बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न साहित्यकार जयशंकर प्रसाद ने अपनी मौलिक कृतियों से हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं को समृद्ध किया है। क्या गद्य! क्या पद्य! वे जिसे भी छू देते हैं, वह उनकी अलौकिक प्रज्ञा से चमत्कृत हो उठता है। यही कारण है कि वे जितने श्रेष्ठ कवि हैं, उतने ही कुशल गद्यकार भी। गद्यकार के रूप में उन्होंने नाटक, उपन्यास, कहानी तथा निबंध का सृजन किया है। नि:संदेह उन्हें नाटककार के रूप में सर्वाधिक सफलता मिली है। वे हिन्दी के युगप्रवर्तक नाटककार माने जाते हैं। उन्होंने भारत के गौरवमयी अतीत को अपने नाटकों का विषय बनाया है तथा नाटकों की कथावस्तु प्रायः इतिहास से ग्रहण की है, इसीलिए वे ऐतिहासिक नाटककार कहे जाते हैं। प्रसाद जी की प्रमुख नाट्य कृतियाँ हैं- सज्जन’, ‘चन्द्रगुप्त’,’ स्कन्दगुप्त’,’अजातशत्रु’, ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘विशाख’, ‘कामना’, राजश्री’, ‘जनमेजय का नागयज्ञ’, ‘कल्याणी परिणय’ और ‘ध्रुवस्वामिनी’ आदि।
‘ध्रुवस्वामिनी’ प्रसाद जी की अंतिम और बहुचर्चित नाट्यकृति है, जिसकी कथावस्तु गुप्त वंश के यशस्वी सम्राट् समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त (जिन्हें विक्रमादित्य कहा जाता है) के काल से सम्बन्धित है। ‘ध्रुवस्वामिनी’ की भूमिका में प्रसाद जी ने इसकी ऐतिहासिकता के अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। उनके अनुसार- ‘विशाखदत्त द्वारा रचित संस्कृत नाटक ‘देवी चन्द्रगुप्त’ में यह घटना वर्णित है, जिसमें ध्रुवस्वामिनी का पुनर्विवाह चन्द्रगुप्त के साथ हुआ, बताया गया है।’ सातवीं शताब्दी में ‘बाणभट्ट’ ने भी अपनी महत्त्वपूर्ण कृति ‘हर्षचरित’ में लिखा है कि ‘चन्द्रगुप्त ने नारी-वेश में शक शिविर में प्रवेश कर शकराज का वध किया।’ प्रसाद जी ने इसे स्वीकार किया है तथा भूमिका में लिखा है- “चन्द्रगुप्त का परकलत्र कामुक शकराज को मारना और ध्रुवस्वामिनी का पुनर्विवाह इत्यादि के ऐतिहासिक सत्य होने में सन्देह नहीं रह गया है।”
शकराज से गुप्त वंश का यह युद्ध इतिहासकारों के अनुसार 374 ई.पू. से 380 ई.पू. के बीच में हुआ था। इस नाटक की मूल घटना यद्यपि ऐतिहासिक है, तथापि नाटककार ने उसमें मौलिक कल्पना का समावेश किया है। मौलिक कल्पना के समावेश से यह नाटक तद्युगीन देशकाल से जुड़ गया है। नाटक के कुछ पात्र, यथा- चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, रामगुप्त, शकराज, शिखरस्वामी आदि ऐतिहासिक पात्र हैं, किंतु कोमा, मिहिरदेव और मन्दाकिनी आदि काल्पनिक पात्र हैं। प्रसाद जी की यह खासियत हैं कि उनके नाटकों के अधिकांश स्त्री- पात्र कल्पना-प्रसूत हैं। ऐसे पात्रों के प्रवेश से कथानक में रोचकता के साथ-साथ द्वन्द्व उभरता है। यहाँ भी अधिकांश स्त्री- पात्र और उनसे संबद्ध घटनाएँ काल्पनिक हैं। अतएव, यह कहा जा सकता है कि ध्रुवस्वामिनी नाटक में प्रसाद जी ने इतिहास और कल्पना का सुन्दर समन्वय किया है।
ध्रुवस्वामिनी नाटक की कथावस्तु संक्षिप्त, रोचक और गतिशील है। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने द्वितीय पुत्र चन्द्रगुप्त को राज्य का उत्तराधिकारी बनाया था और उसका विवाह विजित राजा की कन्या ध्रुवस्वामिनी से निश्चित किया था। चन्द्रगुप्त का बड़ा भाई रामगुप्त अयोग्य, विलासी एवं मद्यप था, किन्तु समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरान्त शिखरस्वामी नामक षड्यन्त्रकारी अमात्य के सहयोग से रामगुप्त राज्य का उत्तराधिकारी बन बैठा और उसने ध्रुवस्वामिनी से विवाह भी कर लिया। चन्द्रगुप्त पारिवारिक विग्रह की आशंका से शान्त बना रहा इस पीड़ा के साथ कि उसकी वाग्दत्ता दूसरे की पत्नी बन गई।
रामगुप्त सेना लेकर दिग्विजय करने के लिए निकल पड़ा। इस समय शकराज से गुप्त साम्राज्य का युद्ध चल रहा था। इस युद्ध में ‘शकों’ की स्थिति बेहतर थी। शकराज ने युद्ध बन्द करने के लिए जो सन्धि प्रस्ताव भेजा, उसके अनुसार रामगुप्त को अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी शकराज को उपहार में देनी थी। रामगुप्त ने इस प्रस्ताव को सहज ही स्वीकार कर लिया। ध्रुवस्वामिनी ने रामगुप्त से अपनी रक्षा की प्रार्थना की अपने कुल गौरव को बचाने की अनुनय-विनय की, किन्तु रामगुप्त ने अपनी निर्लज्जता प्रदर्शित करते हुए कायरों की भाँति अपनी प्राणरक्षा के लिए शकराज के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
इस पर कुपित होकर ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त से कहती है- “मैं उपहार में देने की वस्तु शीतलमणि नहीं हूँ। मुझमें रक्त की तरल लालिमा है। मेरा हृदय उष्ण है और आत्मसम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा मैं ही करूँगी….!”
