‘गोदान’ प्रेमचंद रचित एक वृहद् औपन्यासिक कृति है, जिसका वर्ण्य विषय अत्यन्त व्यापक है। इस व्यापकता को ध्यान में रखकर इसे ग्रामीण जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य कहा गया है। महाकाव्यात्मक उपन्यास उस उपन्यास को कहा जाता है, जिसका फलक अत्यंत व्यापक हो, चरित्र सृष्टि श्रेष्ठ कोटि की हो, विविध विषयों का निरूपण हो, उद्देश्य महत्त्वपूर्ण हो और जो जीवन से गहरा सरोकार रखता हो। महाकवि गेटे ने उपन्यास को ‘आत्मपरक महाकाव्य’ की संज्ञा दी है, तो राल्फ फॉक्स ने उपन्यास को आधुनिक बुर्जुआ समाज का महाकाव्य कहा है। डॉ. सत्यपाल चुघ का मत है कि, “महाकाव्य ‘रसवादी’ होते हैं, तो उपन्यास ‘उद्देश्यवादी’। उपन्यासों में जहाँ कौतूहल की प्रधानता रहती है, वहीं महाकाव्यों में संवेदना प्रधान होती है।”
जिस प्रकार कभी भारत की सामंतवादी समाज-व्यवस्था की अभिव्यक्ति महाकाव्यों में हो रही थी, उसी प्रकार पूंजीवादी समाज का चित्रण उपन्यासों में होता है। इसीलिए महाकाव्य अगर सामंतवाद की ऊपज है तो उपन्यास पूंजीवाद की कोख से निकला है। वस्तुतः महाकाव्य की प्रमुख विशेषता है- समग्र जीवन का चित्रण और यही विशेषता उपन्यास की भी है। इसी साम्य ने महाकाव्यात्मक उपन्यास की परिकल्पना को उत्पन्न किया है। अपने ग्रन्थ ‘उपन्यास पहचान और प्रगति’ में डॉ. सत्यकाम ने लिखा है, “जिन उपन्यासों में अपेक्षाकृत वृहत् फलक पर जीवन का समग्र रूप में या जीवन के किसी पक्ष का समग्र रूप में समस्त औपन्यासिक विशेषताओं के साथ चित्रण होता है, उन्हें महाकाव्यात्मक उपन्यास कहते हैं।” हिन्दी में प्रेमचंद का ‘गोदान’, यशपाल का ‘झूठा सच’ तथा अमृतलाल नागर का ‘बूंद और समुद्र’ महाकाव्यात्मक उपन्यास के रूप में चर्चित रहे हैं। ऐसे उपन्यासों में किसी विशेष कालखण्ड के समाज का चित्रण मूल्यों, विचारों, आकांक्षाओं के सन्दर्भ में विस्तार से किया जाता है। अतः उसमें तत्कालीन इतिहास, देशकाल, संस्कृति, अर्थनीति, समाज आदि समग्र रूप से व्याप्त होते हैं। पाठक उस उपन्यास को पढ़कर एक प्रकार से तत्कालीन युग को समग्रता से जान लेता है।
‘गोदान’ को महाकाव्यात्मक उपन्यास माना जाए अथवा नहीं, इस सम्वन्ध में आलोचकों ने अपने-अपने ढंग से विचार व्यक्त किए हैं। प्रसिद्ध समीक्षक आचार्य नंदुलारे वाजपेयी का कहना है कि इसमें महाकाव्योचित औदात्य, सर्वतोमुखी जीवन का चित्रण एवं वीर भावना का अभाव है, अतः यह अपने युग का प्रतिनिधित्व नहीं करता। इस कारण इसे महाकाव्यात्मक उपन्यास कहना उचित नहीं है। किन्तु आचार्य नलिन विलोचन शर्मा के मत में गोदान भारतीय जीवन का समग्रता से यथार्थ चित्रण करता है, अतः इसे महाकाव्यात्मक उपन्यास कहा जा सकता है। डॉ. गोपाल राय के मतानुसार,”गोदान ग्रामीण जीवन और कृषि संस्कृति को उसकी सम्पूर्णता में प्रस्तुत करने वाला अद्भुत उपन्यास है, अतएव इसे ग्रामीण जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य कहा जा सकता है।”
