कथा-सम्राट प्रेमचंद द्वारा रचित उपन्यास ‘गोदान’ हिन्दी उपन्यासों में शीर्षस्थ है। अपनी सहज प्रवाहपूर्ण शैली, रोचक कथावस्तु, उदात्त मानवीय मूल्यों, यथार्थ एवं आदर्श के मणिकांचन संयोग के कारण पाठकों के एक विराट वर्ग से इसे सराहना प्राप्त होती रही है। प्रेमचंद ने इस महाकाव्यात्मक उपन्यास के माध्यम से भारतीय समाज का यथार्थ चित्र अंकित किया है। ‘गोदान’ भारतीय कृषक की संघर्ष भरी दास्तान को शब्दों में बांधने का सफलतम प्रयास है। यह किसानी जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है। इसे 1930 और 1940 के दशक के उत्तर भारत का साहित्यिक इतिहास कहें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। औपन्यासिक तत्त्वों के आधार पर भी यदि इस उपन्यास का मूल्यांकन किया जाय तो यह एक श्रेष्ठ उपन्यास सिद्ध होता है।
उपन्यास चाहे जिस प्रकार का हो, रोचक तो होना ही चाहिए। यह रोचकता ही पाठक को उपन्यास पढ़ने के लिए बाध्य करती है। उपन्यास की रोचकता उसके शीर्षक से प्रारम्भ हो जाती है। अतएव, शीर्षक के चयन में उपन्यासकार को सचेत एवं जागरूक रहना पड़ता है तथा अपनी सूझ-बूझ का भी परिचय देना पड़ता है। शीर्षक का चुनाव करते समय उसे कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है, अन्यथा शीर्षक असंगत, नीरस तथा आकर्षण-विहीन हो सकती है। एक श्रेष्ठ उपन्यास का शीर्षक संक्षिप्त,सरस, कौतूहलवर्धक एवं आकर्षक होना चाहिए। शीर्षक का सम्बन्ध उपन्यास के प्रमुख पात्र, घटना अथवा स्थान से किसी- न-किसी रूप में संबद्ध होना चाहिए। कभी-कभी उपन्यास का शीर्षक व्यंग्यात्मक भी होता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि उपन्यास का शीर्षक ऐसा होना चाहिए, जिसे पढ़कर पाठकों के मन में उत्सुकता, कौतूहल और जिज्ञासा का भाव जाग्रत हो उठे और वे उपन्यास पढ़ने के लिए बाध्य हो जायें।
यदि शीर्षक के उपर्युक्त मानक पर ‘गोदान’ उपन्यास की समीक्षा करें तो हम पाएंगे कि एक श्रेष्ठ शीर्षक की सभी विशेषताएँ इसमें अंतनिर्हित हैं। गोदान का शीर्षक सरल, संक्षिप्त और कौतूहलवर्धक है। ‘गोदान’ एक सामासिक शब्द है। विग्रह करने पर ‘गो’ और ‘दान’ अलग हो जाता है। अर्थ हो जाता है – ‘गाय का दान’। इस ‘गोदान’ शब्द को पढ़कर ही पाठक के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है कि गोदान किसका हुआ?….. कैसे हुआ?….. और किसने किया ? वह इन प्रश्नों का समाधान खोजने के लिए उपन्यास को पढ़ने के लिए विवश हो जाता है।
इस उपन्यास का शीर्षक अन्तिम घटना से सम्बन्धित है। जब होरी मृत्यु शैय्या पर पड़ा है और धनिया पंडित दातादीन से कहती है, “महाराज घर में न तो गाय है, न बछिया है, न ही पैसा! यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है।”
भारतीय जन-जीवन में कुछ ऐसी परम्पराएँ चली आ रही हैं, जिन्हें बुद्धि और तर्क की कसौटी पर नहीं कसा जाता, केवल रूढ़ि के रूप में उनका पालन भर होता है। जीवन की अन्तिम बेला में मृत्यु से पहले यदि मरने वाला व्यक्ति किसी ब्राह्मण को ‘गोदान’ कर दे तो उसके लिए वैतरनी नदी पार कर स्वर्ग सहज हो जाता है। इस तथ्य की कोई परीक्षा नहीं हो सकती, परंतु इस औपचारिकता का पालन अवश्य किया जाता है। जीवनपर्यंत गाय पालने की साध पूरी नहीं कर सकने वाले होरी से इसी ‘गोदान’ की अपेक्षा की गयी है। गोदान कराने की बात भी वह पंडित दातादीन और होरी का भाई हीरा करता है। यह वही हीरा है जो ईर्ष्यावश गाय को जहर खिलाकर मार डाला था और वह वही दातादीन है, जो धर्म और कर्म के नाम पर उसे जीवनभर लूटा है।
