‘किसन अधपगला है ! गंजेड़ी- भंगेड़ी है, जो मन में फुराता है, वही करने में रम जाता है! कोशी की कछेर में थोड़ी- सी जमीन क्या जगी, चला खेसारी छींटने!’
घाट पर खड़े लोग उस पर तरह-तरह के व्यंग्य कर रहे थे-‘सुआ न सुतारी, जूते का व्यापारी’।अब तो लोग उसमें एक और पंक्ति जोड़ने लगे हैं-‘खेती न पथारी, परवल की तरकारी’।
लेकिन किसन अलमस्त आदमी है। कोई कुछ कहे, करता वह हमेशा अपने मन की है। वह खेसारी छींट कर खेत के कोने पर पथिया झाड़ दिया और घर की ओर चलता बना। उसने किसी से कुछ नहीं कहा।
वैसे कहने के लिए उसके पास था भी क्या? चार बीघा खेत कोशी के पेट में समा गया और बाँकी का एक बीघा नौ साल से भरना (गिरवी) पर लगा है, जिसमें धनेसर यादव की धान फसल पकने वाली है। धान ऐसा कि थाली फेंक दो तो जमीन पर न गिरे। वहाँ पहुँच कर किसन ने मुट्ठी भर धान का शीश पकड़ा , मानो वह धनेसर का कंठ पकड़ा हो और नोचकर पूरी ताकत से दे मारा- “साला धनेसरा, बेईमान कहीं का!”
किसन का मन खींझ गया। पिछली बार इस खेत को उसने ही बोया था। कट्ठा मन खेसारी हुआ। कास-पटेर की झाड़ियों को तोड़कर उसने बड़ी मेहनत से उसे तैयार किया था, पर गेहूँ बोने के समय धनेसर ने धाबा बोल दिया। कहा कि खेत छोड़ दो, हम अपने बोएंगे। उसे खेत तैयार करने के बदले में मिला बीस किलो मकई।
किसन अभागा है! अगर ऐसा न होता तो बाँह पुरने वााला जबान बेटा दीपुआ उसे छोड़कर क्यों चला जाता! उसी के ईलाज में खेत भरना लगा, पर डॉक्टर ने साफ कह दिया कि वह नहीं बचेगा! टी.बी. के कीड़े ने उसके फेफड़े को जर्जर कर दिया था। महीने भर में ही वह खून की उलटी करके चल बसा!
किसन अनाथ हो गया! वह कहीं का न रहा, खेत भी हाथ से चला गया और जबान बेटा भी! रही सही कसर पूरी करने कोशी माता अपने रौद्र रूप में प्रकट हो गई। ऐसी दहाड़ कि कास पटेर तक गल गया! धान-पात को कौन पूछे ? घोर अकाल ! लोग दाने-दाने को तरसने लगे! पशु भूख से बिलबिलाकर मरते गये! इसी बीच सरकार ने लोगों की खबर ली। दहनाली का मुआवजा ब्लॉक पर कैंप लगाकर दिया जाने लगा। पर बीघा बारह सौ रुपये और परिवार पीछे एक मन अनाज। पशुओं के लिए एक क्विंटल भूसा अलग से। लेकिन किसन वहाँ भी अभागा निकला। उसकी बारी आयी तो धनेसर ने कहा- “तेरा कौन- सा खेत दहाया है रे किसना ? चार बीघा खेत था, वह कब का कोशी के पेट में गया। तू रसीद भी कटवाता है खेत की- ‘सुआ न सुतारी, जूते का व्यापारी’।”
बस इतना कहना था कि लाईन में खड़े सारे लोग मुँह चीर- चीर कर हँसने लगे। किसी ने उसमें अगला लाईन भी जोड़ दिया-“खेती न पथारी, परवल की तरकारी।”
दो सप्ताह में खेसारी की डिभी बुबूआ कर निकला। जल्दी ही पूरा खेत हरिया गया। नीचे बालू और ऊपर से चार अंगुल मोटी पाँक की परत……खाद-पानी की कोई जरूरत नहीं।
खेसारी के नीले-पीले फूलों ने किसन की बेरंग जिंदगी में रंग भर दिया। अब उसने खेत के कोने पर छप्पर डाल कर वहीं डेरा जमा दिया। भेलाही वाली सुबह-शाम रोटी-पानी पहुँचाने लगी। कोशी कल-कल ध्वनि ही अब उसके लिए लोरी बन गई तो हवाओं के साथ भीते से धारा के टकराने की आवाज थपकियाँ।
दूर-दूर तक फैलते जा रहे तिकोने खेतों के साथ ही किसन का हृदय फैलने लगा। आशाएँ पलने लगीं। माता ने अपने में लील लिए खेत निराश्रित पुत्र को वापस कर दिया। उनका हृदय बेटे की दीनता को देखकर पिघल गया।