गोदान में केवल ग्राम संस्कृति ही नहीं है, अपितु लगभग 160 पृष्ठों में नगर की कथा भी है जो यह प्रतिपादित करती है कि इसमें नगरीय संस्कृति भी है और प्रेमचंद केवल गाँव का चित्रण करने तक सीमित नहीं रहना चाहते थे। गोदान में ग्राम अपनी समग्रता के साथ यथार्थ रूप में चित्रित है। रायसाहब से मिलने उनके गाँव सेमरी की ओर जाते हुए होरी ने जिस रास्ते को पकड़ा है, उसका चित्रण प्रेमचंद इस प्रकार करते हैं- “अब वह खेतों के बीच की पगडण्डी छोड़कर एक खलैटी में आ गया था, जहाँ बरसात में पानी भर जाने के कारण तरी रहती थी और जेठ में कुछ हरियाली नजर आती थी। आस-पास के गाँवों की गउएं यहाँ चरने आया करती थीं। उस समय में भी यहाँ की हवा में कुछ ठण्डक थी।”
गोदान के पात्र अपने-अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुए समाज के समग्र परिवेश को प्रस्तुत कर देते हैं। होरी कृषक वर्ग का प्रतिनिधि पात्र है। उसके दु:ख, कष्ट, पीड़ाएं, समस्याएँ, अभाव आम किसान की कठिनाइयों को प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार रायसाहब जमींदार वर्ग का, मेहता बुद्धिजीवी वर्ग का, खन्ना साहब उद्योगपतियों का, मालती आधुनिक नारी- वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाला चरित्र है। धनिया होरी की पत्नी के रूप में कृषक नारी का तो गोबिंदी एक आदर्श भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व करती है। निष्कर्ष यह है कि गोदान के पात्र समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हुए एक विस्तृत फलक को अपने में समोये हुए हैं। गोबर नई पीढ़ी का ऐसा विद्रोही नवयुवक है, जो अपने पिता की तरह जमींदारों एवं साहूकारों के शोषण के चक्र में पिसने को तैयार नहीं है, अतः वह गाँव छोड़कर शहर में चला जाता है। परिश्रमी गोबर शहर की चकाचौंध में धन तो कमाता है, किन्तु मद्यपान जैसी नगर की बुराइयों से ग्रस्त हो जाता है। उसमें शहरी संस्कृति में पनपने वाली स्वार्थपरता भी घर कर जाती है।
अविस्मरणीय चरित्र की सृष्टि भी महाकाव्यात्मक उपन्यास की एक अन्य विशेषता मानी गई है। गोदान में प्रेमचंद ने ‘होरी’ जैसे उदात्त चरित्र की सृष्टि की है, जो तब तक अमर रहेगा, जब तक साहित्य जगत में प्रेमचंद का नाम रहेगा। होरी के साथ-साथ धनिया भी उनकी अमर पात्र है। धनिया ऊपर से भले ही इस्पात जैसी कठोर हो, पर उसका हृदय मोम-सा कोमल है। उसका मातृ-स्नेह अत्यन्त प्रबल है। इसी कारण वह झुनिया और सिलिया को अपने घर में आश्रय देती है और बिरादरी एवं समाज की परवाह न करते हुए मानव मूल्यों को तरजीह देती है। निश्चय ही, धनिया प्रेमचंद की जीवन्त पात्र है और ग्रामीण समाज की उन तमाम स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती है जो जीवन भर परिश्रम एवं संघर्ष करती हैं, पर जीवन से हार नहीं मानतीं। स्वयं होरी ने धनिया की चारित्रिक विशेषताओं को इन शब्दों में व्यक्त किया है, “सेवा और त्याग की देवी, जबान की तेज पर मोम जैसा हृदय, पैसे-पैसे के पीछे प्राण देने वाली, पर मर्यादा की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम कर देने को तैयार।”
