दलित साहित्य का समकालीन संदर्भ

समकालीनता के इस दौर में दलित-विमर्श के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है, चूँकि समकालीन विमर्शों में सबसे ज्वलंत और धारदार विमर्श के रूप में स्थापित दलित -विमर्श में एक तरह की जड़ता आ गई है। दलित साहित्य का बदले की भावना से लिखा जाना उसके लिए हितकर नहीं है। आज समाज का स्वरूप बदल गया है। वर्ण-व्यवस्था की नींव पर स्थापित भारतीय समाज का ढाँचा बहुत कुछ बदल गया है ।आज दलितों की मूल समस्या ब्राह्मणवाद नहीं, बल्कि शिक्षावाद, सत्तावाद और पूँजीवाद की कोख से उत्पन्न नव-ब्राह्मणवाद है। वैसे भी पूंजीवाद और बाजारवाद ने जातिवाद की बुनियाद हिलाकर रख दिया है, परंतु नव- ब्राह्मणवाद ब्राह्मणवाद से ज्यादा खतरनाक साबित हो रहा है। इसने हमारे समाज को एक ऐसे दुःस्वप्न में ले जाकर फँसा दिया है, जहाँ से निकलना मुश्किल है। यादवों को लगता है कि लालू प्रसाद यादव जी उनका अपना है। पासवानों को चिराग पासवान जी में अपनापन दिखता है। चमारों की संवेदना मायावती के साथ जुड़ी है। जातिवाद का यह राजनीतिक घेरा राज और समाज दोनों को बीमार बनाकर रखता है। इन्हें विकास की मुख्यधारा से जुड़ने ही नहीं देता है। दलितों को अब तक यह पता नहीं चला है कि जातिवाद की कोख और सत्ता के वीर्य से उत्पन्न ये नव-ब्राह्मण अपने हित के लिए उनका इस्तेमाल कर रहे हैं। दलितों में से महादलित की तलाश एक छलावा है। यह हमारे सामाजिक संगठन को तोड़ने का कुत्सित प्रयत्न है ।संभवतः दलितों ने अंबेडकर के उन विचारों को भुला दिया है, जिसमें उन्होंने कहा था-“शिक्षित बनो , संगठित होओ और संघर्ष करो….।”

दस सेर अनाज, दस गज जमीन, एक साड़ी और एक धोती की कीमत पर दलित आखिरकार कब तक अपने भविष्य को तौलते रहेंगे! अपने सपने को बेचते रहेंगे!
दलित -विमर्श को आज समकालीन संदर्भ में देखने और परखने की आवश्यकता है। चूँकि परंपरित ब्राह्मणवाद की स्थिति लगभग चरमरा गयी है। आज किसी ब्राह्मण में इतना दम नहीं कि वह किसी दलित को स्कूल से बहिष्कृत कर दे। मंदिरों से धकेलकर बाहर कर दे या फिर स्वतंत्र व्यवसाय करने से रोक दे। बावजूद इसके दलित समुदाय के लोग अंबेडकरवाजी के चक्कर में नारा लगाते हैं-
‘तिलक तराजू और तलवार ।
इनको मारो जूते चार ।।’

या फिर ‘मनुस्मृति’ को जलाते हैं। हिन्दू देवी-देवताओं को गालियाँ देते हैं। ऐसे में हमें तो यही लगता है कि दलित-विमर्श अपने मुद्दे से भटक गया है। तभी तो दलित चिंतक अपने पुरखे का कब्र खोदकर सवर्णों के पुरखे को गरियाता है!
हम इस तथ्य को झुठला नहीं सकते कि वर्णवादी समाज -व्यवस्था ने दलितों को बहुत सताया है। भारत का इतिहास दलितों के रक्त से रंगा हुआ है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने दलित ऋषि शंबूक की जघन्य हत्या की। आचार्य द्रोण ने एकलव्य का अंगूठा मांगा, सभा ने दानवीर कर्ण को सूतपुत्र कहकर अपमानित किया। घटोत्कच और बर्बरीक के साथ छल किया ,तथापि अब दलित -विमर्श के लिए ये सारे विषय घिस चुके हैं। अब इस विमर्श को उससे आगे बढ़ना चाहिए।
दलित साहित्य का उद्देश्य केवल ब्राह्मणवाद का विरोध या अपनी अस्मिता की तलाश भर नहीं है। न ही यह केवल नकार का साहित्य है। यह तो एक विशाल जन- समुदाय अधिकारों की लड़ाई है। दलित साहित्य अन्याय के खिलाफ न्याय की मांग है। असत्य के खिलाफ सत्य की मुहिम है तथा अंधेरे के खिलाफ रोशनी के लिए संघर्ष है।

