा हुआ है, पर वह एक छोटा – सा भूखंड है, उस विशाल भूखंड का प्रतिरूप, जो उसका पिता है। नदी ही वह साधन है, जो उसे पिता रूपी भूखंड से मिलाती है। कविता के इस अंश पर आस्तिकतावादी अस्तित्ववाद की झलक मिलती है। क्योंकि द्वीप और विशाल भूखंड के मध्य आत्मा और परमात्मा अथवा जीव और ब्रह्म का आभास मिलता है। यहाँ नदी प्रकृति, द्वीप जीव तथा विशाल भूखंड ब्रह्म का प्रतीक हो सकता है। उदाहरणार्थ- 
           “द्वीप हैं हम 
            यह नहीं है शाप
            यह अपनी नियति है।
            हम नदी के पुत्र हैं
            बैठे नदी के क्रोड में
            वह वृहद भूखंड से हमको मिलती है
           और वह भूखंड अपना पितर है।” (3)
           
           अस्तित्ववाद की एक प्रवृति है कि वह मनुष्य को परिस्थियों का दास नहीं मानता। उसका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता है। वह वही बनता है, जो बनना चाहता है। इसलिए अस्तित्ववाद भाग्यवाद और परिस्थिति नियति के विरुद्ध मानव के अनवरत संघर्ष पर जोर देता है। यह संघर्ष अस्तित्ववाद से निष्पन्न है। आलोच्य कविता में द्वीप के बहाने कवि ने मानव के गहन अस्तित्वबोध को काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान किया है। नदी उसकी माता है, जो उसे रूपाकार देती है, उसका संस्कार करती है। द्वीप कहता है कि यदि नदी में किसी कारण से बाढ़ आ जाए, जो किसी स्वेच्छाचार, अतिवाद का ही परिणाम हो सकती है तथा यह निर्मल जलधारा वाली नदी कर्मनाशा या कीर्तिनाशा की भाँति प्रबल होकर विकराल अथवा विनाशकारी हो जाए, तो वह स्थिति भी स्वीकार्य है। उस बाढ़ में हम भले ही रेत हो जायें, किन्तु पूरा विश्वास है कि हम फिर से अपने पैर टेक लेंगे और बाढ़ का प्रकोप कम होते ही फिर जम जाएंगे, अपने पैर टिका लेंगे और एक नये आकार का द्वीप फिर बन जायेगा। हे माता! तुम उसे पुन: संस्कारित कर देना, यही प्रार्थना है। कविता की पंक्तियाँ देखिए :
        “नदी तुम बहती चलो।
        भूखंड से जो दाय हमको मिला है,
        मिलता रहा है।
        मांजती संस्कार देती चलो,
        यदि कभी ऐसा हो
        तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी 
        स्वैराचार से – अतिचार से 
        तुम बढ़ो प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे
        यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा
       और काल प्रवाहिनी बन जाय।
       तो हमें स्वीकार है वह भी,
       उसी में रेत होकर
       फिर छनेंगे हम, जमेंगे हम, 
       कहीं फिर पैर टेकेंगे।
       कहीं फिर खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
       माता! उसे फिर संस्कार देना तुम।” (4)

          अतएव, ‘नदी के द्वीप’ मानव के गहन अस्तित्व का बोध की अभिव्यक्ति है। समाज तथा परंपरा में बीच मानव जीवन की सार्थकता की खोज कविता का प्रमुख रचनात्मक ध्येय है। इस कविता में ‘द्वीप’ स्वयं कवि अज्ञेय के व्यक्तित्व का प्रतिरूप है। द्वीप पर कवि के प्रखर व्यक्तित्व की छाप स्पष्ट लक्षित होता है।

संदर्भ ग्रंथ- सूची :

  1. सन्नाटे का छन्द, कविता संचयन (नदी के द्वीप)- संपादक- अशोक वाजपेयी, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर- 334003, प्रथम संस्करण : 1997, पृष्ठ संख्या- 50
  2. उपरिवत, पृष्ठ संख्या- 50
  3. उपरिवत, पृष्ठ संख्या- 51
  4. उपरिवत, पृष्ठ संख्या- 51

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