किसन के भीतर उत्साह लौट आया। उसमें असीम शक्ति आ गई। उन्होंने गाँजे का सोंट मार-मार कर एक ही रात में पूरे खेत को उधेस कर रख दिया। हर दो कदम पर एक-एक फुट गहरा गड्ढ़ा। जैसे उसपर कोई जिन्न सवार हो गया हो। सुबह में घटवार ने जब लोगों को उसकी करतूत दिखाई तो सभी हँसते-हँसते लोटपोट हो गये। लोग तरह-तरह की बात करने लगे।
कोई कहता कि किसना हगने के लिए इतना गड्ढ़ा कोर रखा है, तो कोई कहता, वह अपने मरे हुए बाप खोदकर निकाल रहा होगा। साला पूरे पगला गया है।
किसन इन बातों से बेपरवाह अपनी झोपड़ी में चादर तानकर सोया रहा।
चार दिन बाद सारे गड्ढ़े बराबर। पन्द्रहवें दिन खेत के सीने को चीरकर सैकड़ों नयी-नयी कोपलें निकल आयीं। अनेक तरह की फसलें- तरबूज़,फूट, खीरा, ककरी, करैला, झींगनी और परवल ऊग आईं।
भेलाही वाली सबकी अलग-अलग क्यारियाँ बनाती जा रही थी और किसन नदी से पानी भर-भर कर उसे भरे जा रहा था। महीने भर में रंग-बिरंग की फूल-बातियों से पूरा खेत भर गया। किसन को अब न तो भूख लगती थी और न प्यास। भेलाही वाली भी दिनभर खेत में डेरा डाले रहती। रघुआ अब बाप के साथ ही झोपड़ी में सोने लगा।
घाट से गुजरने वाले लोग अब ‘खेती न पथारी, परवल की तरकारी’ कहना भूल गये, क्योंकि किसन के घर में अब रोज परवल की तरकारी बनती है। अब उसके पास सुआ भी है और सुतारी भी।
रघुआ को सरकारी स्कूल में नयी साईकिल मिली। दोनों बाप-बेेटे फूट, तरबूज़, ककरी, खीरा और परवल लादकर साहपुर मार्केट पहुुँचाने लगे। फसल अगता होने के कारण रेट अच्छा मिल रहा था। परवल पचास रुपये किलो, खीरा चालीस रुपये। तरबूूूज़ सौ का हरदर और फूूूट पचास का हरदर।
किसन सुबह-सुबह जब धनेेेसर यादव के घर पहुँचा, तो उसे समझने में देर न लगी कि वह अपना भरना खेत छुड़ाने आया है।
किसन ने पाँच हजार केे बदले धनेसर यादव को इक्कावन सौ रुपये देते हुए कहा- “यादव जी सुन्ना ठीक नहीं होता है।”
धनेसर नथेे हुुुए बैल की भाँँति फूँ-फूँ करके रह गया। वह करता भी क्या, पाशा पलट गया था। हारकर बोला- “खेेेत छुड़ाते हो, पर बैल कहाँँ से लाओगे ?”
“बैल, लौफा हाट से लाए हैं, बाईस हजार मेंं पता नहीं है। कहाँ रहते हैं आजकल।” किसन ने छाती फुलाते हुुए कहा।
धनेसर की आँखें फट गईं ! रघुुआ मुँह चीरकर हँँसने लगा।
किसन को अब बाजार जाकर माल नहीं बेचना पड़ता था। व्यापारी लोग खेत से ही माल उठाने लगा, लेकिन अभी पाँँच-सात खेप ही माल निकला था कि अचानक उसपर कहर टूट पड़ी। घाट पर किसी के मुुँँह से उसने सुना कि ‘नेेेपाल सरकार ने कोशी मेें तीन लाख पानी छोड़ दिया है! नदियोंं मेें ऊफान आएगी! सबकुछ दह जाएगा!’
किसन इस बार सच में पगला गया। वह घाट से गुजरने वाले हर आदमी से यही पूूूछता कि क्या सच में नेपाल सरकार ने तीन लाख पानी छोड़ दिया है….. क्या सब कुछ दह जाएगा!…..कुछ भी नहीं बचेेगा?
लोगों की चुप्पी से उसका प्राण सूूूख जाता। उधर भेलाही वाली अलग छाती पीट रही थी।
किसन माथे पर हाथ रखकर नदी के किनारे बैठ गया।वह एकटक नदी की धारा को निहार रहा था…..उनकी आँखें बरसती जा रही थीं……आँसू की बूंदें धारा में विलीन होती जा रही थीं ! उनकी तमाम आशाएँ-आकांक्षाएँ धारा के साथ ही बहती चली जा रही थीं !
