कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा से संपन्न हिन्दी के अघोषित राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर राग और आग के कवि हैं। पराधीन भारत में पैदा हुए दिनकर स्वाधीन भारत के सबसे क्रांतिकारी कवि हैं। उनकी कविताओं में एक ओर भारत की स्वाधीनता और समता की मांग है, तो दूसरी ओर भारत का उदात्त संस्कृति का मूलभूत चिंतन। दिनकर जी बहुआयामी प्रतिभा के धनी साहित्यकार हैं। उनकी प्रतिभा के आलोक से साहित्य की कोई भी विधा जगमगा उठती है। उनके विराट व्यक्तित्व को जितनी स्वीकृति और ख्याति एक कवि के रूप में मिली है, ठीक उतनी ही गद्य में भी। रामचंद्र शुक्ल ने उचित ही कहा है कि,”गद्य कवियों की कसौटी है।”(1)
दिनकर रचित गद्य- ग्रंथ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ भारत का सृजनात्मक इतिहास है। इसमें संस्कृति को व्यापक रूप में परिभाषित किया गया है। दिनकर जी ने भारतीय संस्कृति के विकास के चार सोपानों को चार अध्यायों के रूप में रेखांकित किया है। इन अध्यायों को उन्होंने क्रमिक रूप से चार क्रांतियों की परिणति माना है। ग्रंथ की भूमिका में वे लिखते हैं-“भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रांतियाँ हुई हैं और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रांतियों का इतिहास है।”(2) पहली क्रांति तब हुई, जब आर्य भारतवर्ष में आए अथवा जब भारतवर्ष में उनका आर्येतर जातियों से संपर्क हुआ। आर्यों ने आर्येतर जातियों से मिलकर जिस समाज की रचना की, वहीं आर्यों अथवा हिन्दुओं का बुनियादी समाज हुआ। तथा दोनों के सम्मिलन से जो संस्कृति निर्मित हुई, वही भारत की बुनियादी संस्कृति बनी। दूसरी क्रांति बुद्ध और महावीर के द्वारा भारत के स्थापित सनातन धर्म तथा सांस्कृतिक मान्यताओं और स्थापनाओं के विरोध से उत्पन्न हुआ। इन दोनों महापुरुषों ने भारतीय समाज की जड़तावादी एवं रूढ़िवादी मान्यताओं का निषेध किया। तीसरी क्रांति उस समय हुई, जब भारतवर्ष में इस्लाम का आगमन हुआ। और चौथी क्रांति तब हुई, जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ और उसके संपर्क से हिन्दुत्व और इस्लाम, दोनों ने नव- जीवन का अनुभव किया।
दिनकर के सांस्कृतिक चिंतन पर बात करने से पूर्व ‘संस्कृति क्या है’? इसे समझ लेना अनिवार्य है। संसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गई है, उनसे अपने को परिचित करना संस्कृति है। संस्कृति वस्तुत: श्रेष्ठ संस्कारों का समुच्चय है, जिसे हम परंपरा से प्राप्त करते हैं और अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करते हैं। गलती से सभ्यता और संस्कृति शब्द को एक दूसरे का पर्याय मान लिया गया है, जबकि दोनों एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। सभ्यता बाह्य है, तो संस्कृति आंतरिक। सड़कों, नालों, मंदिरों, मस्जिदों के आकार- प्रकार, हमारे पहनावे, साज- सज्जा आदि सभ्यता का विषय है, तो हमारी सामाजिक, धार्मिक मान्यताएँ संस्कृति का विषय है। एक दूसरी परिभाषा में कहा गया है कि, ”संस्कृति शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, दृढ़ीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था है। यह सभ्यता के भीतर प्रकाशित हो उठना है।”(3)