चलिए लगे हाथ उन विषयों पर भी एक नजर डालते चलें, जो दलित साहित्य के लिए मतलब की बात है। आपको बताते चलें कि भारतीय संविधान ने दलितों को अनुसूचित जाति कहकर संबोधित किया है। अर्थ स्पष्ट है कि सवर्णों ने जिसे ‘अनु’ अर्थात् छोटी-जाति कहकर सूचित किया, उसे संविधान में स्वीकार कर लिया गया, लेकिन समाज के ‘अनु’ का दायरा संविधान के ‘अनु’ से विस्तृत है। संविधान के अनुसार ‘अनु’ ‘अछूत’ का वाचक है, जिसपर समाज ने अस्पृश्यता का आरोप लगाया। इससे पृथक् सवर्ण समाज ब्राह्मण,राजपूत,कायस्थ और भूमिहार को छोड़कर अन्य सभी जातियों को छोटी जाति कहकर संबोधित किया है। ऐसे में ‘अनु’ का दायरा काफी बढ़ जाता है। साथ ही दलितों के दो वर्ग हो जाते हैं। एक वह जिसे अछूत कहा गया। यथा-डोम, दुसाध, चमार, हलखोर….आदि।दूसरा, जिसे समाज ने सेवक जातियों की श्रेणी में रखा। जिसपर समाज ने अस्पृश्यता का आरोप तो नहीं लगाया, परंतु इनका जमकर आर्थिक शोषण किया। इन जातियों में प्रमुख हैं- नाई, कहार, धोबी, कु़ंभकार…. आदि।
हम यह सोचकर गौरवान्वित हो सकते हैं कि भारतीय संस्कृति के मूल निर्माता दलित ही हैं। ‘रामायण’, जिसे भारत का आदिकाव्य कहा जाता है के लेखक ‘भील’ जाति में उत्पन्न बाल्मीकि दलित हैं। वहीं, ‘महाभारत’ समेत तमाम वेदों, पुराणों और उपनिषदों के निर्माता ‘धीवर’ कुल में उत्पन्न कन्या मत्स्यगंधा की कोख से उत्पन्न कृष्ण द्वैपायन व्यास हैं। इतना ही नहीं भरत, जिसके नाम पर हमारे देश का नामकरण किया गया, वे भी ‘मेनका’ नामक गणिका की पुत्री शकुंतला के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। दुःखद यह है कि पंडितों ने इन दलितों पर ऐसा चमकदार मुलम्मा चढ़ाया कि ये दलित ब्राह्मणों की श्रेणी में सम्मिलित हो गए। बड़ी ही सहजता के साथ इनका ब्राह्मणीकरण कर दिया गया। आज हम सभी इनपर गर्व करते हैं। अंबेडकर जी की मराठी कविता की एक पंक्ति इन दलितों पर मोहर लगाती है –
“हिन्दुओं को चाहिये थे वेद
इसलिए उन्होंने व्यास जी को बुलाया,
जो सवर्ण नहीं थे।
हिन्दुओं को चाहिये था महाकाव्य
इसलिए उन्होंने बाल्मीकि को बुलाया,
जो अछूत थे।
हिन्दुओं को चाहिये था एक संविधान
इसलिए उन्होंने मुझे बुला भेजा।”