यह शीर्षक मानव जीवन की एक बड़ी ट्रेजिडी को प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। जो व्यक्ति (होरी) जीवन भर गाय की साध पालता रहा और उसे कभी पूरा नहीं कर सका, उससे मरते समय ‘गोदान’ करवाने के लिए कहा जा रहा है। जो वस्तु हमें जीवन भर जीते जी नहीं मिली, मरण के बेला में वह कैसे जुट पायेगी? यह एक ज्वलन्त प्रश्न है। पर समाज को तो अपने धर्म का निर्वाह करना है। भले ही वह धर्म उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति में असफल रहा हो।
होरी के जीवन की यह लालसा है कि एक गाय उसके द्वार की शोभा बढ़ाए। यही उसकी सबसे बड़ी महत्त्वाकांक्षा है। गाय से वह अपने मान-सम्मान में वृद्धि करना चाहता है, केवल दूध पीने के लिए वह गाय नहीं खरीदता, बल्कि गाय उसके लिए ‘स्टेटस सिम्बल’ है। संयोग से उसे भोला की गाय उधार में मिल जाती है। होरी और धनिया में गाय की नांद गाढ़ने के प्रश्न पर विवाद उत्पन्न हो जाता है। धनिया गाय को घर में बांधना चाहती है। उसे मान-सम्मान की उतनी चिन्ता नहीं है, जितनी होरी को है। अतः वह उसे दरवाजे पर बांधता है। लोग गाय को देखने आते हैं और होरी की आत्मा तृप्त होती-सी जान पड़ती है। वह चाहता है कि, “लोग गाय को द्वार पर बंधी देखकर पूछें, यह किसका घर है….?” लोक यश की यह इच्छा उसके अन्दर गहराई तक बैठी हुई है। आगे चलकर उसकी यही इच्छा परलोक के सुख की इच्छा में परिवर्तित जाती है, पर मृत्यु के बेला में उसके परिवार की इतनी सामर्थ्य कहाँ कि ‘गोदान’ करवा सके और उसे परलोक के उस काल्पनिक सुख से तृप्त हो जाने दे। उपन्यास का यह अन्त हमें करुणा से ओत-प्रोत कर देता है।
‘गाय’ गोदान उपन्यास की धूरी है। इसकी पूरी कहानी इसी के इर्द-गिर्द घूमती है। गाय सभी फसाद की जड़ है। इस गाय के कारण ही होरी कर्जदार बना…… भोला से झूठ बोलकर बहलाता रहा और इस प्रकार उसने अपना नैतिक पतन किया। यह गाय ही गोबर को झुनिया से मिलाने का माध्यम बनी। झुनिया गर्भवती हो जाती है। परिणामतः गोबर को घर से भागने के लिए बाध्य होना पड़ा। झुनिया को अपनी बहू स्वीकार कर शरण देने से होरी को समाज का कोपभाजन बनना पड़ा। भोला उसके बैल खोलकर ले गया, उसे किसान से मजदूर बनना पड़ा। अथक श्रम और वेदना ने उसकी जान ले ली और अन्त में वह अपनी एक तुच्छ इच्छा की पूर्ति भी न कर सका। यही ‘गोदान’ की कहानी है। यही गोदान की विडंबना है। हम कह सकते हैं कि होरी से सम्बन्धित कथा का अंश जैसे ‘गोदान’ के चारों ओर घूमता है।
‘गोदान’ में प्रेमचन्द ने कृषक के आर्थिक शोषण को चित्रित करने का जो प्रयत्न किया है, वह प्रशंसनीय है। अकेला होरी ही नहीं भारत के सभी किसान इन्हीं समस्याओं से संघर्ष करते हुए दम तोड़ देते हैं। जब मृत्यु शैय्या पर पड़ा होरी गोदान नहीं कर पाता और हिन्दू धर्म के तथाकथित ठेकेदार उसका परलोक बिगड़ने की सम्भावना व्यक्त करते हैं तो गोदान का कथाकार उन सामाजिक रूढ़ियों पर, धर्म के उन ठेकेदारों पर तीखा व्यंग्य करता है। वह किसान जो दूसरों को अन्न देता है, पशुओं को चारा देता है, सारे जीवन भर गाय की आकांक्षा रखते हुए भी उसे प्राप्त नहीं कर पाता, उससे गोदान की अपेक्षा की जाती है। श्रम और संयम से भरे हुए जीवन में वह अपनी तुच्छ-सी इच्छा की पूर्ति नहीं कर पाता। अतः उसका यह लोक तो बिगड़ता ही है और ‘गोदान’ के अभाव में शायद परलोक भी।
पंडित दातादीन का यह कथन कि, “अन्तिम समय है होरी को मुक्ति प्राप्त करने के लिए अपने हाथ से ‘गोदान’ करने दो।” पाठक की सारी संवेदनाओं को झंकृत कर देता है और ऊपर से धनिया की यह विवशता कि, “घर में न गाय है, न बछिया न पैसा। यही पैसे हैं यही इनका गोदान है।”
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि प्रेमचंद ने इस उपन्यास के नामकरण में अपनी अपूर्व प्रतिभा, बुद्धि, कौशल एवं तीव्र संवेदना का परिचय दिया है। निश्चय ही ‘गोदान’ का नामकरण ‘गोदान’ के अतिरिक्त अन्य कुछ सम्भव ही नहीं था।