दिनकर जी ने भारतीय चश्मे से भारतीय समाज और संस्कृति को देखने- परखने का पहला शोधपरक प्रयास किया है। वे भारतीय संस्कृति के गंभीर अध्येता थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति के उदार पक्षों को समझने की कोशिश की है। इस संदर्भ में डाॅ. रामचन्द्र तिवारी जी लिखते हैं- “भारतीय संस्कृति की मूलभूत एकता पर दिनकर को पूरा विश्वास है। उन्होंने भारतीय जन समूह की रचना में नीग्रो, आष्ट्रिक, द्रविड़ और आर्य जातियों का सम्मिश्रण स्वीकार किया है। भारतीय संस्कृति के मूल उपादानों में द्रविड़- संस्कृति की देन को महत्वपूर्ण माना है। बौद्ध और जैन मतों का विकास वैदिक धर्म की रूढ़ियों की प्रतिक्रिया -स्वरूप स्वीकार किया है।”(4)
राष्ट्रवादी होने के नाते दिनकर जी को भारतीय संस्कृति से अगाध प्रेम था। वे सदैव भारतीयता के पक्षधर रहे। पश्चिम के इतिहास लेखकों ने भारत की जो छवि निर्मित की है, वह श्रेयस्कर नहीं थी। उस पर व्यंग्य करती हुई प्रगतिवादी इतिहासकार रोमिला थापर कहती है- “अनेक यूरोपवासियों के मन में भारत के नाम से महाराजाओं, सँपेरों और नटों की तस्वीर उभरती रही है…….यूरोप की कल्पना में भारत सदा से बेहिसाब संपत्ति और अलौकिक घटनाओं का एक अविस्मरणीय देश रहा है।”(5)
पाश्चात्य संस्कृति की अंधी दौर में भारतीय संस्कृति के उदात्त संदर्भों को उद्घाटित कर दिनकर ने हमें गौरवान्वित किया है। सच में किसी भी देश की अस्मिता का गहरा संबंध उनकी संस्कृति से होता है। अगर किसी देश या जाति का सर्वनाश करना हो तो उसकी संस्कृति पर हमला किया जाता है। संस्कृति हमें परंपरा से प्राप्त वह कवच है, जो हमारे अस्तित्व को बचाने में गंभीर भूमिका निभाती है। यह भारतीय संस्कृति की विशेषता ही है, जो उसे कभी मिटने नहीं देती। इतिहास साक्षी है कि समय के साथ बेबीलोन , रोम और यूनान की संस्कृति मिट गयी, परंतु सैकड़ों हमलों के बावजूद भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण बनी रही। यह निरंतर समृद्ध होती गई। इकबाल ने ठीक ही कहा था- ”कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।”(6) यह ‘कुछ बात’ है- भारत की सामासिक संस्कृति और उसमें निहित सामंजस्य का सामर्थ्य। दिनकर जी स्पष्ट करते हैं कि “हिन्दू – संस्कृति का आविर्भाव आर्य और आर्येतर संस्कृतियों के मिश्रण से हुआ तथा जिसे हम वैदिक संस्कृति कहते हैं, वह वैदिक और प्रावैदिक संस्कृतियों के मिलन से उत्पन्न हुई थी।”(7) इस तरह भारतीय संस्कृति भारत में आने वाली अनेक जातियों तथा प्रजातियों की साझी विरासत है। इसकी विशेषता को रेखांकित करते हुए सुप्रसिद्ध इतिहासकार मिस्टर डाडवेल ने लिखा है कि “भारतीय संस्कृति महासमुद्र के समान है, जिसमें अनेक नदियाँ आकर विलीन होती रही हैं।”(8) दिनकर जी का कहना है- “भारत की संस्कृति आरंभ से ही सामासिक रही है। उत्तर- दक्षिण, पर्व- पश्चिम, देश में जहाँ हिन्दू बसते हैं, उनकी संस्कृति एक है। एवं भारत की प्रत्येक क्षेत्रीय विशेषता हमारी इसी सामासिक संस्कृति की विशेषता है। तब हिन्दू- मुसलमान जो देखने में दो लगते हैं, किन्तु उनके बीच सांस्कृतिक एकता विद्यमान है, जो उनकी भिन्नता को कम करती है।”(9)