इतिहास साक्षी है कि वर्ण- विभाजन का मूल उद्देश्य श्रम- विभाजन था, जो कालांतर में सामाजिक स्तरीकरण का पर्याय बनकर रह गया। ब्राह्मण उछलकर सबसे ऊँची सीढ़ी पर जा बैठा तथा शूद्रों को सबसे नीचे धकेल दिया। आधुनिक संदर्भ में वर्ण- विभाजन की निरर्थकता दो तर्कों से सिद्ध होती है। प्रथम यह कि ‘वर्ण’ का शाब्दिक अर्थ है-‘रंग’। ‘महाभारत’ के हवाले से कहें तो ब्राह्मणों का रंग श्वेत, क्षत्रियों का रंग लाल, वैश्यों का रंग पीला और शूद्रों का रंग श्याम अर्थात् काला होता है ।अब सवाल है कि रंगों का यह नियम आज कितना कायम है? क्या ब्राह्मण काले और शूद्र श्वेत नहीं होते हैं ? दूसरा तर्क है कि वर्ण- विभाजन का उद्देश्य श्रम का विभाजन था, तो यह भी कितना कायम है। ब्राह्मणों का काम पूजा पाठ करना-कराना, क्षत्रिय का काम राष्ट्र की रक्षा करना, वैश्यों का काम व्यापार करना तथा शूद्रों का काम उक्त सभी की सेवा करना तय किया गया था, परंतु बाजारवाद ने सबको खिचड़ी बनाकर रख दिया है।आज अगर नये सिरे से वर्ण- विभाजन हो जाय तो न जाने कितने ब्राह्मण , शूद्र तथा कितने शूद्र ब्राह्मण की श्रेणी में आ जाएंगे ।

उत्तर- आधुनिकतावाद के इस दौर में जब हम चाँद पर जीवन बसाने की तैयारी में हैं। जाति भेद निरापद लगता है।अपनी जर्जरित परंपरा को पजियाए सवर्णों के रक्त में अबतक ‘मनुस्मृति’ के कीड़े घूम रहे हैं। इस कीड़े को मारने की दवा भी भारतीय धर्मग्रंथों में ही उपलब्ध है। उन्हें पता ही नहीं है कि जिस रक्त की शुचिता पर वे फूले हुए हैं, उनमें सदियों से वर्ण शंकरता के कीड़े कुलबुला रहे हैं। धर्मग्रंथों के हवाले से कहें तो जब परशुराम ने सत्रह बार इस पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर तथा क्षत्रिय स्त्रियाँ ब्राह्मणों को सौंप दिया तो फिर अभी के क्षत्रिय कहाँ से आए? और क्या क्षत्रिय स्त्रियों के साथ ब्राह्मणों का संसर्ग करने से ब्राह्मणों की शुचिता भंग नहीं हुई? अनार्य पुरुष शिव के साथ आर्य कन्या पार्वती का विवाह, राजा दशरथ का दलित कन्या कैकेयी और सुमित्रा से विवाह, अर्जुन का नागकन्या ऊलूपी से विवाह तथा भीम का असुर कन्या हिडम्बा से विवाह ने संपूर्ण भारतीय को वर्ण-शंकर बना कर रख दिया ।अतः रक्त की शुचिता की बात करने वाले को अपने डी.एन.ए. की जाँच करवानी चाहिए।
निष्कर्षतः हम यही कहना चाहेंगे कि समय और परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। इसके साथ ही दलित-साहित्य की अवधारणाओं और उद्देश्यों को बदलना चाहिए। पंडितों को गाली देने से, देवताओं को उखाड़ फेंकने से या फिर ‘मनुस्मृति’ की होली जलाने से दलितों का उद्धार संभव नहीं है। दलित समता, स्वतंत्रता और बंधुता को तब तक नहीं प्राप्त करेगा ,जब तक वह शिक्षित ,संगठित और संघर्षशील नहीं होगा ।

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लेखक, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक तथा अध्यक्ष हैं।

One thought on “दलित साहित्य का समकालीन संदर्भ

  1. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बिल्कुल सही विचार। लेकिन आज़ न तो दलितों को सताने वाले जिन्दा है और न ही जो सताए गए थे वो जिन्दा है । फिर यह वैमनस्यता समाज में क्यों व्याप्त है।

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