दलित-विमर्श और हिन्दी कथा साहित्य

इधर कुछ दशकों से ‘दलित विमर्श’ की चर्चा साहित्य के केन्द्र में है। दलित का अर्थ है- समाज का दबा-कुचला (अर्थात् शोषित) वर्ग, किन्तु इसका अभिधेयार्थ ‘अनुसूचित जाति’ के लिए रूढ़ होकर रह गया है। इसलिए ‘दलित चेतना’ का तात्पर्य अनुसूचित जाति के व्यक्तियों में अन्याय, शोषण, वर्ग-भेद, जाति भेद के विरुद्ध उत्पन्न आक्रोश से लिया जाता है। इसी का दूसरा नाम ‘दलित-विमर्श’ है, जिसे कुछ कथा लेखकों ने अपनी कहानियों तथा उपन्यासों का प्रमुख विषय बनाया है। सच्चाई यह है कि दलित वर्ग के अन्तर्गत केवल ‘अछूत’ कहे जाने वाले अनुसूचित जाति के लोग ही नहीं आते, अपितु शोषण के शिकार बने वे सभी किसान, मजदूर, गरीब, खेतिहर लोग सम्मिलित हैं। भले ही वे किसी भी जाति के हों। सदियों से यह वर्ग उपेक्षित रहा है। अधिकारों से वंचित रहा है और शोषण का शिकार बनता रहा है। शिक्षा से वंचित रहने के कारण उसकी इच्छा शक्ति को पनपने नहीं दिया गया। उन्हें निकृष्ट कार्य करने के लिए बाध्य किया गया।

दलित साहित्य का प्रारम्भ सर्वप्रथम मराठी साहित्य में हुआ। प्रारम्भ में कुछ लोगों ने दलित साहित्य का तात्पर्य उस साहित्य से लिया जो दलित वर्ग के लेखकों ने दलितों की दशा अथवा अपने भोगे हुए यथार्थ को चित्रित करते हुए लिखा, तथापि आज भारत की अनेक भाषाओं में ऐसा प्रचुर दलित साहित्य उपलब्ध हैं, जो गैर-दलित लेखकों द्वारा रचा गया।

सर्वप्रथम महाराष्ट्र के दो दलित नेताओं महात्मा फूले एवं डॉ. अम्बेडकर ने अपने विचारों से दलित चेतना जाग्रत की। इनसे अनुप्राणित होकर दलित साहित्य का सृजन होने लगा। अम्बेडकर ने दलितों के लिए मन्त्र दिया- एजूकेट, आर्गेनाइज, एजीटेट। अर्थात् शिक्षित बनो, संगठन रहो और संघर्ष करो।

दलित साहित्य के अन्तर्गत क्या आना चाहिए और क्या नहीं, इस सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद हैं। प्रेमकुमार मणि के अनुसार, “दलितों के लिए दलितों के द्वारा लिखा जा रहा साहित्य ही दलित साहित्य है।” इसी प्रकार डॉ. एन. सिंह ने भी दलितों द्वारा लिखे गये साहित्य को दलित साहित्य माना है। वे कहते हैं- “दलित साहित्य दलित लेखकों द्वारा लिखित वह साहित्य है जो सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और मानसिक रूप से उत्पीड़ित लोगों की बेहतरी के लिए लिखा गया हो।”

हिन्दी साहित्य में दलित विमर्श का प्रारंभ प्रसिद्ध कहानी पत्रिका ‘सारिका’ के दो दलित विशेषांकों से माना जाता है जो अप्रैल 1975 तथा मई 1975 में निकाले गए। ‘हंस’ पत्रिका के सम्पादक प्रसिद्ध कथाकार राजेन्द्र यादव भी दलित विमर्श की चर्चा बराबर करते रहे हैं। हिन्दी में दलित-विमर्श पर लिखने वाले कथाकार हैं- डॉ. एन. सिंह, ओमप्रकाश बाल्मीकि, रामशिरोमणि, जयप्रकाश कर्दम, माताप्रसाद, अरविन्द राही, मलखान सिंह, मोहनदास नैमिशराय, रघुवीर सिंह आदि। रमणिका गुप्ता द्वारा सम्पादित ‘दूसरी दुनिया का यथार्थ’ में जो 18 कहानियाँ संकलित हैं, वे सभी दलित कहानीकारों द्वारा रचित हैं। डॉ. एन. सिंह के दो कथा- संग्रह ‘यातना की परछाइयाँ तथा ‘काले हाशिए पर’ प्रकाशित हुए हैं, जिनमें दलित लेखकों की कहानियाँ संकलित हैं। दलितों द्वारा लिखी गई ये कहानियाँ उनके स्वानुभूति पर आधृत होने के कारण उस सामाजिक अन्याय का घिनौना चेहरा यथार्थ में प्रस्तुत करती हैं, जो ग्रामीण समाज में अब भी किसी-न-किसी स्तर पर विद्यमान है। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी ‘उच्चाटन’ के प्रमुख चरित्र रामविलास (विलासिया) में यह दलित चेतना विद्यमान देखी जा सकती है। ‘मिसर’ को जली-कटी सुनाकर उसने जैसे उनका जहर दंत उखाड़ लिया था। छुआछूत का जो विष हमारे समाज में गहराई तक व्याप्त है, उसके दुष्परिणाम दलितों को भोगने पड़े हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है।

दलित चेतना से युक्त कुछ प्रमुख कहानी-संग्रह और उनके लेखक इस प्रकार हैं- ‘रक्तबीज’ (सत्यप्रकाश), ‘दृष्टिकोण’ (अरविंद राही), सलाम (ओमप्रकाश वाल्मीकि), ‘चार इंच की कलम’ (कुसुम वियोगी), ‘सुरंग’ (दयानन्द बटरोही), ‘आवाजें’ (मोहनदास नैमिषराय)। इसी प्रकार दलित चेतना से युक्त कुछ उपन्यास भी प्रकाश में आए हैं। यथा-‘जस तस भई सबेर’ (सत्यप्रकाश), ‘छप्पर’ (जयप्रकाश कर्दम), ‘जूठन’ (ओमप्रकाश वाल्मीकि), ‘मुक्तिपर्व’ (मोहनदास नैमिषराय)।

सत्य तो यह है कि स्वानुभूत सत्य की अभिव्यक्ति उस सत्य की तुलना में कहीं अधिक प्रभावकारी होती है, जो सहानुभूति के स्तर पर अनुभव किया गया हो, अतएव, वास्तविक दलित- साहित्य दलितों के द्वारा लिखा गया साहित्य ही माना जाना चाहिए।

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लेखक, श्री राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक और अध्यक्ष हैं।

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