दिनकर जी का सांस्कृतिक चिंतन अत्यंत प्रगतिशील है। वे भारतीय समाज और संस्कृति की समीक्षा भी करते हैं और अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता की सतर्क स्थापना भी। ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के प्रथम अध्याय के आरंभ में ही वे इस बात को प्रमाणित करते हैं कि मानव की उत्पत्ति सर्वप्रथम भारत में हुई। उनका अनुमान है कि, ”आदमी पहले- पहल भारत में उत्पन्न हुआ, वह भी उत्तर नहीं दक्षिण में जनमा होगा।”(10) इसके साथ ही उनकी स्थापना है कि आर्य भारत के बाहर से नहीं आये थे, बल्कि वे यहीं के वासी थे। उनका तर्क है कि ”आर्यों का प्राचीनतम साहित्य वेद है, जो भारत में ही मिलता है। अगर वे बाहर से आये होते तो वहाँ का उल्लेख अनिवार्य रूप से वेद में होता। आर्यों का मूल अभिजन पंजाब ही रहा होगा। संहिताओं में जिस सप्त- सैन्धव देश का उल्लेख मिलता है, वह इसी पंजाब में था।”(11) यहाँ दिनकर जी ने उन तमाम विचारों का सतर्क खंडन करते हुए भारतीयता का पक्ष मजबूत किया है। ‘ऋग्वेद’ के अनुसार भी आर्यों का देश सप्त- सैन्धव था। यही वह भूखंड है, जहाँ मोहनजोदड़ो – सभ्यता के अवशेष मिलते हैं। यहीं पर आर्य संस्कृति से संबद्ध जातियों के सबसे पुराने निशान मिले हैं। लेखक के अनुसार मोहनजोदड़ो की सभ्यता आर्यों की सभ्यता थी। (12) जो लोग आर्यों को यूरेशियाई मानते हैं, उन्हें समझना चाहिए कि जिस समय भारतवर्ष की भौगोलिक सीमाएँ तय नहीं हुई थी तो हम कैसे कह सकते हैं कि ये इन सीमाओं से बाहर के थे। आज जब मूलवंशी अस्मिता के सवाल उठ रहे हैं और भारत में एक तरह का सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष चल रहा है। तब दिनकर जी के विचार बेहद प्रासंगिक प्रतीत होते हैं।
भारत के सनातन धर्म बनाम हिन्दू- धर्म में समय के साथ अनेक तरह की विकृतियाँ आ गई थीं, यथा- कर्मकांड, बाह्याडंबर, हिंसावाद, यज्ञवाद आदि। इन विकृतियों के कारण समाज में पुरोहितवाद का वर्चस्व कायम हो गया था। हिन्दुत्व अपने केन्द्रीय भाव को भूल कर भटकाव की स्थिति में पहुँच चुका था। अब लोग ऐसे धर्म की खोज में लगे थे जो हिंसावाद और पुरोहितवाद से मुक्ति दिलाए। ऐसे समय में बौद्ध और जैन धर्म का प्रवर्तन हुआ, जो पुन: हिन्दू धर्म को उसकी मूल में स्थापित किया। ये दोनों धर्म हिन्दू धर्म का ही कायांतरण था।
भारत में जितने भी आक्रमणकरी आये, उनमें से मुसलमानों ने भारतीय समाज, धर्म और संस्कृति को सर्वाधिक प्रभावित किया। वैसे भी इस धर्म का प्रवर्तन सर्वथा हिन्दुत्व के खिलाफ हुआ था। इसीलिए दोनों में वैचारिक टकराहट होना स्वाभाविक था। यहाँ दिनकर जी लिखते हैं- “इस्लाम केवल नया मत नहीं था। यह हिन्दुत्व के ठीक विरोधी मत था। हिन्दुत्व की शिक्षा थी कि किसी भी धर्म का अनादर मत करो। मुसलमान मानते थे कि जो धर्म मूर्ति पूजा में विश्वास करता है, उसे नेस्तनाबूद कर देना ही धर्म का सबसे बड़ा काम है।”(13)
इस्लाम की मूल संरचना प्रगतिशील थी। उसका सूक्ति वाक्य है- ‘ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मददुर्रसूलल्लाह’, अर्थात- ईश्वर एक है, मुहम्मद साहब उसके रसूल हैं।'(14) यह ऐकेश्वरवादी धर्म है। इसका प्रवर्तन हिन्दू धर्म में निहित बहुदेववाद एवं मूर्तिपूजा के निषेध में हुआ था। अपने ऐतिहासिक विश्लेषण में दिनकर जी बताते हैं कि “आरंभ में हिन्दू- मुस्लिम संबंध मैत्रीपूर्ण था। इस्लाम से हिन्दुओं की भयंकर घृणा तब आरंभ हुई, जब महमूद गजनवी ने इस देश पर क्रूरतापूर्ण बर्ताव किया।”(15) संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर जी ने सिद्ध किया है कि,”भारत पर आक्रमण करने वाले कोई भी मुसलमान असली इस्लामिक नहीं थे। महमूद गजनवी या मुहम्मद गोरी अरबी या ईरानी नस्ल के नहीं थे, न इतिहास में उन्होंने सच्चे इस्लाम का प्रतिनिधित्व ही किया है।”(16) दिनकर जी ने यहाँ तक कहा कि, “बाबर का संबंध मंगोल जाति से था तथा चंगेज खाँ बौद्ध थे।”(17)