मालती के रूप में प्रेमचंद ने एक ऐसे स्त्री- पात्र की कल्पना की है जो “नवयुग की साक्षात प्रतिमा है। गात कोमल, पर चपलता कूट-कूटकर भरी हुई। झिझक या संकोच का कहीं नाम नहीं। मेकअप की कला में प्रवीण, बला की हाजिर जवाब, पुरुष मनोविज्ञान की अच्छी जानकार।” मालती बाहर से तितली पर भीतर से मधुमक्खी है। प्रोफेसर मेहता के सान्निध्य में आकर उसके चरित्र में जबर्दस्त परिवर्तन आता है और वह सेवा एवं त्याग की प्रतिमूर्ति बन जाती है। वह ग्रामीणों की सेवा में पूरी तरह अपने को डुबा देती है। उसे अब लगता है कि,”इस त्यागमय जीवन के सामने वह विलासी जीवन कितना तुच्छ और बनावटी था।” मालती का यह परिवर्तन उसे एक गतिशील चरित्र के रूप में स्थापित करता है। मालती के विषय में डॉ. गोपाल राय ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है, “प्रेमचंद चाहते थे कि भारत की शिक्षित स्त्रियाँ पारिवारिक बंधन में न पड़कर पुरुषों को देश सेवा के लिए प्रेरणा दें और स्वयं भी मैदान में आकर समाज की सेवा करें। मालती उनकी इस आकांक्षा को रूपायित करती है।”
मेहता जी के रूप में प्रेमचंद ने एक ऐसे बुद्धिजीवी का चरित्र प्रस्तुत किया है जो कथनी और करनी में एकरूपता का पक्षधर है और चाहता है कि हमारा जीवन हमारे सिद्धान्तों के अनुरूप हो। शोषण के विरोधी होने पर भी साम्यवाद में उनका विश्वास नहीं है, क्योंकि उनकी धारणा है कि, “संसार में छोटे-बड़े हमेशा रहेंगे, इसे मिटाने की चेष्टा करना मानव- जाति का सर्वनाश करना होगा।”
मेहता जी ने नारी के सम्बन्ध में जो अवधारणा गोदान में व्यक्त की है, वह प्रेमचंद के नारी विषयक दृष्टिकोण को स्पष्ट करती है। वे प्रोफेसर मेहता के माध्यम से कहते हैं, “मैं आपसे किन शब्दों में कहूँ कि स्त्री मेरी नजरों में क्या है। संसार में जो कुछ सुन्दर है, उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ।……. नारी केवल माता है, और इसके उपरान्त वह जो कुछ है, यह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र।……. मेरे जेहन में औरत वफा और त्याग की मूर्ति है जो अपनी बेजुबानी से, अपनी कुर्बानी से अपने को बिल्कुल मिटाकर पति की आत्मा का अंश बन जाती है।”
डॉ. रामविलास शर्मा का कथन है कि, “होरी और मेहता को यदि मिला दिया जाए तो प्रेमचंद का अपना व्यक्तित्य निर्मित होता दिखाई देगा।” ‘गोबर’ के रूप में प्रेमचंद ने विद्रोही तेवर से युक्त एक ऐसे युवक को प्रस्तुत किया है जो अन्याय एवं शोषण को चुपचाप सहने के लिए तैयार नहीं है। वह अन्याय बर्दाश्त न करने वाला विद्रोही चेतना से युक्त नवयुवक है। उसकी राजनीतिक चेतना भी शहर में होने वाले जलसों में सुने गए भाषणों से जाग्रत हो चुकी है। यह जानता है कि छोटे-बड़े भगवान के घर से बनकर नहीं आते, अपितु जिसके पास लाठी है, वह शोषण करके बड़ा बन जाता है। निर्भीक चरित्र वाला गोबर जब होली के अवसर पर गाँव में प्रहसन खेलकर सबकी खिल्ली उड़ाता है, तब प्रेमचंद उसके भीतर दबे असन्तोष एवं विद्रोह को ही उजागर करते दिखाई पड़ते हैं।
