देवसेना प्रसाद साहित्य की सर्वोत्तम कल्पना है। ‘स्कन्दगुप्त’ नाटक में यद्यपि यह कल्पित स्त्री- पात्र है, परंतु नाटककार ने उन्हें इस रूप में प्रस्तुत किया है कि वह सर्वथा ऐतिहासिक लगती है। इसी के बहाने नाटक में तलवार की टंकार के साथ पायल की झंकार भी सुनाती देती है। वह प्रलय के वक्त भी गीत गाकर एक तरह से नियति के विधान को चुनौती देती है। ‘स्कन्दगुप्त’ में बन्धुवर्मा की बहन, मालव की राजकुमारी देवसेना के चरित्र का निर्माण प्रसाद की अमर कल्पना से हुआ है। उनमें आदर्श नारी-चरित्र के सभी गुण, यथा- सहनशीलता, उदारता, भावुकता, गंभीरता, देश-प्रेम, संगीतप्रियता, प्रेमानुभूति एवं दृढ़ता,त्याग और समर्पण आदि विद्यमान हैं। अपने इसी बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण देवसेना का चरित्र काल्पनिक होते हए भी वास्तविक प्रतीत होती है।
देवसेना स्कन्दगुप्त नाटक के प्रथम अंक के अन्तिम दृश्य में सर्वप्रथम पाठकों के समक्ष उपस्थित होती है तथा विजया और जयमाला के साथ वार्तालाप करती हुई देश के मान, स्त्रियों की प्रतिष्ठा, बच्चों की रक्षा के प्रति अपनी चिन्ता प्रकट करती है। देवसेना अपने सामाजिक दायित्व के प्रति पूर्ण सजग है। वह भाव-विभोर होकर दूर की रागिनी सुनती हुई लोक -जीवन के संघर्षों में भी अडिग भाव से अपनी व्यावहारिक क्षमता के बल पर निराले व्यक्तित्व का निर्माण करती है।
संगीत की अनन्य प्रेम रखनेवाली एवं पावन प्रेम की प्रतिमूर्ति देवसेना अपने जीवन और जगत के कण-कण में एक लय और तान की समरसता देखती है। वह जीवन की विषमता को भी संगीत की मधुरतम स्वर लहरी में डुबोकर आकर्षक बना देती है। मालव प्रदेश पर जब विदेशियों का आक्रमण होता है। उस संकट की स्थिति में भी अपनी संगीतप्रियता व्यक्त करती हुई जयमाला से कहती है, “तो भाभी, मैं गाती हूँ। एक बार गा लें हमारा प्रिय गान, फिर गाने को मिले या नहीं!” देवसेना संगीत को ब्रह्म की सत्ता के समान अणु-परमाणु में सर्वत्र व्याप्त देखती है। इस प्रकार वह सामान्य अनुभूति के स्तर से ऊँचे उठकर रहस्यात्मक अनुभूति के क्षेत्र में पहुँच जाती है। देवसेना का चरित्र अपने ढंग का सर्वथा विशिष्ट चरित्र है। सुख-दुख की प्रत्येक स्थिति में स्थितप्रज्ञ बनी रहने वाली यह रहस्यपूर्ण रमणी अपने एकान्तिक सम्पूर्णता में सदैव निमग्न रहती है। उसके जीवन का आदर्श एकान्त टीले पर, सबसे अलग शरद के सुन्दर प्रभात में फूला हुआ फूलों से लदा हुआ पारिजात वृक्ष है।
देवसेना की यह रहस्यात्मकता एवं संगीप्रियता करुण-भावना से ओतप्रोत है। जयमाला इस ओर संकेत करती हुए कहती है, “जब तूं गाती है, तब तेरे भीतर की रागिनी होती है।” देवसेना के हृदय में रुदन का स्वर उठता है। तब भी वह उसमें संगीत की वीणा मिला लेती है। उसकी रहस्य-भावना के मूल में हृदय-पक्ष की प्रधानता परिलक्षित होती है। इस दृष्टि से वह भावुकता की सजीव प्रतिमूर्ति नजर आती है। सहजता और गम्भीरता के संयोग से इसकी यही भावुकता रहस्योन्मुखता में परिवर्तित हो गयी है तथा प्रेम के क्षेत्र में पहुँचकर संयम, त्याग एवं दृढ़ता का मंगलकारी विधान प्रस्तुत करती है।