यह बात बेहद महत्त्वपूर्ण है कि भारत में दो तरह के मुसलमान आये। एक वे थे जो रक्तपात के सहारे दुनिया को इस्लाम स्वीकार करने को बाध्य कर रहे थे। दूसरे तरह के मुसलमान सूफी फकीर बनकर आए और इस्लाम की अच्छाइयाँ बताकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न किया। ऐसे मुसलमानों में ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया, शेख मोहिदी, शेख तकी आदि के नाम अत्यंत सम्मान के साथ लिए जाते हैं। कालांतर में अमीर खुसरो, कबीर, रसखान तथा जायसी जैसे उदार मुसलमान कवि हुए, जिन्होंने अपनी कविताओं से हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सेतु का निर्माण किया। ऐसे ही उदार कवियों के सम्मान में भारतेन्दु जी कहते हैं- ”इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिये।”(18)
भारत में सांस्कृतिक संक्रमण का सबसे विचित्र रूप तब निर्मित हुआ, जब भारतवर्ष की पावन भूमि पर यूरोपियनों का आगमन हुआ। इस रूप में सर्वप्रथम पुर्तगालियों का आगमन हुआ। वे वस्तुत: यहाँ मसाले बेचने आये थे। परंतु धीरे- धीरे भारतीय भूखंडों तथा बंदरगाहों पर अपना अधिपत्य जमा लिया। उन्होंने भारतीय स्त्रियों से विवाह भी किया। इससे भारतीय समाज में एक अलग प्रजाति का पदार्पित हुआ। पुर्तगालियों के बाद अकबर के समय में ही भारत में अंग्रेजों का आगमन हुआ। अंग्रेज भी यहाँ व्यापार करने के उद्देश्य से आये थे, परंतु बाद में वे हमारे शासक हो गये। इनके साथ सबसे बड़ी बात यह थी कि वे न तो हिन्दू थे और न मुसलमान। इस कारण उन्होंने दोनों की धार्मिक शुचिता पर प्रहार किया। ‘अंग्रेज भारत में सत्ता और धर्म -प्रचार का कार्य वे एक साथ कर रहे थे। उन्होंने डाक, तार, रेल और प्रेस की स्थापना की और साथ ही 1953 ई. में अनेक विश्वविद्यालयों की स्थापना की।'(19) जहाँ नये ज्ञान- विज्ञान की शिक्षा दी जाने लगी। इसी के परिणामस्वरूप भारतीयों में अस्मिता-बोध विकसित हुआ। 1857 ई. का प्रथम स्वाधीनता-संग्राम इसी अस्मिताबोध की शानदार परिणति है।
दिनकर जी ने यह सिद्ध किया है कि भारतीय संस्कृति को सर्वाधिक संक्रमित करने का कार्य अंग्रेजों ने किया। साथ ही भारत की समृद्धि को सर्वाधिक क्षतिग्रस्त भी उन्होंने ही किया। ज्ञात हो कि जो भी लोग, जाति या प्रजाति भारत में आए, उनमें से अधिकांश यहीं के होकर रह गये। अतएव, उन्होंने भारत की समृद्ध को बहुत अधिक प्रभावित नहीं किया। परन्तु अंग्रेज ही ऐसे थे, जो भारत को लूटकर ले गये। भारतेन्दु जी की पीड़ा यहाँ छलक पड़ती है- ”अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी, पै धन विदेश चलि जात, यहै अति ख्वारी।”(20) यह अलग बात है कि अंग्रेजों के कारण हमारे देश में नये ज्ञान- विज्ञान का विकास हुआ। अगर वे नहीं आए होते तो शायद इस रूप में भारत का विकास न हुआ होता।