निष्कर्ष रूप में प्रेमचंद का गोदान चरित्र-सृष्टि की दृष्टि से निश्चय ही महाकाव्यात्मक उपन्यास की कोटि में आता है। इसके चरित्र उदात्त हैं, संदेश देने में सफल हैं तथा मानव- मूल्यों के पक्षधर हैं। महाकाव्यात्मक उपन्यास में महान उद्देश्य भी होता है तथा वह मानव मूल्यों एवं नैतिकता को प्रतिष्ठित करने वाला होना चाहिए। प्रेमचंद ने इस उपन्यास में कृषक जीवन की कथा को प्रस्तुत करते हुए उसके शोषण का यथार्थ चित्रण किया है। इस उपन्यास का उद्देश्य उस सम्पूर्ण शोषण-चक्र को अनावृत्त कर देना है जो सामंतवाद एवं पूँजीवाद के गठजोड़ से बना है। वे कहते हैं, “किसी को भी दूसरे के श्रम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है। उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है। कर्म करना प्राणिमात्र का धर्म है। समाज की ऐसी व्यवस्था, जिसमें कुछ लोग मौज करें और अधिक लोग पिसें और खपें, कभी सुखद नहीं हो सकती।”
कथाकार प्रेमचंद का मनुष्यत्व पर अटल विश्वास था। नीच से नीच पात्र में वे मानवता की झलक खोज लेते हैं, इसलिए उनके पात्र गिरने पर भी सुधरते जाते हैं। उनका कोई भी पात्र नितान्त खलपात्र नहीं है। गोदान का उद्देश्य शोषण के विविध रूपों का चित्रण करना है। किसान सबका ‘नरम चारा’ है। जमींदार, कारकुन, पटवारी, महाजन, साहूकार, पुलिस, बिरादरी, धर्म के ठेकेदार सबके सब उसका शोषण करते हैं। प्रेमचंद ने इस उपन्यास में पूँजीवादी व्यवस्था को समाप्त करने की बात कही है। शोषण की प्रक्रिया गाँव और नगर में समानान्तर रूप से चलती है। गाँव में जमींदार, साहूकार आदि किसान का शोषण करते हैं तो नगर में पूँजीपति श्रमिक का शोषण करता है। मिल मालिक खन्ना अपने अहंकार में मजदूरों की उचित मांगों को ठुकरा देते हैं, परिणामतः हड़ताल होती है और खन्ना की मिल में मजदूर आग लगा देते हैं।
यह स्वाभाविक है कि गोदान तक आते-आते प्रेमचंद का गांधीवादी अहिंसा से मोह भंग हो चुका था और वे अधिकारों की लड़ाई में विद्रोही तेवर अपनाने पर बल देने लगे थे। विपत्ति के समय पत्नी ही साथ देती है, प्रेमचंद ने धनिया और गोबिन्दी के चरित्रों में इसी तथ्य को व्यक्त किया है। मिल में आग लगने से हताश खन्ना को उनकी पत्नी गोविन्दी सांत्वना देती है और कहती है-“जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उन्हें लूटने में नहीं। मेरे विचार से तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें तो यह सौदा महगा नहीं है। प्रेमचंद जी यह भी मानते हैं कि, “सच्चा आनन्द, सच्ची शान्ति केवल सेवाव्रत में है। वही अधिकार का स्रोत है, वही शक्ति का उद्गम है।” उनकी धारणा है कि सामाजिक क्रान्ति में नारी का योगदान भी आवश्यक है।