देवसेना की प्रणय-गाथा भी उसकी रहस्यात्मकता की भाँति बड़ी नाटकीय एवं रोमांचकारी है। वह अपने यौवन की प्रखर दोपहरी में स्कन्दगुप्त की जिस मन्मथ मूर्ति का वरण करती है, वही भ्रमवश विजया की ओर आकृष्ट हो जाता है, जिसकी पुष्टि मालव की राजसभा में स्कन्दगुप्त द्वारा अनायास व्यक्त की गयी वाणी द्वारा हो जाती है, “विजया, यह तुमने क्या किया? फिर भी देवसेना क्षुद्र सपत्नी-भाव का आश्रय ग्रहण न करके असाधारण गम्भीरता और सहनशीलता से अपने भावोद्गारों को दबाकर स्वस्थ एवं सन्तुलित बनी रहती है। उसके चरित्र की यह विशिष्टता उसी के बातों की व्यावहारिक भूमिका प्रस्तुत करती है- ”ससार में ही नक्षत्र से उज्ज्वल किन्तु कोमल स्वर्गीय संगीत की प्रतिमा तथा स्थायी कीर्ति-सौरभ वाले प्राणी देखे जाते हैं। उन्हीं से स्वर्ग कर अनुमान कर लिया जा सकता है।” देवसेना के चरित्र में अनासक्त कर्मयोग की भावना का सजीव अंकन नाटककार द्वारा किया गया है। जिस समय भीमवर्मा देवसेना को यह सुसंवाद सुनाता है कि तुम्हारे प्राण बचाने के पुरस्कार में स्कन्दगुप्त ने मातृ-गुप्त को कश्मीर का शासक नियुक्त किया है, उस समय बड़े संयत स्वरों में देवसेना यही कहती है, “सम्राट्र की महानुभावना है भाई! मेरे प्राणों का इतना मूल्य!” इसी प्रकार स्कन्दगुप्त द्वारा आर्य-साम्राज्य की उद्धार चर्चा सुनकर बड़े निर्लिप्त भाव से कहती है, “मंगलमय भगवान् सब मंगल करेंगे।” स्कन्दगुप्त के प्रति देवसेना का प्रेम वासनापरक न हो कर दिव्य-भावों से युक्त है। स्कन्दगुप्त जब उसे अपना ममत्व अर्पित करके किसी कानन के कोने में उसके साथ एकान्तवास की कामना करता है, तब उसके इस ममत्वपूर्ण आत्मनिवेदन से देवसेना की पूर्ण आध्यात्मिक तुष्टि हो जाती है फिर भी वह उदात्त व्यक्तित्व से सम्पन्न आदर्श नारी प्रत्युत्तर में कहती है- “क्षमा हो सम्राट्! उस समय आप विजया का स्वप्न देखते थे, अब प्रतिदान लेकर मैं उस महत्त्व को कलुषित न करूंगी। मैं आजीवन दासी बनी रहूंगी, परन्तु आपके प्राप्य में भाग न लूंगी। इस हृदय में, आह कहना ही पड़ा, स्कन्दगुप्त को छोड़कर न तो कोई दूसरा आया और न आयगा। नाथ! मैं आपको ही अपने को दे दिया है, अब उसके बदले कुछ लिया नहीं चाहती।” देवसेना के इस कथन में स्कन्दगुप्त के प्रति दायित्वपूर्ण एकनिष्ठ प्रेम एवं नारी- जाति की निष्काम-निष्ठा अनुपम ढंग से व्यक्त हुई है। वह लोकोत्तर सात्त्विक प्रेमनिष्ठपूर्ण आत्मसमर्पण करके भी विनिमय में वेदना को स्वीकार करती है। पंक्ति देखिये- “आह वेदना मिली विदाई।”
इस प्रकार देवसेना अपने अलौकिक व्यक्तित्व से केवल नन्दन की वसन्त श्री, अमरावती की शची और स्वर्ग की लक्ष्मी ही नहीं है। वरन् प्रेम की संवेदनशील भावुकता एवं दुर्बलता से मृत्युलोक की कामना एवं आशामयी मानवी भी है। प्रसाद ने उसके चरित्र की इस द्वन्द्वता को बड़े नाटकीय ढंग से उभारा है। वह प्रसाद जी की उदात्त कल्पना है।