फिर भी रामधारी सिंह दिनकर ने सांस्कृतिक संक्रमण के लिए एक हद तक अंग्रेजों को जिम्मेदार ठहराया है। अंग्रेजों के प्रभाव से ही हमारे देश में अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी संस्कृति का फैलाव हुआ, जिससे भारतीयों पर दूरगामी प्रभाव पड़ा है। वे लिखते हैं- “अंग्रेजी यदि भारत की शिक्षा की भाषा बनी रही, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत, भारत नहीं होकर इंग्लैंड और अमेरिका का सांस्कृतिक उपनिवेश बना रहेगा। भारत, भारत बने, इसकी पहली शर्त है कि वह स्कूलों, कालेजों और शासन के दफ्तरों से अंग्रेजी को एकबारगी विदा कर दे। यदि यह काम भारत के लिए कठिन है तो फिर यह भी कठिन होगा कि भारत अपनी उन अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर सके, जिन्हें उन्होंने पिछले छह हजार वर्षों से अर्जित किया है।”(21)
निष्कर्षत: दिनकर जी के सांस्कृतिक चिंतन में भारतीयता और भारत की राष्ट्रीयता महत्वपूर्ण है। भारत की सामासिक संस्कृति के उदात्त पक्षों को उद्घाटित करते हुए दिनकर जी ने भारतीय संस्कृति को विश्व की तमाम संस्कृतियों से श्रेष्ठ रूप में स्थापित किया है। सांस्कृतिक संक्रमण के इस विकट दौर में जब हम आँख मूंद के पश्चिम की ओर सरपट भाग रहे हैं, ऐसे में दिनकर का सांस्कृतिक चिंतन हमारे लिए कवच का काम करेगा।
संदर्भ-ग्रंथ- सूची :
1. हिन्दी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, पृष्ठ – 305
2. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ- ix (भूमिका से)
3. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ – xi (जवाहरलाल नेहरू लिखित प्रस्तावना से)
4. हिन्दी गद्य साहित्य- डाॅ. रामचन्द्र तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1956 ई., पृष्ठ- 991
5. भारत का इतिहास – रोमिला थापर, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, 1975 ई., पृष्ठ – 11 (पूर्वपीठिका से)
6. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास- रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1986 ई., पृष्ठ- 16
7. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ- 46
8. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ- 47
9. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ- 239
10. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ- 25
11. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ- 37
12. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ- 31
13. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ-237
14. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ-203
15. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ- 206
16. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ- 207
17. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ- 207
18. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ- 256
19. भारतीय नवजागरण और समकालीन संदर्भ- कर्मेन्दु शिशिर, नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली, 2017 ई., पृष्ठ- 30
20. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास- रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृष्ठ- 86
21. संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ -530
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सम्प्रति : सहायक प्राध्यापक सह अध्यक्ष,
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