नाटककार जयशंकर प्रसाद ने इस नाटक के माध्यम से स्त्री- स्वातंत्र्य को अभिव्यक्त किया है। उन्होंने ध्रुवस्वामिनी के बहाने स्त्री-जाति के आत्म- गौरव को जाग्रत करना चाहा है। ध्रुवस्वामिनी शक शिविर में जाने से साफ इन्कार कर देती है। वह स्पष्ट शब्दों में कहती है- “यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरव, नहीं बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते।” इसके बाद वह आत्महत्या करने को उद्धत होती है, किन्तु कुमार चन्द्रगुप्त उसे रोक लेता है। यह अलग सवाल है कि यहाँ ध्रुवस्वामिनी द्वारा आत्महत्या का प्रयत्न स्त्री- प्रतिरोध को थोड़ा भोथरा बना दिया है।
ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त की वाग्दता है, इसीलिए चन्द्रगुप्त स्वयं स्त्री-वेश धारण कर ध्रुवस्वामिनी के साथ शकराज के दुर्ग में प्रवेश करता है और शकराज का वध कर देता है। इससे पूर्व शकराज को उसकी प्रेमिका कोमा भी समझाती है कि तुम्हें ध्रुवस्वामिनी को उपहार में नहीं मांगना चाहिए। कोमा के पिता आचार्य मिहिरदेव समझाते हैं कि राजनीति से भी बड़ी होती है नीति, जिसका आश्रय छोड़ने पर व्यक्ति नष्ट हो जाता है। किन्तु वह उनका तिरस्कार करता है और कोमा के प्रेम को भी ठुकरा देता है।
आखिरकार शक दुर्ग पर अधिकार कर लेने का समाचार सुनकर रामगुप्त के सैनिक वहाँ पहुँचकर क्रूरता प्रदर्शित करते हुए मारकाट करते हैं और कोमा तथा उसके पिता दोनों ही मारे जाते हैं। ध्रुवस्वामिनी की प्रेरणा पर चन्द्रगुप्त अपने भाई रामगुप्त का मुखर विरोध करता है और ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त- जैसे क्लीव और कायर को अपना पति मानने से इन्कार कर देती है। नाटक के अन्त में धर्म परिषद का आह्वान किया जाता है और उसमें पुरोहित अपना निर्णय देता हुआ कहता है- “विवाह की विधि ने देवी ध्रुवस्वामिनी और रामगुप्त को एक भ्रान्तिपूर्ण बन्धन में बांध दिया है। धर्म का उद्देश्य इस तरह पद-दलित नहीं किया जा सकता…. यह रामगुप्त गौरव से नष्ट, आचरण से पतित, कर्मों से राजकिल्विषी और क्लीव है। ऐसी अवस्था में रामगुप्त का ध्रुवस्वामिनी पर कोई अधिकार नहीं।” परिषद के लोग रामगुप्त को गुप्त साम्राज्य के राज्य- सिंहासन से भी वंचित कर देते हैं। चन्द्रगुप्त राजा बनता है और उसका विवाह ध्रुवस्वामिनी से कर दिया जाता है।
समग्रत: ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से नाटककार ने ऐतिहासिक त्रासदी के साथ ही स्त्री- स्वातंत्र्य के महत्त्वपूर्ण आयामों को उजागर किया है। हमारे समाज में आज भी अनमेल विवाह जैसी समस्याएँ स्त्री-जीवन को नरक बना रहा है। पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को सब कुछ दे सकता है, परंतु जीवन साथी के चयन का अधिकार देना उन्हें कतई स्वीकार नहीं। ऐसी स्थिति में स्त्री को जीवनपर्यंत एक ऐसे पुरुष को झेलना पड़ता है, जो उन्हें फूटी नजर से नहीं सुहाता। नि:संदेह भारतीय समाज में जब तक अनमेल या पैशाच विवाह की परंपरा रहेगी, तब तक ध्रुवस्वामिनी जैसे नाटकों की प्रासंगिकता बरकरार रहेगी।
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लेखक, श्री राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य और अध्यक्ष हैं।