वह कोशी के रोद्र रूप से बेखबर नहीं था। उन्हें 1987 ई. की भीषण बाढ़ का स्मरण हो आया। तब वह करीब तेेरह साल का था। एक ही रात में सब कुुुछ कोशी के पेट मेें समा गया! ऐसा कटाव अब तक किसी ने नहीं देखा था। एक-एक बार मेें कट्ठे भर का धसना गिरता था। गंभाए हुए धान के खेत कट गए…….खलिहान कट गया। घर नदी में समाते गए। अब लोगों को लग रहा था कि भोले बाबा ही माता के क्रोध को शांत करेंगेे। इसलिए सबकी नजरें शिव मंदिर पर टिकी थीं। लेकिन भोले नाथ अपनी रक्षा नहींं कर सके! पहले राधा-कृष्ण ने जल समाधि ली; फिर गणेशजी…… बजरंंगवली और अंत में बाबा से भी नहीं रहा गया! संंसार के दुु:खहर्ता ने समाधि ले ली! लोगों की हिम्मत पस्त हो गई!
उसके दोनों बैैैल नदी में बह गए! माँ छाती पीट रही थी। बाबूजी कोशी बाँँध पर माथा पकड़ कर बैैठे थे। महीने भर सत्त्तू और चूड़ा पर गुुजारा हुआ था! फिर वही समय……कोशी का वही आतंक……वही आफत….भूखमरी और फटेेहाली! किसन का कलेेजा फट गया। वह बुक्का पार कर रो पड़ा।
भेलाही वाली बतिया परवल तोड़ रही थी। किसन ने रोककर कहा- “बतिया नहीं तोड़ो, रहनेे दो; अगर माता की यही मरजी तो क्या करेंगे!”
भेलाही वाली उसे अनसुना कर अपना काम करती रह गई। किसन अपनी झोपड़ी में आकर चुपचाप लेेट गया। शाम हो गई थी। घाट सुनसान हो चुका था। घटवार अपनी झोपड़ी उजाड़ कर जा चुका था। घाट पर लोगों की आवाजाही बंद हो गई थी।भेलाही वाली उसे घर चलने को मना रही थी, पर वह तो पत्थर हो चुुका था।
नदी की धारा निरंतर तेज होती जा रही थी। उसमें जलकुुंभियों की मात्रा बढ़ती जा रही थी। पानी गँँदला होता जा रहा था। रह-रह कर फसाठी लकड़ियाँ सामने से गुजर जाती थीं। किसन की आँखें बंद हो गयीं, लेकिन भीतर ही भीतर लाईव चालूू था। नदी भरती जा रही थी……. उसके तिकोने खेत उसमें समाते जा रहे थे । परवल दह गया…. खीरा दह गया…. फूट और तरबूज़ नरमुंड की भाँँति उपलाने लगे। किसन उसे पकड़-पकड़ कर भीते पर रखने लगा। पानी वहाँ भी पहुँँच गया। तरबूज फिर उपलाने लगे। किसन ने उसेे फिर पकड़ा।अब उसकी झोपड़ी दहने लगी। किसन दोड़कर उसके साथ हो लिया। वह झोपड़ी के साथ ही बहता गया…… बहता चला गया। अब वह बीच नदी में था। तरबूज, ककरी और फूट उसकेे साथ होड़ किए जा रहे थे।
किसन चौंक कर जगा! उसका पूूरा शरीर काँप रहा था। वह झोपड़ी के बीच वालेे खंभे को कसकर पजियाए हुुुआ था।
वह होश मेें आया तो सुुबह हो चुुकी थी। घाट पर फिर से लोगोंं की भीड़ लग गई थी। घटवार झोपड़ी बना रहा था। भेलाही वाली फूल और पान- सुुुपारी चढ़ा कर कोशी माता की पूजा कर रही थी। रघुआ तरबूज, खीरा, ककरी और परवल तोड़ कर ढेर लगा दिया था। व्यापारियोंं की गाड़ियाँ कतार में खड़ी थीं।
किसन उठकर नदी के किनाारे गया और दो आँजुर पानी उपछकर माता को प्रणाम किया। उसका हृृृदय श्रद्धा से अभीभूत हो चुका था। उसके खेत पट चुके थे। माता अपनी धारा के साथ बह रही थी।मानो वह अपने असहाय बेटे को बक्श दी हो।
*****************
डाॅ. उमेश कुमार शर्मा